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हॉकी खिलाड़ी देनेवाले मांझी आज भी गुमनाम

रांची:चंद माह बाद रिटायर हो जायेंगे सिमडेगा के अत्यंत पिछड़े प्रखंडों में एक बोलबा के जगेश्वर मांझी. अवकाश प्राप्ति के बाद जमापूंजी के नाम पर पीएफ के कुछ पैसे और पुश्तैनी घर पास रह जायेगा. पर इससे निराश नहीं हैं वह, बल्कि इस बात से उत्साहित हैं कि उनके शिष्य आज देश-दुनिया में नाम कर […]

रांची:चंद माह बाद रिटायर हो जायेंगे सिमडेगा के अत्यंत पिछड़े प्रखंडों में एक बोलबा के जगेश्वर मांझी. अवकाश प्राप्ति के बाद जमापूंजी के नाम पर पीएफ के कुछ पैसे और पुश्तैनी घर पास रह जायेगा. पर इससे निराश नहीं हैं वह, बल्कि इस बात से उत्साहित हैं कि उनके शिष्य आज देश-दुनिया में नाम कर रहे हैं.

खुश हैं कि अवकाश प्राप्ति के बाद वह फिर से गांव-घर के बच्चों को गढ़ सकेंगे. पर इस बात का मलाल जरूर है कि जिस जज्बे के कारण उन्होंने कई अच्छी नौकरी ठुकरा दी, बिना तनख्वाह नौकरी की, कर्ज ले गांव की बच्चियों को गांव के मैदान व बांस के स्टिक से लेकर अंतरराष्ट्रीय मैदान तक पहुंचाया, उसकी कद्र नहीं हुई. कई अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी तैयार करनेवाले जगेश्वर मांझी को किसी ने सम्मान नहीं दिया. अलग राज्य बनने के बाद उन्हें लगा कि उनका सम्मान होगा, पर ऐसा नहीं हो सका. जिले से बाहर शायद ही उन्हें कोई जानता होगा, पर बोलबा के हीरो हैं वह. सुमराय टेटे, कांति बा, मसीरा सुरीन, एडलीन केरकेट्टा व अंसुता लकड़ा जैसे इंटरनेशनल हॉकी खिलाड़ियों के वह पहले कोच हैं. इसके अलावा राज्य व देशस्तरीय स्पर्द्धाओं में शामिल होनेवाले उनके शिष्यों की लिस्ट लंबी है.

भारतीय महिला हॉकी टीम की पूर्व कप्तान सह वर्तमान कोच अंसुता लकड़ा आज भी बड़े गर्व से कहती हैं कि उनकी नजरों में उनके इंटरनेशनल कोच से ज्यादा अहमियत जगेश्वर मांझी की है. दूसरी अोर इंडिया टीम की पूर्व कैप्टन सुमराय टेटे मानती हैं कि श्री मांझी की सीख जीवन में काम आयी.
गरीबी में रहे, पर सिखाना नहीं छोड़ा : समशेरा गांव के जगेश्वर मांझी को हॉकी से डर लगता था. इस कारण वह खेलते नहीं थे. दोस्तों व प्रशिक्षक के कारण कक्षा 10 से उन्होंने खुद खेलना शुरू किया और जल्द ही सबके चहेते बन गये. उनकी बहन सुमित्रा कुमारी उनसे तेज थी. इंडिया की अोर से जूनियर खेलने के बाद पंजाब सरकार ने उन्हें अपने यहां ले लिया. आज वह वहां बिजली विभाग में नौकरी करती हैं. जगेश्वर मांझी को बीएससी व बीएड करने के बाद बैंक, रेलवे व टाटा कंपनी में नौकरी मिली, पर गांव के मोह ने जाने नहीं दिया. पैसे की जरूरत हुई तो 1984 समशेरा के नरपति हाई स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू किया. वेतन के नाम पर कुछ पैसे मिल जाते थे, पर 1992 से 1994 तक वे भी नहीं मिले. 1995 में स्कूल से भी हटा दिया गया. पर हिम्मत नहीं हारी बच्चों को हॉकी का प्रशिक्षण देते रहे. खेत से जो अनाज होता था, उसी से काम चलता था. गरीबी में रहे, पर कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया.
बोलबा में लड़कियों को खेलना सिखाया : अत्यंत पिछड़े इस प्रखंड में लड़के तो हॉकी खेलते थे, पर लड़कियों को मनाही थी. ऐसे में 1984 में नरपति हाइस्कूल, समशेरा में लड़कियों को हॉकी सिखाना शुरू किया. बहुत दिक्कत से कुछ अभिभावकों ने अपनी बेटियों को हॉकी खेलने की छूट दी. इस दौरान उनके सबसे बड़े मददगार बने थीयोडोर खेस्स. अंतत: 13 बच्चियों की एक टीम तैयार हुई और समशेरा के पारिस मैदान में बांस के डंडे से हॉकी का प्रैक्टिस शुरू हुआ. मेहनत सफल रही और बोलबा की महिला टीम ने गुमला जिला टीम के नाम से बिहार स्टेट चैंपियनशिप में भाग लिया. फिर उन लोगों ने पलट कर नहीं देखा. लगातार आगे बढ़ती गयीं. श्री मांझी के अनुसार पैसे की बहुत कमी थी. बाहर खेलने जाने के लिए किसी के पास पैसे नहीं होते थे. भाड़ा, खाने का सामान, जूता और ड्रेस सब उधार मांगा कर काम चलता था. समशेरा पारिस के फादर रसाल केरकेट्टा से कुछ सहयोग मिलता था, पर वह काफी नहीं था. पर न उन्होंने हिम्मत हारी और न ही बच्चों काे हारने दिया.
अपने जूते दे दिये : एक बार की घटना का जिक्र करते हुए जगेश्वर मांझी की आंखें नम हो जाती हैं. बताते हैं कि एक मैच में लड़कियों की टीम को लेकर उन्हें जाना था. सब कुछ मांग कर जमा कर लिया गया था, पर एक लड़की को जूता नहीं मिला, तो उन्होंने अपने जूते उसे दे दिये और खुद खाली पैर मैदान में रहे. उनकी टीम को जीत मिली थी.
इस बात का है गम
जगेश्वर मांझी अगले वर्ष रिटायर हो जायेंगे. उनके घर तक जाने को सड़क नहीं है. घर में बूढ़ी मां है, पर इलाके में इलाज की कोई खास सुविधा नहीं. कहते हैं कि लोगों का प्यार तो बहुत मिला, पर पेट सिर्फ प्यार से नहीं भरता. आज भी जिले के लोग चाहते हैं कि वह उनके बच्चों को प्रशिक्षित करें, पर प्रखंड में आज भी सुविधा नहीं है. जहां से इतने अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी निकले वहां सुविधा का नहीं होना दुख देता है.

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