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हिंदी के अनन्य साधक और कर्मयोगी थे फादर कामिल बुल्के

रांची: फादर कामिल बुल्के हिंदी के अनन्य साधक, कर्मयोगी और अप्रतिम शब्द शिल्पी थे. यह कहना है संत जेवियर्स कॉलेज मेंे हिंदी के विभागाध्यक्ष प्रो कमल कुमार बोस का. प्रो बोस ने बताया कि अपनी लंबी साधना के द्वारा फादर कामिल बुल्के ने जीवन की अधेड़ उम्र में हिंदी की टिप्पणी शुरू की और हिंदी […]

रांची: फादर कामिल बुल्के हिंदी के अनन्य साधक, कर्मयोगी और अप्रतिम शब्द शिल्पी थे. यह कहना है संत जेवियर्स कॉलेज मेंे हिंदी के विभागाध्यक्ष प्रो कमल कुमार बोस का. प्रो बोस ने बताया कि अपनी लंबी साधना के द्वारा फादर कामिल बुल्के ने जीवन की अधेड़ उम्र में हिंदी की टिप्पणी शुरू की और हिंदी की लंबी यात्रा की. उन्होंने न केवल हिंदी को अपनाया, बल्कि भारत और भारतीयता को भी स्वीकार किया. भारतीय होने का उन्हें बड़ा गर्व था और भारत की हिंदी पर नाज था.

उन्होंने महसूस किया था कि हिंदी में वे सभी क्षमताएं मौजूद हैं, जो किसी भी विदेशी भाषा में होती है. अनुवाद के माध्यम से, रचनात्मक साहित्य के माध्यम से, हिंदी की गहराई को बेहतर अभिव्यक्ति दी. उनका शब्दकोश मील का पत्थर है. चौदह भाषाओं के विद्वान फादर कामिल बुल्के जब हिंदी बोलते थे, तो शुद्ध हिंदी बोलते थे. उन्हें कतई स्वीकार नहीं था कि हिंदी की अभिव्यक्ति में किन्हीं दूसरी भाषाओं के शब्द इस्तेमाल किये जायें.
उन्हें तुलसी प्रिय थे : उन्हें तुलसी प्रिय थे और तुलसी के राम भी उनके आदर्श चरित्र थे. तुलसी की पंक्तियों ने उन्हें काफी प्रभावित किया था. वे कहते थे कि स्वर्ग में यदि तुलसी या राम से मिलना हो, तो पहले तुलसी से ही मिलेंगे. कर्मयोगी की भांति उन्होंने हिंदी की सच्ची साधना की. हिंदी की उपेक्षा उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं थी.
सीखने की अदभुत ललक : आज जो भारतीय हिंदी की ताकत पर संदेह व्यक्त करते हैं, उनके लिए फादर बुल्के का हिंदी चिंतन और हिंदी व्यवहार आंखें खोलने वाला है. हां, उन्हें हिंदी के उच्चारण में तकलीफ होती थी, पर सही ध्वनि का उच्चारण कर सकें, इसके लिए हमेशा सतर्क रहते थे. उनमें सीखने की अदभुत ललक थी और जीवन के अंतिम क्षण तक हिंदी के लिए कार्य करते रहे. हम सभी हिंदी भाषियों के लिए, जो हिंदी से सरोकार रखते हैं, फादर बुल्के एक आदर्श व्यक्ति हैं.
डॉ बुल्के ने हिंदी अपना कर भारत को अपनाया : डॉ बोस
संत जेवियर्स कॉलेज हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ कमल कुमार बोस ने कहा कि डॉ कामिल बुल्के ने हिंदी अपनाते हुए भारत को अपनाया. उन्हें अगर कोई विदेशी कहता, तो वे बहुत ही आहत होते थे. डॉ बुल्के एक विदेशी होते हुए हिंदी की ताकत को पहचाना अौर हिंदी अपना कर अपनी ताकत का लोहा मनवाया. डॉ बुल्के ने 40-42 वर्ष की उम्र हिंदी का प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की अौर हिंदी में अनुवाद कर विदेशों में भी भारत की पहचान दिलायी. उनका मानना था कि हिंदी एक एेसी भाषा है, जिसमें अपनत्व है. इसके माध्यम से कोई भी अपनी पहचान बना सकता है. डॉ बोस ने कहा कि डॉ बुल्के की कमी कभी पूरी नहीं की जा सकती है.
गंभीर अध्येता थे डॉ बुल्के, उनका कोई विकल्प नहीं : डॉ मिथिलेश
रांची विवि स्नातकोत्तर हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ मिथिलेश ने कहा है कि डॉ कामिल बुल्के का कोई विकल्प नहीं है. वे एक गंभीर अध्येता थे, तभी उन्होंने गंभीर विषय पर काम किया अौर अपनी प्रतिबद्धता दिखायी. आज इस तरह की गंभीरता अौर प्रतिबद्धता की काफी कमी है. डॉ बुल्के की राम काव्य व शब्दकोश का कोई जोड़ नहीं है. विद्यार्थी से लेकर अध्ययन व सरकारी कामकाज में भी उनके शब्दकोश का इस्तेमाल हो रहा है. डॉ बुल्के का कार्य झारखंड ही नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए अनुकरणीय है. एक विदेशी की हिंदी के प्रति इस तरह का लगाव हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों के लिए भी चुनौती के समान है. आज भी उनकी कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता है. उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का वर्णन करना बहुत ही मुश्किल है. वे महान थे.
कामिल बुल्के व्याख्यानमाला आरंभ हो : डॉ रविभूषण
रांची. साहित्यकार, आलोचक व रांची विवि के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ रविभूषण ने कहा है कि डॉ कामिल बुल्के ने जिस मनरेसा हाउस में अपनी जिंदगी गुजार दी, उस स्थान को अन्यत्र शिफ्ट नहीं किया जाये. क्योंकि उस मनरेसा हाउस स्थान के साथ उनकी स्मृति जुड़ी हुई है. सुनने में आया है कि भविष्य में उस स्थान को संत जेवियर्स कॉलेज में ले जाया जा रहा है. डॉ बुल्के संत जेवियर्स कॉलेज में पढ़ाते थे. इसलिए उनके लिए सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके नाम पर कॉलेज में वार्षिक व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाये, क्योंकि डॉ बुल्के के साथ हिंदी साहित्य, हिंदी के साथ जीवन अौर समाज जुड़ा हुआ है. डॉ बुल्के को जाननेवाले लोग के साथ उनका कभी अौपचारिक संबंध नहीं, बल्कि अनौपचारिक संबंध रहा. आज झारखंड के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात है कि अगर डॉ बुल्के की कोई अप्रकाशित रचनाएं इधर-उधर पड़ी हैं, तो उसे समेट कर प्रकाशित करने की आवश्यकता है. इसकी जिम्मेवारी लेनी होगी. यही उनके जन्मदिन पर तोहफा होगा. आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके द्वारा किये गये कार्य सबों के जेहन में है.

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