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‘प्रचंड’ की तरह क्यों नहीं बदलते भारत के भूमिगत माओवादी ?
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक चंड यानी पुष्प कमल दहाल़. हाल में वह भारत आये थे. माओवादी प्रचंड भी कभी भूमिगत नेता थे. प्रचंड उन्हीं दिनों का उनका नाम है. अब चुनाव लड़ कर प्रधानमंत्री बनते हैं. इन दिनों भी वही नेपाल के प्रधानमंत्री हैं. कितना बदल गये हैं दहाल साहब! क्या भारत के भूमिगत माओवादी […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
चंड यानी पुष्प कमल दहाल़. हाल में वह भारत आये थे. माओवादी प्रचंड भी कभी भूमिगत नेता थे. प्रचंड उन्हीं दिनों का उनका नाम है. अब चुनाव लड़ कर प्रधानमंत्री बनते हैं. इन दिनों भी वही नेपाल के प्रधानमंत्री हैं. कितना बदल गये हैं दहाल साहब! क्या भारत के भूमिगत माओवादी नेतागण ‘प्रचंड’ से कुछ सीखेंगे ? माओवादी प्रचंड ने नेपाल में कम्युनिस्ट क्रांति लाने के लिए वर्षों तक गुरिल्ला युद्ध चलाया था. उस हिंसक आंदोलन के कारण करीब 17 हजार नेपालियों की जानें गयीं थीं.
प्रचंड ने बाद में यह महसूस किया कि यह रास्ता सही नहीं है, तो उनके दल ने चुनाव लड़ा. वह 2008-2009 में पहली बार प्रधानमंत्री बने. इस बार अगस्त में फिर उन्होंने उस पद को संभाला. एक तो उन्होंने हथियार छोड़कर लोकतांत्रिक प्रणाली स्वीकार की. उसके बाद उन्होंने पड़ोसी भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है. वह भारत के मित्र कभी नहीं माने जाते थे. इस देश में यह धारणा थी कि वह भारत की अपेक्षा चीन के अधिक करीब हैं. अब प्रचंड भारत के साथ आपसी विश्वास की नींव रखना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि ‘मोदी जी और मैं एक ही तरह से सोचते हैं.’संभवत: इस बदलाव को उन्होंने समय की जरूरत माना है.
भारत के माओवादी इस बात को क्यों नहीं समझते कि जब नेपाल में हथियारी क्रांति संभव नहीं है, तो भारत में यह कैसे संभव होगी? भारत में तो एक सुगठित और मजबूत सेना है. यह देश बहुत बड़ा भी है. अब दुनिया की स्थिति भी वैसी नहीं है जब कम्युनिस्टों ने रूस और चीन में हथियारों के बल पर सत्ता हासिल कर ली थी. यदि कुछ भटकावों को नजरअंदाज कर दें, तो भारत के माओवादियों के बीच एक से एक जनसेवी लोग मौजूद हैं.
शोषण पर आधारित मौजूदा व्यवस्था को वे सचमुच बदलना चाहते हैं. पर, वे जिस राह पर हैं, वह उन्हें कहीं नहीं ले जायेगी. यदि ‘प्रचंड’ की राह पर चलें तो इस देश के माओवादी चुनाव के जरिये कई प्रदेशों में सत्ता हासिल कर सकते हैं. उनके लिए यह अच्छा मौका है, क्योंकि देश के अधिकतर दलों की साख घट रही है, भले जनता उन्हें वोट दे देती है. जनता को बेहतर विकल्पों की तलाश रहती है. कुछ राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यदि भारत के माओवादी सत्ता में आ गये तो कई मौजूदा दलों की अपेक्षा वे बेहतर और ठोस ढंग से गरीबों की सेवा कर सकेंगे. वे एक दिन देश में छा सकते हैं.
भारी पड़ता है चुनावी बड़बोलापन
‘अच्छे दिन’ और ‘पंद्रह लाख’ वाले चुनावी जुमले भाजपा पर अब भारी पड़ रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान करीब हर सभा में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं.’ उन्होंने यह भी कहा था कि यदि काला धन विदेशों से आ जाये तो हर देशवासी के खाते में 15 लाख रुपये होंगे. अब नितिन गडकरी कह रहे हैं कि लोगों की नजरों में अच्छे दिन कभी नहीं आते. गडकरी जी ठीक कह रहे हैं. दरअसल मोदी जी को अपनी चुनाव सभाओं में यह कहना चाहिए था कि हम सत्ता में आने के बाद देश में ‘बेहतर दिन‘ लायेंगे. उन्होंने ‘बेहतर दिन’ लाए भी हैं. मनमोहन सरकार में महाघोटालों की जो लगातार गूंज उठ रही थी, वह अब सुनाई नहीं देती. अब केंद्र सरकार में पहले जैसी अनिर्णय की स्थिति भी नहीं है. खबर है कि उड़ी कांड का भारत ने बदला ले लिया. पाकिस्तान की सीमा में घुस कर आतंकी प्रशिक्षण केंद्रों को ध्वस्त करना कोई मामूली बात नहीं है.
ये सब बेहतर दिन के संकेत हैं. सरकारी भ्रष्टाचार के क्षेत्र में और भी बेहतर दिनों की उम्मीद आम लोग केंद्र सरकार से कर रहे हैं. यही काफी नहीं है कि मंत्री तो घोटाला नहीं करें, पर कुछ अफसरगण जनता को चूसते रहें! मोदी जी के अनुभव को देखते हुए उम्मीद है कि अगले चुनावों में राजनीतिक दल बड़बोलापन नहीं दिखायेंगे. उतना ही वादा करेंगे जिन्हें सत्ता में आने के बाद पूरा कर सकें. जनता और भी खुश होती है यदि कोई सरकार ऐसे काम भी कर दे जिसका वादा नहीं किया था.
अतिक्रमण के बीच स्मार्ट कैसे
जहां-तहां कूड़े-कचरे के टीले और नगर के मुख्य मागों पर भी भारी अतिक्रमण! ऐसे में पटना कैसे बन पायेगा स्मार्ट सिटी? कुछ माह पहले मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने एक बैठक में ही पटना के मेयर को फटकारा था. इसके बावजूद पटना एक गंदा शहर है. पता नहीं, कब इसे साफ नगर का दर्जा मिलेगा? अतिक्रमण को लेकर बुधवार को एक साथ दो खबरें आयीं. एक खबर के अनुसार पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इकबाल अहमद अंसारी का काफिला अशोक राज पथ पर जाम में फंस गया. इस खबर ने एक बड़ा सवाल पैदा किया? आखिर चीफ जस्टिस जैसे अत्यंत व्यस्त हस्ती को भी जाम में क्यों फंसना पड़ता है?
जवाब दूसरी खबर ने दी. पटना के ट्राफिक एसपी ने एक सिपाही को निलंबित कर दिया. वह सिपाही जाम हटाने वाले विशेष दस्ते में शामिल था, पर उस पर म्यूजियम के पास रिश्वत लेने का आरोप लगा. यदि जाम हटाने वाला दस्ता ही जाम के लिए जिम्मेदार लोगों से रिश्वत लेगा तो जाम लगेगा ही. हालांकि उस दस्ते पर यह भी आरोप लगा कि वह ऐसे लोगों से भी रिश्वत ले रहा था, जो जाम के लिए जिम्मेदार नहीं थे. यानी उस सिपाही का काम जाम समाप्त करना नहीं, बल्कि सड़क पर रिश्वत वसूलना था. वह न तो ऐसा अकेला सिपाही है और न ही घूस के सारे पैसे वह अपने पास रखता है.
उधर पटना हाइकोर्ट जाम की समस्या पर पहले से विचार कर रहा है. उसने पटना रेलवे जंकशन स्टेशन के पास जारी अतिक्रमण को लेकर शासन से जवाब मांगा है.
अतिक्रमण के कुछ अन्य कारण भी : हाल के वर्षों में पटना के बीचों-बीच कुछ महत्वपूर्ण और जरूरी निर्माण हुए हैं. बुद्ध स्मृति पार्क, इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर और बिहार म्यूजियम ऐसे ही निर्माण हैं. ये भी सड़कों पर भीड़ बढ़ाने वाले ही हैं. पहले से ही कलक्टरी, जिला अदालत, पटना विश्वविद्यालय, गांधी मैदान तथा पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल के कारण मध्य नगर में भीड़-भाड़ रहती है. कुछ साल पहले यह प्रस्ताव आया था कि पटना कलक्टरी को नगर के बाहरी इलाके में स्थानांतरित कर दिया जाये, पर, पता नहीं ऐसा क्यों नहीं हो पाया. अशोक राजपथ पर स्थित अस्पताल, कचहरी और विश्व विद्यालय में से कम-से-कम किसी एक को मुख्य पटना से बाहर एक-न-एक दिन करना ही पड़ेगा.
बढ़ती आबादी के भारी दबाव को देखते हुए यहां यह कहा जा रहा है. साथ ही, शासन को भविष्य में इस बात का ध्यान रखना होगा कि वह बुद्ध स्मृति पार्क, बिहार म्यूजियम या इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर जैसे किसी बड़े ढांचे का निर्माण अब मुख्य नगर के बाहर ही हो. इससे मुख्य नगर में भीड़ कम होगी और पटना के आसपास के इलाके भी विकसित होंगे.
और अंत में
अखिलेश-आजम को झटका देते हुए मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को सपा का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया. कई लोगों को इस फैसले पर आश्चर्य हुआ, पर विरोध और आश्चर्य करने वाले नादान लगते हैं.
अधिकतर दलों के शीर्ष नेताओं को इन दिनों अमर सिंह जैसे एक ‘जुगारू’ नेता की जरूरत होती है. उनके अपने-अपने अमर सिंह हैं. इसमें अमर सिंह का भला क्या कसूर है! कुछ नेताओं के ‘अमर’ तो सतह पर होते हैं, पर कुछ अन्य के अमर सिंह अर्ध भूमिगत होते हैं, कुछ के तो पूर्ण भूमिगत!
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