उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
अद्भुत राष्ट्रवाद है हमारा. यह किसी दलित को मरे जानवर की खाल निकालने के उसके पारंपरिक पेशे (जिसे उन्होंने छोड़ने का एलान कर दिया है) में जुटा देख पीटने लगता है या मार डालता है. किसी युवक-युवती के अंतरधर्मीय प्रेम या विवाह में जेहाद देखता है.
असहमति की आवाज बंद करने के लिए किसी लेखक का सीना गोलियाें से छलनी कर देता है. पाकिस्तान के दौरे से लौटीं लोकप्रिय कन्नड़ अभिनेत्री राम्या के इस सहज बयान कि पाकिस्तानी जनता ने उनके डेलीगेशन का तहे दिल से स्वागत किया और वह किसी पड़ोसी मुल्क को नर्क कैसे कह सकती हैं, पर आग-बबूला होकर उन पर देशद्रोह का मामला ठोंक देता है!
लेकिन यही राष्ट्रवाद रियो ओलिंपिक की पदक तालिका में 67वें स्थान पर रहे अपने मुल्क के प्रदर्शन पर कतई शर्मिंदा नहीं होता. 125 करोड़ के मुल्क को महज दो पदक. वह भी दोनों महिला-खिलाड़ियों की अपनी जिजीविषा, मेहनत और तपस्या के चलते. उसमें राष्ट्रवाद का अलख फूंकनेवाली सरकारों का शायद ही कोई रोल है!
भला हो रियो ओलिंपिक का, कि बीते पंद्रह-बीस दिनों तक हमारे मुख्यधारा मीडिया और उसके परम राष्ट्रवादी हिस्से में भी खेलों का जिक्र होता रहा, सिर्फ क्रिकेट का नहीं. इन दिनों मीडिया के खेल-कवरेज के दो हिस्से रहे.
एक तो वह ओलिंपिक में अपने महादेश की खस्ता हालत के लिए जिम्मेवार स्थितियों पर कुछ रोशनी डाल रहा था और दूसरा, पदक हासिल करनेवाले खिलाड़ियों, उनके परिजनों और प्रशिक्षकों की वाहवाही या उन्हें मिलनेवाले पुरस्कारों की खबर परोस रहा था. यह दोनों पहलू अपनी जगह बिल्कुल दुरुस्त और मौजू हैं.
लेकिन, खेलों के प्रति हमारी सरकारों के बेहद तदर्थवादी और कैजुअल नजरिये की तरह मीडिया के एप्रोच और कवरेज पर बड़ा सवाल यहीं उठता है. जब तक किसी अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता की पदक तालिका में हमारा नाम चालीस लाख आबादी वाले क्रोएशिया, बीस लाख वाले जमैका, इक्कीस लाख आबादी वाले आर्मेनिया, पचास लाख आबादी वाले स्लोवाकिया, एक करोड़ वाले क्यूबा या कोलंबिया जैसे देशों से भी बहुत नीचे नहीं जाता, हमारा मीडिया ऐसी कहानियां शायद ही कभी कहता या दिखाता है.
अपने देश में खेलों की खस्ता हालत के लिए जिम्मेवार कारणों और कारकों की शिनाख्त करना कोई ‘रॉकेट साइंस’ नहीं. फिर यह ‘कंटेट’ हमारी सरकारों और उसके अफसरानों की तरह खेल पत्रकारिता से भी आमतौर पर गायब क्यों है? कुछ अपवादों की बात नहीं कर रहे हैं, ऐसी साहसिक स्टोरीज को सलाम. लेकिन, तब भी सवाल बरकरार है कि हमारा समाज खेलों में घुसी राजनीति पर गुस्सा क्यों नहीं करता?
हमारा मीडिया खेल प्राधिकारों-संघों पर काबिज नेताओं-गिरोहबाजों पर सवाल क्यों नहीं उठता? अपने देश में जिस तरह पार्टियों को ‘कवर’ करनेवाले या ‘डिफेंस’ और ‘डिप्लोमेसी’ कवर करनेवाले पत्रकारों के एक हिस्से का उन दलों या विभागों के हुक्मरानों से एक ‘बिरादराना-रिश्ता’ बन जाता है, जो कई बार निहित स्वार्थ के पोषण में तब्दील हो जाता है. क्या कुछेक अपवादों को छोड़ कर यही बात खेल पत्रकारिता पर लागू नहीं होती?
जब रियो ओलिंपिक में हमारी विफलताएं उजागर होने लगीं, तभी यह कहानी आनी शुरू हुई कि इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन के उपाध्यक्ष का एक रेडियोलॉजिस्ट-बेटा भारतीय खिलाड़ियों के ओलिंपिक दस्ते का मुख्य चिकित्सक बन कर गया है या कि भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद रहे एक खेल फेडरेशन के राजनेता-पदाधिकारी जमानत पाकर सीधे रियो चले गये. कोर्ट से विदेश जाने की इजाजत तक नहीं ली. ऐसे बहुतेरे ‘सेल्फीबाज नेताओं’ के रियो-प्रवास की रंग-बिरंगी कहानियां अब कानोंकान सुनी जा रही हैं. इनमें कुछ प्रकाश में भी आयीं.
एक चैनल पर मैंने एक बेहतरीन स्टोरी देखी कि कैसे झारखंड की महिला तैराक सांप-बिच्छुओं से भरे एक बरसाती पानी या बांध के जलाशय में अपनी प्रैक्टिस करती हैं, जबकि करोड़ों के खर्च से बने स्विमिंग पूल या तो खराब हो गये हैं या काम के नहीं हैं.
लेकिन, ऐसी स्टोरीज के प्रकाश में आने के लिए मीडिया को किसी ओलिंपिक में मुल्क की विफलताओं का इंतजार क्यों रहता है? अपनी सत्तर-साला आजादी और हाल के परम राष्ट्रवादी दौर के बावजूद हम अपने राष्ट्रीय जीवन की तरह खेल को भी रोगमुक्त नहीं कर सके. शासन और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र की तरह हमारा खेल जगत भी भ्रष्टाचार, जातिवाद-परिवारवाद और गिरोहवाद से ग्रस्त है. सुदूर-पिछड़े इलाके और सबाल्टर्न समाजों के युवाओं को उभरने का मौका कम मिलता है.
अगर ऐसा होता, तो शायद अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपने देश का नाम पदक तालिका में नीचे से खोजने की शर्म नहीं झेलनी पड़ती. लेकिन, हमारा राष्ट्रवाद तो फिलहाल पैलेट बंदूक चलाने में जुटा हुआ है. काश! वह गरीबी, गैरबराबरी, बेईमानी और निरंकुशता को खत्म करने में जुटता!