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जब इस बलोच को रातोंरात घर छोड़ना पड़ा

नितिन श्रीवास्तव बीबीसी संवाददाता "मेरी जैसी तो लाखों कहानियां भरी पड़ीं हैं बलूचिस्तान में". वाक्य पूरा करते-करते मज़दाक दिलशाद बलोच की आंखें नम हो जातीं हैं और वे अपना चेहरा कैमरे से हटा लेते हैं. कुछ देर बाद 25 वर्षीय इस बलोच ने क्वेटा, पाकिस्तान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान और फिर कनाडा तक पहुँचने का अपना […]

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"मेरी जैसी तो लाखों कहानियां भरी पड़ीं हैं बलूचिस्तान में".

वाक्य पूरा करते-करते मज़दाक दिलशाद बलोच की आंखें नम हो जातीं हैं और वे अपना चेहरा कैमरे से हटा लेते हैं.

कुछ देर बाद 25 वर्षीय इस बलोच ने क्वेटा, पाकिस्तान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान और फिर कनाडा तक पहुँचने का अपना सफ़र बयान किया.

दोपहर के डेढ़ बजे हम दिल्ली की एक नामचीन कॉलोनी के एक ड्राइंग रूम में बैठे थे.

घर मज़दाक का नहीं है लेकिन, चंद दिनों के लिए ही सही, उन्होंने अपने इर्द-गिर्द वो चीज़े संजो रखीं हैं जिनसे बलूचिस्तान और उनके परिवार की याद ताज़ा हो जाती है.

तस्वीरें, रंगीन नक्काशी वाली तश्तरियां, पर्शियन कालीन और मर्तबान शायद उन्ह क्वेटा के अपने घर की याद दिलाते हैं जिसे उन्हें रातोंरात छोड़ना पड़ा था.

मज़दाक ने बताया, "घर में माहौल बेहतरीन था. पिता फ़िल्मकार और माता जी सामाजिक कार्यकर्ता थीं. लेकिन जब से पिता को अगवा किया गया और माँ के ख़िलाफ़ मामले दर्ज हुए हमारे बुरे दिन शुरू हो गए".

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मज़दाक याद करते हैं वो दौर जब कथित तौर पर पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने बलूचिस्तान में स्वायत्तता की मांगों पर कड़ी कार्यवाही की थी.

पिता के रिहा होने के दो वर्ष तक छुपने-छुपाने के बाद, परिवार समेत, वर्ष 2010 में मज़दाक छुपते-छुपाते सीमा पार कर अफ़ग़ानिस्तान पहुंचे.

उन्होंने बताया, "चाहे वो बलूचिस्तान का कोयला हो या खनिज पदार्थ, पाकिस्तान में इनका भरपूर इस्तेमाल होता है. फिर भी इनकी श्रेष्ठता को कम बताया जाता है. हमारे जैसे जिन भी लोगों ने इसके खिलाफ बोला, उन्हें मुसीबतों का सामना करना पड़ा".

पूछे जाने पर कि बलूचिस्तान तो पाकिस्तान का ही हिस्सा है, मज़दाक इस बात से साफ़ इनकार करते हुए गुस्से से भर उठते हैं.

"वो ग़लत समझते हैं, हम पाकिस्तानी नहीं हैं. हाँ, हम पाकिस्तान की एक कॉलोनी हैं बस. अगर वो हमें पाकिस्तानी समझते भी हैं तो उस नज़र से देखते नहीं. लाहौर या इस्लामाबाद जाते हैं तो हमसे कहते हैं, अच्छा पहाड़ वाले हो जहाँ सिर्फ रेगिस्तान है".

बहराल मज़दाक दिलशाद बलोच के परिवार को कुछ दिन कांधार और फिर काबुल में शरण लेने के बाद देश छोड़ना पड़ा.

उन्होंने कहा, "अफ़ग़ानिस्तान में हमारे घर के पास बारूदी सुरंगे मिली और कुछ हमले हुए. संयुक्त राष्ट्र की बदौलत हमारे पास शरणार्थी दर्जा था और हम वहां से निकल कर कनाडा चले गए".

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अकबर ख़ान बुग़टी, पूर्व बलूच नेता

इन दिनों मज़दाक अपनी पत्नी के साथ भारत आए हुए हैं और इस बात से खासे खुश दिख रहे हैं कि भारत सरकार की तरफ़ से बलूचिस्तान का मुद्दा उठाया गया है.

मेरा अगला सवाल था, "अगर आगे चल कर पाकिस्तान कश्मीर के और भारत बलूचिस्तान के मुद्दे पर बात करना ही बंद कर दें तब भी क्या वे इतने ही उत्साहित रहेंगे?"

मज़दाक ने तपाक से जवाब दिया, "इंडिया 70 साल से हमारे बारे में चुप बैठा था. हाँ. इंडिया ने कहा होगा कि हम बलूचिस्तान की बात कर सकते हैं लेकिन कभी इस तरह से नहीं की जैसे 15 अगस्त को नरेंद्र मोदी के भाषण में सुनने को मिली. हम उसके साथ खड़े होते हैं जो हमारे साथ खड़ा होता है. बलूचिस्तान कोई ऐसा कार्ड नहीं है जो कोई भी खेल ले".

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