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जमानत, सियासत व समाज
दर्जनों गंभीर अपराधों में आरोपित पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की जमानत पर रिहाई के बाद से बिहार में नयी सियासी हलचल तो पैदा हुई ही है, कानूनी प्रक्रिया, राजनीतिक दखल तथा समाज के नजरिये को लेकर भी कुछ गंभीर सवाल उठे हैं. चार बार लोकसभा और दो बार विधानसभा में सीवान का प्रतिनिधित्व कर चुके […]
दर्जनों गंभीर अपराधों में आरोपित पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की जमानत पर रिहाई के बाद से बिहार में नयी सियासी हलचल तो पैदा हुई ही है, कानूनी प्रक्रिया, राजनीतिक दखल तथा समाज के नजरिये को लेकर भी कुछ गंभीर सवाल उठे हैं. चार बार लोकसभा और दो बार विधानसभा में सीवान का प्रतिनिधित्व कर चुके राष्ट्रीय जनता दल के नेता शहाबुद्दीन 2005 से जेल में थे. वर्ष 1990 में पहली बार विधायक चुने जाने से पहले ही क्षेत्रीय स्तर पर उनकी छवि एक दबंग की बन चुकी थी.
राजनीति में कदम रखने के बाद भी अपने विरोधियों के साथ मार-पीट से लेकर उनकी हत्या तक के कई मामले उनके और उनके नजदीकी सहयोगियों के खिलाफ दर्ज हुए, जिनमें जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष व भाकपा (माले) कार्यकर्ता चंद्रशेखर और एक अन्य व्यक्ति की 1997 में सीवान में दिनदहाड़े हत्या, 2004 में कई राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या, इसी साल दो भाइयों- गिरीश और सतीश- की तेजाब डाल कर हत्या और फिर इस हत्याकांड के चश्मदीद गवाह इनके अन्य भाई रोशन की 2014 में हत्या, मई 2016 में सीवान के एक पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या जैसे बहुचर्चित मामलों के अलावा पुलिस के साथ मुठभेड़ करने, अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा रखने, धमकाने, अपहरण करने, जमीन कब्जा करने, धन वसूलने आदि जैसे गंभीर आरोप शामिल हैं. कई आरोपों में निचली अदालतें शहाबुद्दीन को दोषी ठहराते हुए दो वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजाएं भी सुना चुकी हैं, जबकि कई मामलों में अभी सुनवाई नहीं हो सकी है.
धन, बल और अपराध की पैठ अब पूरे देश की राजनीति में है, लेकिन बीते दो दशकों से शहाबुद्दीन ‘राजनीति के अपराधीकरण’ के प्रमुख उदाहरण के रूप में उभरे हैं. वर्ष 2001 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने एक रिपोर्ट में लिखा था कि सरकारी संरक्षण के कारण ही शहाबुद्दीन सीवान में अपना समानांतर प्रभुत्व बना सके. बीते 11 वर्षों तक जेल में रहने के दौरान भी वे अधिकारियों को धमकाने और खास सुविधाओं का इस्तेमाल करने के आरोपों के चलते विवादों में रहे तथा अंततः उन्हें सीवान से भागलपुर जेल में स्थानांतरित करना पड़ा.
अब जब वे जमानत पर बाहर आये हैं, उनकी दबंगई के नमूने फिर से सबके सामने हैं. भागलपुर से सीवान की यात्रा में सैकड़ों गाड़ियों का काफिला साथ रहा. इनमें अनेक गाड़ियों पर लाल बत्ती लगी थीं. सड़कों पर टोल टैक्स नहीं दिया गया, जबकि काफिले में प्रशासनिक गाड़ियां भी थीं. सीवान में स्वागत के लिए सड़कों के किनारे और उनके आवास पर हजारों लोगों का हुजूम था. कहने की जरूरत नहीं कि इससे उन परिवारों में भय और नाराजगी का माहौल है, जिनके परिजनों की हत्याकरने या उन्हें प्रताड़ित करने के आरोप शहाबुद्दीन पर हैं.
इन सबके बीच बड़ा सवाल यह भी है कि पुलिस-प्रशासन की जांच और अदालती कार्यवाहियां इतनी धीमी क्यों हैं, जिनसे पीड़ितों को न्याय मिलने में बरसों लग जाते हैं. पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गयी है, लेकिन उसने अभी इस पर काम शुरू नहीं किया है. रिपोर्टों के अनुसार, करीब तीन दर्जन मामलों में गवाही पूरी हो चुकी है, लेकिन बचाव पक्ष यानी शहाबुद्दीन पेश नहीं हुए हैं. वर्ष 2012 में कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए शहाबुद्दीन ने अदालत से वकील की मांग की. इसे खारिज करते हुए उच्च न्यायालय ने उन्हें अपना वकील करने का निर्देश दिया, लेकिन यह आदेश चार सालों तक जेल में रहे शहाबुद्दीन तक पहुंच ही नहीं पाया. यह पुलिस-तंत्र की लापरवाही का बड़ा उदाहरण है.
न्यायिक प्रणाली की सुस्ती और जांच में ढिलाई जैसी खामियों का फायदा शहाबुद्दीन जैसे नेता उठा रहे हैं, लेकिन पूरे प्रकरण में सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोपों में जुटे राजनेता ऐसी खामियों पर खामोश हैं.
विभिन्न आरोपों के कठघरे में खड़े शहाबुद्दीन पर अंतिम निर्णय अदालत को करना है, लेकिन सार्वजनिक जीवन में जनता की सुरक्षा और समाज में अमन-चैन की जवाबदेही जिन प्रमुख राजनेताओं पर है, उन्हें शहाबुद्दीन जैसे नेताओं को संरक्षण देने से पहले क्या आत्मचिंतन नहीं करना चाहिए?
आत्ममंथन करने की जरूरत राजनीति के अपराधीकरण पर चिंतित समाज को भी है. सोचना चाहिए कि शहाबुद्दीन की अगवानी में हजारों की भीड़ जुटने और सैकड़ों कारों के काफिले से स्थानीय समाज के बारे में क्या संकेत निकले हैं? आखिर ये लोग भी तो समाज का ही हिस्सा हैं.
क्या किसी भी नैतिक क्षरण के लिए के लिए राजनेताओं, सरकार या प्रशासन को दोषी ठहरा देने मात्र से समाज की जिम्मेवारियां खत्म हो जाती हैं? देशभर में व्यवस्थागत दोषों और सामाजिक तंद्रा का ही परिणाम है कि आम नागरिक आज भ्रष्टाचार और हिंसा के साये में जीवन बसर करने के लिए अभिशप्त है. ऐसे में तमाम पक्षों को अपनी-अपनी भूमिका की समीक्षा कर कमजोरियों को चिह्नित करना चाहिए और उन्हें दूर करने की कोशिश करनी चाहिए. बेहतर समाज के निर्माण का जिम्मा सिर्फ सरकार और राजनेताओं के हाथ में सौंप कर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता है.
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