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श्राद्ध का सप्लाई-चेन मैनेजमेंट
डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार श्राद्ध खत्म हो गये हैं और अब हम सब वापस अपने असली रूप में आ सकते हैं. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, श्राद्ध वह अकेला कर्म है, जिसे श्रद्धा से करना काफी है, क्योंकि केवल श्राद्ध को ही श्राद्ध यानी श्रद्धा से किया जानेवाला कार्य कहा गया है. […]
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
श्राद्ध खत्म हो गये हैं और अब हम सब वापस अपने असली रूप में आ सकते हैं. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, श्राद्ध वह अकेला कर्म है, जिसे श्रद्धा से करना काफी है, क्योंकि केवल श्राद्ध को ही श्राद्ध यानी श्रद्धा से किया जानेवाला कार्य कहा गया है. चूंकि श्राद्ध पितरों यानी मृत पूर्वजों से संबंधित है, इसलिए इसका सही अर्थ यह हुआ कि जीते-जी जिनके साथ श्रद्धा से पेश नहीं आये, कम-से-कम उनके मरने के बाद तो उन्हें श्रद्धा से याद कर लो.
पितरों के पितर हो जाने से पूर्व यानी उनके जीते-जी उनके बच्चों द्वारा उनके साथ किये जानेवाले व्यवहार को कबीर ने इन शब्दों में सराहा है- जियत बाप से दंगमदंगा, मरे हाड़ पहुंचाये गंगा. यानी देखो इस सपूत को, यह भले ही अपने बाप को आजीवन मारता-पीटता रहा, पर बाप के मरने पर इसने उसकी हड्डियां गंगा में ही ले जाकर छोड़ीं!
कबीर के जमाने में शायद बच्चे अपने बाप के साथ ही यह प्रशंसनीय व्यवहार किया करते होंगे, मां के साथ नहीं, तभी उन्होंने अपनी कविता में केवल बाप का जिक्र किया. लेकिन, तब से अब तक उसी गंगा में न केवल बहुत पानी बह चुका है, बल्कि बह कर समाप्तप्राय भी हो चुका है.
अब बच्चे मां को भी बाप जितना ही प्यार करते हैं. अभी दिल्ली में एक सुपुत्र ने पहले तो अपनी विधवा मां की जानकारी के बिना ही उसके नाम पंजीकृत घर बेच दिया और उसे लेकर किराये के घर में आ गया, और फिर कबीर के ही ‘रहना नहीं देस बिराना है’ का स्मरण दिलाते हुए उसे वहां भी नहीं रहने दिया और किसी ऐसी जगह छोड़ आया, जहां से बकौल गालिब, औरों को तो छोड़ ही दीजिये, उसे खुद अपनी खबर नहीं आती.
अभी मुंबई के अंधेरी इलाके में भी हुए एक ऐसे अंधेर का वीडियो सामने आया है, जिसमें बेटा अपनी अस्सी साल की मां के मुंह में कपड़ा ठूंस कर उसे जान से मारने की कोशिश कर रहा है और बहू अपने पति के इस वीरोचित कृत्य का वीडियो खींचते हुए कह रही है कि कितनी जिद्दी है बुढ़िया! बेशक, इतना सब होने पर भी बुढ़िया के जिंदा रहने की निर्लज्ज कोशिशों के कारण उसे ऐसा लग रहा होगा. श्राद्ध पक्ष में दरअसल, मरे हुए लोगों के प्रति ही श्रद्धा रखने का प्रावधान है, जीवित लोगों के प्रति नहीं. अगर जीवित लोगों को श्रद्धा पाने का ज्यादा ही शौक चर्राये, तो पहले वे मर जायें. उक्त बुढ़िया भी जीते-जी ही बेटे-बहू से श्रद्धा पाने की अपेक्षा रखती होगी. या हो सकता है, लायक बेटे-बहू को ही उसका श्राद्ध करने की जल्दी रही हो. श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को उम्दा भोजन कराना श्राद्ध करने का सबसे उम्दा तरीका माना जाता है.
शास्त्रों में लिखा है, और जब शास्त्रों में लिखा है, तो ठीक ही लिखा होगा. भले ही वह किसी के द्वारा भी लिखा गया हो, कि जो कुछ भी आप इस दौरान ब्राह्मणों को खिलाते हैं, वह सीधे आपके पितरों तक पहुंच जाता है, जिसे पाकर वे संतुष्ट हो जाते हैं और आपकी भूलें माफ कर देते हैं. ब्राह्मणों द्वारा हमारे पितरों तक भोजन पहुंचाने के लिए प्रदान की जानेवाली यह निस्स्वार्थ सेवा मुझे मुंबई के डब्बेवालों की याद दिलाती है, जो वहां के नौकरीपेशा लोगों को दोपहर का खाना उनके कार्यस्थल पर पहुंचाने का काम करते हैं.
उनके इस सप्लाई-चेन-मैनेजमेंट का लोहा भारतीय प्रबंधन संस्थानों ने ही नहीं, अमेरिका के हार्वर्ड बिजनेस स्कूल तक ने माना है. लेकिन, इनमें से किसी का भी ध्यान श्राद्ध के दिनों में ब्राह्मणों द्वारा पितरों को भोजन पहुंचाने के अद्भुत सप्लाई-चेन-मैनेजमेंट पर नहीं गया.
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