हम देश की आर्थिक प्रगति का चाहे जितना ढोल पीट लें, अपनी लोक-कल्याणकारी शासन-व्यवस्था पर चाहे जितना इतरा लें, या फिर मानवता के उच्च गुणों से परिपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत पर अपनी पीठ थपथपाते फिरें, सच्चाई यही है कि दिनों-दिन हम एक स्वार्थी व असंवेदनशील भीड़ में बदलते जा रहे हैं, जहां हर कोई अपने-आप में ही गुम है.
ऐसे माहौल में परेशान, बेहाल और बेबस की आखिरी उम्मीद सत्ता प्रतिष्ठानों से होती है, लेकिन निर्धन आदिवासी दाना मांझी को अपनी मृतक पत्नी की लाश ढोने के लिए एक वाहन तक नसीब नहीं हुआ. मजबूरन उसे प्राणहीन देह को कपड़े में लपेट कर कंधे पर ले जाना पड़ा. साथ में उसकी बिलखती बेटी थी. उसका गांव कालाहांडी के अस्पताल से 60 किलोमीटर दूर था. भला हो, जो इस हृदयविदारक दृश्य पर कुछ स्थानीय मीडियाकर्मियों की नजर पड़ गयी, जिन्होंने अधिकारियों को सूचित कर मदद का इंतजाम किया.
इस तरह की घटना तब हुई है, जब राज्य सरकार मृतकों को घर पहुंचाने और गरीब परिवारों को अंतिम संस्कार के लिए सहायता देने की योजनाएं चला रही है. आदिवासी ओड़िशा समेत पूरे देश में सर्वाधिक वंचित समुदायों में हैं. ओड़िशा में इनकी आबादी 22 फीसदी से अधिक है, जो पूरे देश की आदिवासी जनसंख्या का करीब 10 फीसदी है.
हालांकि, प्रशासनिक और सामाजिक संवेदनहीनता के शिकार सिर्फ वंचित समुदाय ही नहीं हैं. कुछ दिनों पहले राजधानी दिल्ली में मुख्य सड़क पर घायल एक व्यक्ति इसी वजह से दम तोड़ गया, जबकि उसके पास से कई गाड़ियां और लोग गुजरते रहे. कुछ साल पहले जयपुर के पास व्यस्त सड़क पर एक व्यक्ति अपनी छोटी बेटी के साथ बुरी तरह से घायल पत्नी और नवजात शिशु की मदद के लिए गुहार लगाता रहा, पर किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया.
हाल में एक खबर यह भी आयी थी कि एक अस्पताल मृत व्यक्ति का इलाज सिर्फ इसलिए करता रहा, ताकि उसके परिजनों से अधिक रकम वसूल सके. यह स्थिति सिर्फ व्यापक मानवीय कमजोरी को ही रेखांकित नहीं करती हैं, बल्कि वृहत मनोवैज्ञानिक और मानसिक समस्या की ओर भी इंगित करती है. ऐसा स्वार्थी समाज समुचित रूप से अपनी समृद्धि को नहीं जी सकता है. हमें इस पर गंभीर आत्ममंथन करने की जरूरत है.