लेकिन, शिक्षा के अवसरों का विस्तार करते हुए इसकी गुणवत्ता को तिलांजलि नहीं दी जा सकती. उच्च शिक्षा का हर दरवाजा 10वीं-12वीं के बाद खुलता है और यहां ज्यादा अंक वालों को पहले प्रवेश देने का नियम है. इसी को आधार बना कर शिक्षा माफिया अपना गोरखधंधा चलाते हैं, जिसमें ज्यादा अंक की गारंटी मुंहमांगी कीमत से तय होती है. बिहार ही नहीं, देश के कई प्रांतों में शिक्षा-माफिया ने पद, पैसा और रसूख के बूते 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं में ज्यादा अंक दिलाने का एक व्यवस्थित तंत्र बना रखा है.
इलाके के किसी रसूखदार के संरक्षण में चल रहे स्कूल-कॉलेजों के संचालक शिक्षा क्षेत्र की नौकरशाही से मिलीभगत कर परीक्षा में अधिक अंक दिलाने का धंधा खुलेआम चलाते हैं. ऐसे स्कूल-कॉलेजों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए निर्धारित मानदंडों का खुलेआम उल्लंघन होता है. ‘जितनी ज्यादा रकम, उतने ज्यादा अंक’- हर जगह शिक्षा माफिया ने सिर्फ इसे ही अपना घोषित नियम बना रखा है.
ऐसे में, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जरूरी मानदंडों को पूरा नहीं करनेवाले दर्जनों स्कूल-कॉलेजों की मान्यता रद्द कर बिहार सरकार ने शिक्षा माफिया के इस चलन को तोड़ने का साहस दिखाया है. शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे कठोर कदम नहीं उठा पाने का ही नतीजा है, कि हमें अकसर खबरों में पढ़ने-सुनने को मिलता है कि कॉलेजों से निकलनेवाले विद्यार्थी रोजगार देने लायक नहीं होते हैं.
12वीं के अंकों के आधार पर स्नातक स्तर की पढ़ाई करके हर साल कॉलेजों से तकरीबन 75 लाख छात्र निकलते हैं, लेकिन हाल की खबरों के मुताबिक इनमें से 47 फीसदी किसी भी नौकरी के लायक नहीं होते. बीते अप्रैल में डेढ़ लाख इंजीनियरिंग छात्रों के सर्वेक्षण पर आधारित खबर आयी थी कि इनमें से केवल सात फीसदी ही रोजगार पाने लायक योग्यता रखते हैं. इन सब का बड़ा कारण कमजोर बुनियाद यानी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर पर्याप्त शैक्षिक परिलब्धि नहीं होना भी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि मानव-संसाधन को देश के बहुमुखी विकास के योग्य बनाने की दिशा में बिहार का साहसिक फैसला सार्थक होगा और अन्य प्रांतों के लिए नजीर बनेगा.