लखनऊ : आज अखिलेश यादव के मंत्रिपरिषद का विस्तार हुआ. इस विस्तार में वैसे शख्सको जगह मिली, जिन्हें कुछ ही दिनों पहले मुख्यमंत्री ने खुद बर्खास्त किया था. गायत्री प्रजापति, शिवाकांत ओझा और मनोज पांडेय वैसे चेहरे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार का आरोप लगा और सीएम ने उनसे कुर्सी छीन ली थी. किसी अवांछित शख्स को हटाना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है व उसके पद की ताकत का यह अहसास कराता है. यह जरूरी भी है, ताकि पद की गरिमा, मर्यादा व शक्ति का अहसास कायम हो और व्यवस्था बनी रहे. ऐसे में यह सवाल है कि आखिर अखिलेश यादव ने अपने फैसले पर पुनर्विचार क्यों किया? क्या उनसे निर्णय लेने में गलती हो गयी थी या फिर उन पर इस निर्णय के लिए दबाव बनाया गया. अगर हम प्रदेश की राजनीति पर ध्यान दें तो यह ज्ञात होता है कि पिछले कुछ दिनों में पार्टी में बड़े परिवर्तन हुए, जिसके कारण कुछ बातें स्वाभाविक तौर पर सामने आयी हैं.
राजनीति के धुरंधर लालू प्रसाद अपने राजनीतिक कैरियर के स्वर्णिम काल में बार-बार कहते थे :ज्यादा जोगी मठ उजाड़. उनकी बात का एक दूसरा अभिप्राय होता था कि किसी संगठन में एक हीशख्स को सर्वशक्तिमान होना चाहिए. यह सच भी है. अब सपा जिस चेहरे (अखिलेश) को लेकर चुनाव में जा रही है, उसके सामने दो और चेहरों (शिवपाल यादव व अमर सिंह) को मजबूत कर दिया गया तो कमजोर कौन हुआ? यह बड़ा सहज सवाल है.
अमर सिंह की वापसी और महासचिव बनना
अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव की नजदीकी जगजाहिर है. बावजूद इसके 2010 में मुलायम सिंह यादव ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया था और एक लंबे अंतराल के बाद उनकी पार्टी में वापसी हुई है. पार्टी से उन्हें राज्यसभा तो भेजा ही गया, पार्टी महासचिव भी बना दिया गया है. वह भी तब जबकि अखिलेश यादव अमर सिंह को नापसंद करते हैं. ऐसे में कहना ना होगा कि अमर सिंह के प्रति मुलायम का यह प्रेम इसलिए है क्योंकि अगले वर्ष प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और अमर सिंह को संकट की घड़ी में संकटमोचक माना गया है. यानी कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अमर सिंह अभी पार्टी में मजबूत स्थिति में हैं.
शिवपाल यादव बने प्रदेश अध्यक्ष
अखिलेश सरकार में कैबिनेट मंत्री और मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई शिवपाल यादव को मुलायम सिंह ने पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. उन्हें यह पद तब मिला है जब उनके और अखिलेश यादव के बीच विवाद की खबर मीडिया में छा गयी. शिवपाल बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी और उनके दल कौमी एकता दल के सपा में विलय के पक्षधर हैं, जबकि अखिलेश इसका विरोध करते हैं और सार्वजनिक मंच पर भी यह बात दोनों स्वीकार कर चुके हैं. जब मुलायम ने अखिलेश को हटाकर शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो अखिलेश ने उनसे सभी महत्वपूर्ण विभाग छीनकर अपनी नाराजगी जतायी. हालांकि मुलायम के हस्तक्षेप के बाद अखिलेश ने शिवपाल के अधिकांश विभाग उन्हें लौटा दिये. इससे अखिलेश को कुंठित तो होना ही पड़ा इसमें कोई दो राय नहीं है. वहीं शिवपाल हमेशा यह कहते रहे हैं कि कौमी एकता दल का विलय तो होकर रहेगा और नेताजी ने भी इसकी स्वीकृति दे दी है. प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद शिवपाल जिस तरह से अखिलेश के चहेतों की संगठन से छुट्टी कर रहे हैं, वो भी कम चौंकाने वाली बात नहीं है.
अखिलेश बने पार्लियामेंट्री बोर्ड के अध्यक्ष
शिवपाल और अखिलेश के बीच जारी विवाद को सुलझाने और शक्ति संतुलन कायम करने के लिए मुलायम ने अखिलेश को पार्लियामेंट्री बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया है. यह पद मिलने के बाद निश्चत रूप से अखिलेश ताकतवर हुए और टिकट वितरण में उनकी अहम भूमिका होगी. लेकिन सवाल यह है कि शक्ति संतुलन कायम करने का जो फॉर्मला मुलायम सिंह यादव ने तैयार किया उसमें सबकी शक्ति में वृद्धि हुई, तो फिर आखिर कमजोर कौन हुआ. जिस तरह की परिस्थितियां बनीं हैं और जिस तरह से अखिलेश यादव को अपने फैसलों पर पुनर्विचार करना पड़ा, वह यह साफ संकेत देता है कि अखिलेश कमजोर हुए हों या ना हुए हों, हतोत्साहित तो जरूर हुए हैं.