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मदर टेरेसा एक अनोखा रूप

ऐसा माना जाता है कि दुनिया में लगभग सारे लोग सिर्फ अपने लिए जीते हैं पर मानव इतिहास में ऐसे कई मनुष्यों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपना तमाम जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में अर्पित कर दिया. मदर टेरेसा भी ऐसे ही महान लोगों में एक हैं, जो सिर्फ दूसरों के लिए जीते हैं. […]

ऐसा माना जाता है कि दुनिया में लगभग सारे लोग सिर्फ अपने लिए जीते हैं पर मानव इतिहास में ऐसे कई मनुष्यों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपना तमाम जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में अर्पित कर दिया. मदर टेरेसा भी ऐसे ही महान लोगों में एक हैं, जो सिर्फ दूसरों के लिए जीते हैं. मदर टेरेसा ऐसा नाम है जिसका स्मरण होते ही हमारा हृदय श्रद्धा से भर उठता है और चेहरे पर एक ख़ास आभा उमड़ जाती है. मदर टेरेसा एक ऐसी महान आत्मा थीं, जिनका हृदय संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए धड़कता था और इसी कारण उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन उनकी सेवा और भलाई में लगा दिया. उनका असली नाम ‘अगनेस गोंझा बोजशियु’ (Agnes Gonxha Bojaxhiu ) था. अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि मदर टेरेसा एक ऐसी कली थीं, जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही गरीबों, दरिद्रों और असहायों की जिंदगी में प्यार की खुशबू भर दी थी.

मुश्ताक खान

कोलकाता की बस्तियों में बीमारों और गरीबों की मदद में अपनी जिंदगी बितानेवाली मदर टेरेसा के जीवन ने भारत समेत दुनिया भर के लाखों लोगों को प्रभावित किया है. मानवता के प्रति उनके प्रेम आैर सेवा के भाव से प्रभावित काफी सारे ऐसे लोग मिल जायेंगे, जो जरूरतमंदों की मदद को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते हैं, पर क्या ममता की देवी मदर टेरेसा के जीवन से कॉरपोरेट जगत के सीईओ को भी कुछ सीख मिली है? इस मजेदार तथ्य को तलाशने का प्रयास किया है लेखक लू फॉस्ट और रुमा बोस की जोड़ी ने, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘मदर टेरेसा, सीईओ : अनएक्सपेक्टेड प्रिंसिपल्स फॉर प्रैक्टिकल लीडरशिप’ में मदर की उपलब्धियों को कॉरपोरेट नजरिये से देखा है. अपनी किताब में उन्होंने मदर टेरेसा को एक ऐसे नेता के रूप में पेश किया है, जिसने छोटे स्तर पर शुरू किये गये अपने उपक्रम को अपनी कोशिश, मेहनत और दक्षता से एक बहुराष्ट्रीय आयाम पर पहुंचा दिया.

मदर टेरेसा ने मिशिनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना 1948 में की थी, जिसका मकसद निसहाय लोगों की मदद करना था. अपनी लगन व सेवा की भावना से उस महान महिला ने इस मिशनरी को न केवल एक संगठन, बल्कि एक आंदोलन के रूप में तब्दील कर दिया, जिसकी मौजूदगी आज दुनिया के 100 से भी ज्यादा देशों में है. इस मिशिनरीज ऑफ चैरिटी में लगभग चार हजार लोग काम करते हैं और ये मिशनरी दान के रूप में दुनिया भर से कई बिलियन डॉलर इकट्ठा करती है.

इस पुस्तक में यह साफ कर दिया गया है कि एक धर्मपरायण नन की शिक्षाओं का लाभ पाने के लिए आपको संत बनने की जरूरत नहीं है. इस किताब में मदर टेरेसा की उपलब्धियों को मानव इतिहास की महान कारोबारी उपलब्धियों में जगह दी गयी है और मिशनरीज ऑफ चैरिटी को हेवलेट पैकार्ड, कोका-कोला, डिजनी जैसे वैश्विक ब्रांड्स के बराबर आंका गया है.

इस किताब में जो कॉरपोरेट टिप्स दिये गये हैं, उन्हें टेरेसा सिद्धांत का नाम दिया गया है. पुस्तक के अनुसार मदर टेरेसा ने अपने काम से कारोबारियों को यह पाठ दिया है कि वो अपनी दूरदर्शिता को सहज रखते हुए उसे अपनी आरामदायक स्थिति के करीब रखें. मदर टेरेसा के मामले में यह दूरदर्शिता गरीबों की मदद से जुड़ी थी. किताब का सुझाव है कि लीडरों को खुद से यह पूछना चाहिए कि वह आखिर किस क्षेत्र के मदर टेरेसा हैं.

नेता को अपने संगठन के मूल सिद्धांत का जीवंत उदाहरण बन कर रहना चाहिए, ठीक मदर टेरेसा की तरह. मदर टेरेसा की जीवनशैली मिशनरीज ऑफ चैरिटी के सिद्धांतों का आईना थी. चाहे आप उनकी तीन नीली पट्टियों वाली साधारण साड़ी को लें, जो उनकी निर्मलता, गरीबी और आज्ञाकारिता की कसमों को दर्शाती थीं. उनके साधारण निवास को लें या फिर उनकी साधारण जीवनशैली को लें. मदर टेरेसा के अन्य सिद्धांतों में शामिल हैं, शंका की शक्ति और दरबान तक का ख्याल रखने की अहमियत. यह कुंजी है इस बात को सुनिश्चित करने की कि आपके संगठन का हर सदस्य खुद को सम्मानित महसूस करे. अनुशासन में रहने की खुशी मदर टेरेसा का एक और सिद्धांत है, वह देर करने की आदत के सख्त खिलाफ थीं और रोज सुबह साढ़े चार बजे प्रार्थना के लिए उठ जाया करती थीं.

‘मदर टेरेसा, सीईओ : अनएक्सपेक्टेड प्रिंसिपल्स फॉर प्रैक्टिकल लीडरशिप’ नामक यह पुस्तक यह संदेश देने का प्रयास करती है कि हर इनसान के जीवन के अलग-अलग रंग होते हैं, यह समाज पर निर्भर करता है कि वह उसे किस नजरिये के साथ देखता है.

रोजाना प्रार्थना करती थीं मदर टेरेसा

कोलकाता :ऐसे बेसहारा लोग, जिनका न अपना कोई घर था और न कोई परिवार. शायद एक वक्त की रोटी के लिए भी उन्हें सोचना पड़ता. बीमार पड़ने पर ऐसे लोग जिन्हें उपचार व दवा भी नहीं मिल पाती थी. ऐसे बेसहारा लोगों की सेवा के लिए मदर टेरेसा सामने आयीं. वह अपनी तीन बहनों के साथ छह जनवरी, 1929 को कोलकाता पहुंचीं. यहां आने के बाद मदर टेरेसा ने लिखा था ‘अनिर्वचनीय आनंद के साथ हमने अपने पांव बंगाल की धरती पर रखे’. वर्ष 1950 में हजारों ऐसे लोग कोलकाता की गलियों में रहते थे, जो भोजन की कमी, बीमारी से जूझते हुए फुटपाथ पर ही दम तोड़ देते थे. मदर टेरेसा ने देखा कि लोगों के घाव में कीड़े पड़े हुए हैं और उनके शरीर को चूहे खा रहे हैं. वे अकेले, बिना देखभाल के सड़कों पर पड़े हुए हैं. मदर टेरेसा एक घर चाहती थीं, जहां वह ऐसे बीमार लोगों को ले जा सकें और उनकी देखभाल कर सकें. 22 अगस्त, 1952 को मदर टेरेसा ने ऐसे लोगों के लिए कालीघाट में पहला आवास (होम) स्थापित किया, जिसका नाम ‘निर्मल हृदय’ रखा. बाद में कोलकाता के क्रीक लेन में भी एक घर की व्यवस्था की. वर्ष 1953 में धर्म बहनों की संख्या इतनी बढ़ गयी थी कि क्रीक लेन के घर में पर्याप्त जगह नहीं थी. मदर टेरेसा ने हार नहीं मानी, थोड़े समय तक खोजने के बाद मदर टेरेसा को 54 ए, लोअर सर्कुलर रोड (वर्तमान में इसका नाम एजेसी बोस रोड है) में बड़ी जगह मिली. सात फरवरी, 1953 में यही आवास मिशनरीज ऑफ चैरिटी का ‘मदर हाउस’ बना. सेवा कार्यों के साथ मदर टेरेसा हर रोज शांति के लिए प्रार्थना करती थीं. शांति की प्रार्थना असीसी के संत फ्रांसिस द्वारा रचित है. आइये जानते हैं मदर टेरेसा रोजाना क्या प्रार्थना करती थीं –

हे प्रभु, मुझे अपनी शांति का साधन बना

जहां घृणा हो वहां प्रेम उपजाऊं.

जहां भूल हो वहां क्षमा भावना ला सकूं.

जहां फूट हो वहां मेल करा सकूं.

जहां असत्य हो वहां सच्चाई ला सकूं.

जहां संदेह हो वहां विश्वास जगा सकूं.

जहां निराशा हो वहां आशा का संचार करूं.

जहां अंधकार है वहां उजाला लाऊं.

जहां उदासी हो वहां आनंद फैला सकूं.

हे प्रभु ऐसी कृपा दें कि मैं दिलासा पाने

की बजाय दूसरे को दिलासा दूं.

स्वीकृति पाने की बजाय दूसरों को स्वीकार करूं.

प्रेम पाने की बजाय प्रेम प्रदान करूं

क्योंकि स्वयं को भुलाने में ही हम पाते हैं.

क्षमा करने में ही हमें क्षमा मिलती है

और मृत्यु के द्वारा ही हम अनंत जीवन में जन्म पाते हैं.

आमेन

अल्बानिया में जन्मीं अग्नेस गोंझा बोजशियु 1928 में नन बनने के बाद सिस्टर टेरेसा बन गयी थीं.

मुश्ताक खान

कोलकाता की बस्तियों में बीमारों और गरीबों की मदद में अपनी जिंदगी बितानेवाली मदर टेरेसा के जीवन ने भारत समेत दुनिया भर के लाखों लोगों को प्रभावित किया है. मानवता के प्रति उनके प्रेम आैर सेवा के भाव से प्रभावित काफी सारे ऐसे लोग मिल जायेंगे, जो जरूरतमंदों की मदद को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते हैं, पर क्या ममता की देवी मदर टेरेसा के जीवन से कॉरपोरेट जगत के सीईओ को भी कुछ सीख मिली है? इस मजेदार तथ्य को तलाशने का प्रयास किया है लेखक लू फॉस्ट और रुमा बोस की जोड़ी ने, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘मदर टेरेसा, सीईओ : अनएक्सपेक्टेड प्रिंसिपल्स फॉर प्रैक्टिकल लीडरशिप’ में मदर की उपलब्धियों को कॉरपोरेट नजरिये से देखा है. अपनी किताब में उन्होंने मदर टेरेसा को एक ऐसे नेता के रूप में पेश किया है, जिसने छोटे स्तर पर शुरू किये गये अपने उपक्रम को अपनी कोशिश, मेहनत और दक्षता से एक बहुराष्ट्रीय आयाम पर पहुंचा दिया.

मदर टेरेसा ने मिशिनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना 1948 में की थी, जिसका मकसद निसहाय लोगों की मदद करना था. अपनी लगन व सेवा की भावना से उस महान महिला ने इस मिशनरी को न केवल एक संगठन, बल्कि एक आंदोलन के रूप में तब्दील कर दिया, जिसकी मौजूदगी आज दुनिया के 100 से भी ज्यादा देशों में है. इस मिशिनरीज ऑफ चैरिटी में लगभग चार हजार लोग काम करते हैं और ये मिशनरी दान के रूप में दुनिया भर से कई बिलियन डॉलर इकट्ठा करती है.

इस पुस्तक में यह साफ कर दिया गया है कि एक धर्मपरायण नन की शिक्षाओं का लाभ पाने के लिए आपको संत बनने की जरूरत नहीं है. इस किताब में मदर टेरेसा की उपलब्धियों को मानव इतिहास की महान कारोबारी उपलब्धियों में जगह दी गयी है और मिशनरीज ऑफ चैरिटी को हेवलेट पैकार्ड, कोका-कोला, डिजनी जैसे वैश्विक ब्रांड्स के बराबर आंका गया है.

इस किताब में जो कॉरपोरेट टिप्स दिये गये हैं, उन्हें टेरेसा सिद्धांत का नाम दिया गया है. पुस्तक के अनुसार मदर टेरेसा ने अपने काम से कारोबारियों को यह पाठ दिया है कि वो अपनी दूरदर्शिता को सहज रखते हुए उसे अपनी आरामदायक स्थिति के करीब रखें. मदर टेरेसा के मामले में यह दूरदर्शिता गरीबों की मदद से जुड़ी थी. किताब का सुझाव है कि लीडरों को खुद से यह पूछना चाहिए कि वह आखिर किस क्षेत्र के मदर टेरेसा हैं.

नेता को अपने संगठन के मूल सिद्धांत का जीवंत उदाहरण बन कर रहना चाहिए, ठीक मदर टेरेसा की तरह. मदर टेरेसा की जीवनशैली मिशनरीज ऑफ चैरिटी के सिद्धांतों का आईना थी. चाहे आप उनकी तीन नीली पट्टियों वाली साधारण साड़ी को लें, जो उनकी निर्मलता, गरीबी और आज्ञाकारिता की कसमों को दर्शाती थीं. उनके साधारण निवास को लें या फिर उनकी साधारण जीवनशैली को लें. मदर टेरेसा के अन्य सिद्धांतों में शामिल हैं, शंका की शक्ति और दरबान तक का ख्याल रखने की अहमियत. यह कुंजी है इस बात को सुनिश्चित करने की कि आपके संगठन का हर सदस्य खुद को सम्मानित महसूस करे. अनुशासन में रहने की खुशी मदर टेरेसा का एक और सिद्धांत है, वह देर करने की आदत के सख्त खिलाफ थीं और रोज सुबह साढ़े चार बजे प्रार्थना के लिए उठ जाया करती थीं.

‘मदर टेरेसा, सीईओ : अनएक्सपेक्टेड प्रिंसिपल्स फॉर प्रैक्टिकल लीडरशिप’ नामक यह पुस्तक यह संदेश देने का प्रयास करती है कि हर इनसान के जीवन के अलग-अलग रंग होते हैं, यह समाज पर निर्भर करता है कि वह उसे किस नजरिये के साथ देखता है.

कब, कैसे और कहां मदर टेरेसा को दी जायेगी संत की उपाधि

मदर टेरेसा को रोमन कैथोलिक चर्च के संत का दर्जा दिये जाने की सभी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. रविवार, चार सितंबर को भारतीय समयानुसार दोपहर दो बजे वेटिकन सिटी के सेंट पीटर्स स्क्वायर में विशेष जनता के सामने पोप फ्रांसिस, मदर टेरेसा को रोमन कैथोलिक चर्च का संत घोषित करेंगे. इस मौके पर संतों की मंडली के अधिकारी (प्रिफेक्ट), कार्डिनल एजेंलो अमाटो और मदर टेरेसा को संत बनाने के अनुबंधक, फादर ब्रायन कोलोदिएचुक के प्रिफेक्ट, पोप से पूछेंगे कि क्या कलकत्ता की धन्य मदर टेरेसा का नाम संतों की किताब में लिखा जाये. इसके बाद कार्डिनल मदर टेरेसा की संक्षिप्त जीवनी पढ़ कर सुनायेंगे, जिसके बाद एक प्रार्थना होगी और फिर संतों की लीटानी. उसके बाद पोप लैटिन में केननाइजेशन का फॉर्मूला पढ़ेंगे, जिसके बाद वे कहेंगे “In the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit” और सब बोलेंगे “Amen”. यह मदर टेरेसा के संत होने की आधिकारिक मान्यता होगी. उनके अवशेष वेदी पर लाये जायेंगे और असेंबली “एलेजुआ” गायेगी. इसके बाद प्रिफेक्ट और अनुबंधक पोप इस घोषणा के लिए पोप का शुक्रिया अदा करेंगे और गुजारिश करेंगे कि इस संबंध में अपोस्टोलिक पत्र लिखने के प्रबंध किये जायें. पोप जवाब में कहेंगे, “हम आज्ञा देते हैं”, और फिर प्रिफेक्ट और अनुबंधक, पोप से गले मिलेंगे.

आधिकारिक रूप से मदर टेरेसा को कलकत्ता का संत कहा जायेगा. अल्बानिया में जन्मीं अग्नेसे गोंझा बोजशियु 1928 में नन बनने के बाद सिस्टर टेरेसा बन गयी थीं. 24 मई, 1937 को उन्होंने गरीबी, शुद्धता और आज्ञाकारिता के जीवन को चुना और लॉरेटो नन की प्रथा के अनुसार, “मदर” की उपाधि ली. भारत और कोलकाता में उन्हें मदर टेरेसा ही बुलाये जाने की उम्मीद है क्योंकि उनके साथ भारतीयों का गहन भावनात्मक जुड़ाव है.

कैथोलिक चर्च में कितने संत हैं? उन्हें किसने मान्यता दी?

10,000 से भी ज्यादा शख्सियतों को संत नामित किया गया है, लेकिन कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है. संतों की उपासना की शुरुआत 100 ईसवी में शुरू हुई, जब ईसाइयों ने ईसाई ‘शहीदों’ को सम्मानित करना शुरू किया. 10 सदी तक, रोमन कैथोलिक चर्च ने घोषणा कर दी कि बिना उसकी अनुमति के किसी की उपासना संत के रूप में नहीं की जायेगी. किसी शख्सियत को संत घोषित करने की पहली रिकॉर्डेड प्रक्रिया 993 ईसवी में हुई, जब पोप जॉन 15वें ने ऑसबर्ग के उलरिच को संत की उपाधि दी. धीरे-धीरे संत की पहचान बिशप्स और पोप के हाथों में आ गयी. संतों को सिर्फ केननाइजेशन की औपचारिक प्रक्रिया के बाद ही संत नामित किया जा सकता है, जो कि सालों चलती रहती है. केननाइजेशन के बाद, संत का नाम संतों की सूची में जोड़ दिया जाता है और सार्वजनिक प्रार्थनाओं में लिया जा सकता है.

संत चुने जाने की प्रक्रिया क्या है?

संत चुने जाने की प्रक्रिया को केननाइजेशन कहते हैं. यह प्रक्रिया उम्मीदवार की मौत के 5-50 साल के भीतर शुरू की जा सकती है. 1999 में पोप जान पॉल द्वितीय ने सामान्य पांच वर्ष के इंतजार को खत्म करते हुए मदर टेरेसा के लिए केननाइजेशन की इजाजत दे दी थी, क्योंकि उन्हें ‘जीवित संत’ माना जाता था. एक बार प्रक्रिया शुरू होने के बाद, व्यक्ति को “ईश्वर का सेवक” कहा जाता है. पहला चरण- अभ्यर्थना- में गवाही के लिए लोग इकट्ठा होते हैं, सार्वजनिक और निजी लेखन देते हैं, फिर उनकी जांच की जाती है. यह चरण लंबा होता है और इसमें सालों लग जाते हैं. इसका अंत धर्मप्रदेश ट्राइब्यूनल के फैसले से होता है, जिसमें बिशप उम्मीदवार के गुणों और ईश्वर के प्रति समर्पण पर फैसला करते हैं. अगर इजाजत मिलती है तो बिशप की रिपोर्ट रोम जाती है, जहां इसे इटैलियन में ट्रांसलेट किया जाता है, इसे अपोस्टोलिक प्रक्रिया कहते हैं. इसका सार संतों की मंडली के समक्ष रखा जाता है, जहां 9 धर्मशास्त्री सबूतों और कागजातों की जांच करते हैं. बहुमत से पास होने पर, रिपोर्ट पोप के पास जाती है, पोप के हामी भरने के बाद उम्मीदवार को आदरणीय कहा जाता है.

अगला कदम मोक्ष प्राप्ति है. किसी भी व्यक्ति को धन्य घोषित करने के लिए ‘चमत्कार’ की अनुमति जरूरी है, जो कि भगवान के आदरणीय सेवक की रक्षा करने वाली शक्तियों का सबूत होते हैं. यह एक संकेत होता है कि वह मृत्यु के बाद ईश्वर से जुड़ गये हैं. धर्मप्रदेश, जहां ये तथाकथित चमत्कार होने का दावा किया जाता है, एक वैज्ञानिक और धर्मशास्त्रों पर आधारित जांच करते हैं. विज्ञान आयोग को मंजूर की गयी वैज्ञानिक योग्यताओं के आधार पर यह फैसला करना होता है कि क‍थित चमत्कार का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. धर्मशास्त्रियों का कमीशन यह तय करता है कि जो कुछ भी हुआ, वह असल में ‘चमत्कार’ था या ईश्वर के आदरणीय सेवक की रक्षा की वजह से ऐसा हुआ. अगर कमीशन सकरात्मक रिपोर्ट देता है, तो वह पोप के पास जाती है, अगर पोप हामी भरते हैं तो उम्मीदवार को मोक्ष प्राप्ति होती है. शहादत की स्थिति में, चमत्कार की आवश्यकता से छूट दी गयी है.

केननाइजेशन की प्रक्रिया को आगे ले जाने के लिए, एक दूसरे चमत्कार की जरूरत होती है. इसमें वही प्रक्रिया अपनायी जाती है, जो मदर टेरेसा के मामले में अपनायी जायेगी. 2002 में, पोप ने एक बंगाली आदिवासी महिला, मोनिका बेसरा के ट्यूमर के ठीक होने को मदर टेरेसा का पहला चमत्कार माना. 2015 में ब्रेन ट्यूमर से ग्रस्त ब्राजीलियन पुरुष के ठीक होने को दूसरा चमत्कार माना गया. डॉक्टर्स और तर्कशास्त्रियों ने इन कथित चमत्कारों को खारिज कर दिया था और कई सवाल खड़े हुए थे.

केननाइजेशन समारोह में भारत से कौन शामिल होगा? मेहमानों की लिस्ट का फैसला कौन करता है?

केरल में कैथोलिक चर्च की शीर्ष फैसले लेने वाली संस्था कैथोलिक बिशप्स कांफ्रेंस ऑफ इंडिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समारोह के लिए आयोजित किया है. प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ 11 सदस्यीय आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल भेज रहे हैं, जिसमें सांसद और महत्वपूर्ण हस्तियां शामिल होंगी. मिशनरीज ऑफ चैरिटी ने मदर टेरेसा के साथ कुछ महीने काम करनेवाले अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन और सुदीप बंद्योपाध्याय को आमंत्रित किया है. इसके अलावा कॉंफ्रेंस ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी आमंत्रित किया है, जिन्होंने मारग्रेट अल्वा को नामित किया है.

केननाइजेशन समारोह का खर्च कितना है? इसका भुगतान कौन करता है?

असल खर्च का किसी को पता नहीं. हालांकि पोप फ्रांसिस ने हाल ही में ऐसे समारोहों को वित्तीय रूप से और पारदर्शी बनाने के लिए नये नियमों को मंजूरी दी है. उन्होंने यह फैसला इटली के पत्रकार गियानलुइगी नुज्जी के दावे के बाद किया था. पत्रकार का दावा था कि “सिर्फ मोक्ष प्राप्ति की प्रकिया खाेलने पर 50,000 यूरो खर्च होते हैं, इसके अलावा असल ऑपरेटिंग खर्च के लिए 15,000 यूरो अतिरिक्त खर्च होते हैं.” सूत्रों का कहना है कि मदर टेरेसा के केननाइजेशन का खर्च 50 लाख से भी कम रहा है.

असहाय व गरीबों के लिए धड़कता था टेरेसा का दिल

आमतौर पर लोग अपने, अपनों आैर अपनी खुशी के लिए ही जीते हैं, लेकिन इस दुनिया में कुछ ऐसे भी लोग गुजरे हैं, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी दूसरों की सेवा में लगा दी. उन महान लोगों में एक नाम ममता की देवी मदर टेरेसा का है. मदर टेरेसा का हृदय संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए धड़कता था और इसी कारण उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन उनकी सेवा और भलाई में लगा दिया. उनका असली नाम अगनेस गोंझा बोजशियु था. अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि मदर टेरेसा एक ऐसी कली थीं जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही गरीबों, दरिद्रों और असहायों की जिंदगी में प्यार की खुशबू भर दी थी.

शुरुआती जिंदगी : मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में एक अल्बेनियाई परिवार में हुआ था. उनके पिता निकोला बोजशियु एक साधारण व्यवसायी थे. जब वह आठ साल की थीं, तभी उनके पिता की मौत हो गयी. इसके बाद उनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना बोजशियु के ऊपर आ गयी. वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं. उनके जन्म के समय उनकी बड़ी बहन की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी, बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गये थे. वह एक सुंदर एवं परिश्रमी लड़की थीं. पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें गाना बेहद पसंद था. वह और उनकी बहन पास के गिरजाघर में मुख्य गायिका थीं. ऐसा माना जाता है कि जब वह मात्र बारह साल की थीं तभी उन्हें यह अनुभव हो गया था कि वो अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगायेंगी. यह जरूरी था क्योंकि लोरेटो की सिस्टर्स इसी भाषा में बच्चों को भारत में पढ़ाती थीं.

भारत आगमन : सिस्टर टेरेसा ने आयरलैंड से 6 जनवरी, 1929 को कोलकाता के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में कदम रखा, वह एक अनुशासित शिक्षिका थीं और विद्यार्थी उनसे बहुत स्नेह करते थे. वर्ष 1944 में वह स्कूल की प्रधान अध्यापिका बन गयी थीं. उनका मन शिक्षण में पूरी तरह रम गया था पर उनके आस-पास फैली गरीबी, दरिद्रता और लाचारी उनके मन को बहुत अशांत करती थी. 1943 के अकाल में शहर में बड़ी संख्या में मौतें हुईं और लोग गरीबी से बेहाल हो गये थे. 1946 के हिंदू-मुसलिम दंगों ने तो कोलकाता की स्थिति को आैर भयावह बना डाला था.

मिशनरीज ऑफ चैरिटी : वर्ष 1946 में उन्होंने गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों की जीवनपर्यंत मदद करने का मन बना लिया. इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फैमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिंग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गयीं और वहां से पहली बार तालतला गयीं, जहां वह गरीब बुजुर्गों की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं. उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहम-पट्टी की और उनको दवाइयां दीं. धीरे-धीरे उन्होंने अपने कार्य से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा. इन लोगों में देश के उच्च अधिकारी और भारत के प्रधानमंत्री भी शामिल थे, जिन्होंने उनके कार्यों की सराहना की. मदर टेरेसा के अनुसार, इस कार्य में शुरुआती दौर बहुत कठिन था. वह लोरेटो छोड़ चुकी थीं इसलिए उनके पास कोई आमदनी नहीं थी – उनको अपना पेट भरने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ी. जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर उनके मन में बहुत उथल-पुथल हुई, अकेलेपन का एहसास हुआ और लोरेटो की सुख-सुविधाओं में वापस लौट जाने का ख्याल भी आया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. 7 अक्तूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की स्थापना की अनुमति मिल गयी. इस संस्था का उद्देश्य भूखों, बेघर, लंगड़े-लूल्हों, अंधों, चर्म रोग से ग्रसित और ऐसे पीड़ित लोगों की सहायता करना था, जिनके लिए समाज में कोई जगह नहीं थी. ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ का आरंभ मात्र 13 लोगों के साथ हुआ था, पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय (1997 में) चार हजार से भी ज्यादा ‘सिस्टर्स’ दुनियाभर में असहाय, बेसहारा, शरणार्थी, अंधे, बूढ़े, गरीब, बेघर, शराबी, एड्स के मरीज और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों की सेवा कर रही हैं. मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम से आश्रम खोले. ‘निर्मल हृदय’ का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों का सेवा करना था, जिन्हें समाज ने बाहर निकाल दिया हो. निर्मला शिशु भवन’ की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई. सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता, यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई. जब वह भारत आयीं तो उन्होंने यहां बेसहारा और विकलांग बच्चों और सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आंखों से देखा. इन सब बातों ने उनके हृदय को इतना द्रवित किया कि वे उनसे मुंह मोड़ने का साहस नहीं कर सकीं. इसके पश्चात उन्होंने जनसेवा का जो व्रत लिया, जिसका पालन वह अनवरत करती रहीं.

मृत्यु : बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया. वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा. उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गयी थीं. इसके पश्चात वर्ष 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया. साल 1991 में मैक्सिको में न्यूमोनिया के बाद उनके हृदय की परेशानी और बढ़ गयी. इसके बाद उनकी सेहत लगातार गिरती रही. 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितंबर, 1997 को उनकी मौत हो गयी. उनकी मौत के समय तक ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में कार्यरत थीं. मानव सेवा और गरीबों की देखभाल करनेवाली मदर टेरेसा को पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्तूबर, 2003 को रोम में “धन्य” घोषित किया.

सम्मान और पुरस्कार

मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए. भारत सरकार ने उन्हें पहले पद्मश्री (1962) और बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (1980) से अलंकृत किया. संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें वर्ष 1985 में मेडल आॅफ फ्रीडम 1985 से नवाजा. मानव कल्याण के लिए किये गये कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला. उन्हें यह पुरस्कार गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था. मदर टेरेसा ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धनराशि को गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया.

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