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‘शराब पीने का अधिकार’

विश्लेषण : संपूर्ण भारत में शराब तथा नशे के अन्य साधनों पर प्रतिबंध लगे श्रीश चौधरी आइआइटी मद्रास में प्रोफेसर रहे श्रीश चौधरी अभी जीएलए विवि, मथुरा के डिश्टिंग्विश्ड प्रोफेसर हैं. लंंबे समय तक शहरों में रहने के बावजूद उनका अपने गांव से जुड़ाव है. अपने गांव के सरकारी स्कूलों में पिछड़े एवं दलित परिवारों […]

विश्लेषण : संपूर्ण भारत में शराब तथा नशे के अन्य साधनों पर प्रतिबंध लगे

श्रीश चौधरी

आइआइटी मद्रास में प्रोफेसर रहे श्रीश चौधरी अभी जीएलए विवि, मथुरा के डिश्टिंग्विश्ड प्रोफेसर हैं. लंंबे समय तक शहरों में रहने के बावजूद उनका अपने गांव से जुड़ाव है. अपने गांव के सरकारी स्कूलों में पिछड़े एवं दलित परिवारों के बच्चों के लिए आइआइटी मद्रास और तमिलनाडु न्यूजप्रिंट्स एंड प्रोडक्ट्स लिमिटेड की मदद से हिंदी-अंगरेजी सिखाने-पढ़ाने का काम कर रहे हैं.

भवानी को सहसा विश्वास नहीं हुआ. उसका पति भी कई और लोगों की तरह पूरे होश में शाम को घर आ सकता था. इधर तो उसे अपमान, हिंसा एवं लज्जा का जीवन जीने की आदत हो गयी थी. कोई न कोई देर शाम या रात को घर आकर बताता कि महेश कहीं सड़क पर बेहोश पड़ा हुआ है. फिर भवानी स्वयं को रोक नहीं पाती थीं. बच्चों को सोता छोड़ कर वह अपने पति को घर लाने निकल पड़ती थीं. कभी वह कहीं औंधा पड़ा मिलता था, कभी लड़खड़ाता अज्ञात दिशा में चलने की कोशिश करता. कभी-कभी भवानी उसे अपने कमजोर कंधे का सहारा देकर गालियां एवं तमाचे बरदाश्त करती घर ले आती थी, कभी वहीं सड़क पर अपने पति के बगल में बैठी पति के होश में आने एवं घर आने योग्य होने का इंतजार करती.

कभी उसका पति सीधा घर भी आ जाता था, नशे में धुत! और तब मचती थी मार-पिटाई. लात-घूसे तमाचे की चोटें, फिर बच्चों के साथ घर से निकाला जाना, या फिर सड़क पर खदेड़ा जाना बेटा-बेटी को संभाले, चिल्लाते पति से बचते, मुंह छुपाकर दुबके, न आने वाले कल का इंतजार करते, अनगिनत रातें भी कटी थी. भवानी की जिंदगी में कुछ भी नहीं बचा था. न स्नेह-प्रेम, न जीने की इच्छा या भविष्य की आशा. उसके पति के नशे की आदत ने जिंदगी में कुछ नही छोड़ा था. उसने कई बार आत्महत्या की भी सोची थी, पर बच्चों का प्यार उसे हर बार रोक लेता था. ऐसा हालांकि हमेशा नहीं था.

शादी के दो एक वर्षो तक सब कुछ बड़ा ही अच्छा चला था. महेश भाड़े का टेम्पो चलाता था और रोज सौ दो सौ कमा कर ले ही आता था. घर में सास ससुर थे, देवर-ननद थे, मायके से भी आना जाना था. पर फिर किसी की नजर लग गयी. एक दिन दोस्तों की जिद पर महेश ने शराब पिया, घर आकर माफी मांगी, कसम खायी फिर ऐसा नहीं होगा. परंतु ‘कैसे मर्द हो’ संवाद से लेकर ‘चार दिन की जिंदगी में ऐश नही करोगे!’ जैसे शब्दों और आदत की लाचारी ने महेश को निष्ठुर और निर्लज्ज बना दिया. माता-पिता का रोकना-टोकना उसकी स्वतंत्रता में उसे बाधा लगी, भवानी का मना करना उसकी मर्दानगी को चुनौती. धीरे-धीरे सब कुछ समाप्त हो गया था,मायके से बहुत तो मिला ही नहीं था, पर जो भी चांदी के गहने या खाना खाने पकाने को थाली-बरतन मिले थे, धीरे-धीरे वे सारे निकल गये.

प्लास्टिक का एकाध प्लेट, केले का पत्ता, बस यही बचे. भवानी अपना तथा बच्चों का पेट पालने को पड़ोस के घरों में थाली-बरतन धोने लगी. कुछ खाने को मिल जाये, कुछ पैसे भी मिल जाये. पता लगने पर महेश पैसे भी छीन लेता था, या पड़ोस के घरों में काम करने से उसे मना करता था. वह मर्द था, जहां से भी लाता, वह पैसे कमा कर ही लाता. उसकी पत्नी को घर बैठ कर इसकी सेवा करनी चाहिए थी. और इससे भी अधिक दु:ख की बात थी कि लोग महेश की इस स्थिति के लिए भवानी को ही दोष देते थे. यदि वह ‘पतिव्रता’ होती, पति का समुचित आदर करती …. ससुराल वाले उसे झिड़की दिया करते थे. मायके वालों ने महेश को समझाने की कोशिश की, तो उनकी लड़ाई हो गयी, और उन्होंने आना-जाना-बुलाना बंद कर लिया.

इसलिए आज महेश को होश में घर पाकर भवानी आश्चर्यचकित थी. वह साक्षर थी, परंतु अखबार लेने को उसके पास पैसे नहीं थे. उसे नहीं पता था कि सरकार ने शराब रखने, बेचने, पीने पर पूरी रोक लगा दी थी. उसका पति एवं उसके दोस्त अब शराब पी ही नहीं सकते थे. जिस किसी भी कारण से उसका पति आज होश में घर में दिखा हो, उसने ईश्वर को धन्यवाद किया, मन्नत मानी-‘हे भगवान बस मुझे कुछ और न दे, मेरे पति का पीना छुड़ा दे.”

मैंने यहां नाम एवं काम थोड़ा बदल दिया है, परंतु जो कहानी कही है, वह अक्षरश: सत्य है, और मैं स्वयं भवानी के पड़ोस में रह चुका हूं. ऐसी एक नहीं अनेक भवानियों की अनगिनत कथाएं हैं. थोड़े-से परिवर्तन से कहानी एक ही है. समाज का एक काफी बड़ा हिस्सा शराब से परेशान मृत्यु से बदतर जिंदगी जी रहा है. मैं वैसे मां-बाप की कहानी कह सकता हूं, जिनका पढ़ा-लिखा बेटा रेाज पीकर घर आता था और उनके साथ गाली-गलौज, मार-पिटाई करता था. ना तो वे उसे पुलिस में दे सकते थे- नशे की स्थिति में हुए अपराध की सजा भी प्राय: मामूली है, और न इसे घर में रख सकते थे, ना उसके साथ रह सकते थे.

मैं वैसे मां-बाप की भी कहानी कह सकता हूं, जो अपने बेटे को नौकरी पर भेजने के लिए यात्रा किराये का पैसा तक कर्ज लेते थे और जिनका बेटा हर बार शराब की वजह से नौकरी से निकाला जाता था. कुछेक बार बीमार होकर या शराब पीकर दोस्तों की मोटर साईकिल पर छोटी-बड़ी दुर्घटना करके लौटता था. इनको यही सोच कर खुश होना पड़ता था कि बेटा जीवित तो घर आ गया. बाद में इन्होंने तय किया कि बेटे को घर में ही रखना अधिक बुद्विमानी होगी.

सिर्फ गरीब एवं मजदूर वर्ग में ही नहीं, समाज के अन्य वर्गों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो दिखाते हैं कि कैसे अच्छा विद्यार्थी, कैसे अच्छा वकील, या अच्छा वकील बनने की प्रतिभा रखने वाला युवक, अच्छा डॉक्टर आदि एक इस अपंग कर देनेवाली आदत के कारण स्वयं पूरे परिवार-समाज के लिए बोझ बनकर जिया. मुझे याद आ रहा है, एक बार किसी ऐसे ही व्यक्ति की मत्यु का समाचार आया, तो सनकी से एक व्यक्ति ने टिप्पणी की- अब इस परिवार के सुख के दिन शुरू होंगे! वह व्यक्ति अपनी सारी तनख्वाह महीने के पहले हफ्ते पी जाता था और फिर शेष दिनों में निर्लज्जता एवं निष्ठुरता की वही कहानी रोज दुहराई जाती थी.

यदि सारे देश में यह प्रतिबंध होता, तो हर वर्ष कम से कम 2000 लोग नहीं मारे जाते, जो नशे की स्थिति में गाड़ियां चलाते चालकों द्वारा मारे गये या ऐसे किसी चालक की बुरी आदत के शिकार हुए. फिर भी बिहार में अभी लगाये गये शराबबंदी कानून को कुछ लोग मानवाधिकार का हनन मानते हैं. उदाहरण के लिए, अगस्त में प्रकाशित ‘द हिंदू’ अखबार को अंक देखें. पता नहीं वे कैसे मानव एवं किन मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं, जिसका उपयोग करने की स्वतंत्रता आपके सारे मानवोचित गुणों को आपसे दूर कर देती है. उस स्वतंत्रता का समर्थन मानवोचित कैसे है, यह सभी तर्कों के बाहर दिखता है.

नशे की आदत मनुष्य को कमजोर, संवेदनहीन, संज्ञाहीन एवं लज्जाहीन कर देती है. अच्छे-अच्छे व्यक्तियों को नशे का प्रभाव हिंसक एवं खूंखार बना देता है. जो अपने मित्र, परिजनों का तो क्या, एक मक्खी का भी अपमान नहीं करेंगे, वैसे लोग भी शराब पीते ही हिंसक पशु बन जाते हैं. ऐसी कोई भी स्वतंत्रता किसी को नहीं मिल सकती है, जिससे दूसरे की स्वतंत्रता का हनन हो.

एक समय में अफीम, गांजा तथा तंबाकू के विभिन्न रूपों का सेवन भी वैध तथा आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण माना जाता था. उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की कमाई का एक बड़ा अंश अफीम के व्यापार से आता था. वर्ष 1800 के अंत तक कंपनी बंगाल में उगाकर 900 टन अफीम चीन में बेचती थी. वर्ष 1834 में यह बढ़ कर 1400 टन सलाना हो गया. चीनी व्यापारी चाय के बदले पहले कंपनी से सोना एवं चांदी ही लेते थे, परंतु अफीम की आदत लगाने के बाद वे अफीम के बदले हमें चाय देने लगे. 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में कंपनी के मुनाफे का 32 प्रतिशत अफीम से आता था. परंतु चीन, भारत एवं स्वयं ब्रिटेन पर इसके विनाशकारी प्रभाव को देखते हुए इसके उत्पादन वितरण एवं उपभोग पर प्रतिबंध लगाने पड़े.

समय आ गया है कि संपूर्ण भारत में शराब तथा नशे के अन्य साधनों पर प्रतिबंध लगे. यह हो सकता है कि वर्तमान प्रयास पूर्ण सफल न हो. बिहार के पड़ोसी नेपाल, बंगाल, झारखंड, उत्तर प्रदेश आदि में से किसी ने भी ऐसे जनकल्याणकारी मुददे पर बिहार का साथ देने की पहल नहीं की है.

ऐसी स्थिति में इसकी सफलता संदिग्ध हो सकती है. परंतु इसका नैतिक औचित्य संदिग्ध नहीं है. अच्छे नेता जनता को खुश रखते हैं, परंतु बड़े नेता वे हैं, जो जनता की वर्तमान इच्छा की अनदेखी कर उनके दीर्घकालीन हित की मांग करते हैं. जिनकी राजनैतिक मजबूरी नहीं है, जो स्वतंत्र विचार रखते-व्यक्त करते हैं, उन सभी लोगों को चाहिए कि सरकार के इस साहसिक प्रयास का समर्थन करें.

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