।।अमितांगशुआचार्य ।।
2013 की एक काली आधी रात गंडक नदी बिहार के पश्चिम चंपारण जिले में गोपालगंज उच्चपथ को तोड़ती हुई करिसा का टोला बस्ती को एक झटके में लील गयी. लोगों को पहले ही सावधान कर दिया गया था और अपने दो वर्षीय बेटे के साथ उमा साहू नामक एक महिला को छोड़ कर बाकी सभी ग्रामीण ऊंची जगहों पर पलायन कर चुके थे. जब तक उमा स्थिति की विभीषिका को पूरी तरह समझ पाती, उसके घर में पानी ऊंचा उठने लगा था. उसका पति एक प्रवासी मजदूर है, जो दूर दिल्ली में कहीं मजदूरी कर रहा था. उमा अपने बच्चे को अपनी बांहों में लिये छाती जितने गहरे पानी में तब तक लगातार खड़ी रही, जब तक पूरे बारह घंटे बाद एक बचाव नौका ने आकर दोनों मां-बेटे की प्राणरक्षा न की. पर ऐसी ही कोई दैवी मदद पुनीता यादव को नसीब न हो सकी. उमा के गांव से कुछ ही दूरी पर बसे एक दूसरे गांव, बैजू भगत का टोला में पुनीता का पूरा परिवार अपनी छत पर चला तो गया, पर उसका पांच वर्षीय पुत्र रात के अंधेरे में कब कैसे छत से नीचे गहरे पानी में गिर मौत की नींद सो गया, इसे थकान की गहरी नींद में बेसुध पड़ा परिवार जान भी न सका.
फिर तो उसकी लाश भी कभी नहीं मिली. इस जिले में गंडक की गोद में बसी आबादी द्वारा बहादुरी से बाढ़ का सामना करने की बड़ी बातों के सीने में सिली ऐसी ही अनेक करुण कहानियों का दर्द उजागर भी नहीं हो पाता. वैवाहिक संबंधों की डोर से इस अभिशप्त इलाके में पहुंच जानेवाली महिलाएं जब यहां की भयावहता से परिचित होती हैं, तो उनकी एक ही प्रतक्रियिा होती है कि उन्हें उनके परिजनों ने कुएं में धकेल दिया. इस दियारे की क्रूर, कठिन जिंदगी में न केवल बाढ़ से, बल्कि भागते-छिपते डकैतों से, बीमारियों और जंगली जानवरों से अपनी और अपनी फसलों की रक्षा का दारोमदार अंततः महिलाओं के ही सिर आता है, क्योंकि घर के पुरुष तो प्रायः प्रवासी ही होते हैं. यहां की महिलाएं बताती हैं कि बाढ़ के वक्त सबसे कठिन समस्या शौच की होती है, जब बैठने को कहीं भी सूखी जमीन मयस्सर नहीं होती. ये महिलाएं तब अधिकतर या तो भूखे पेट रह जाया करती हैं या फिर उतना ही खाती हैं कि बस जान बची रहे. ‘काश, सरकार हमें लीलने को भागती आती बाढ़ की सिर्फ पूर्वसूचना ही दे दिया करती,’ तेलुआ गांव की गंगा सैनी बताती है. बड़े-बड़े आंकड़ों की दुर्बोध भाषा में लिखी वज्ञिप्तियां रेडियो पर ऊंचे वेव लेंग्थ की सुरक्षित दूरियों से ग्रामीणों को केवल यही बताती हैं कि ऊंचाइयों पर स्थित गंडक बराज से कितना ‘क्यूसेक’ पानी छोड़ा जा रहा है.
पर इसके नतीजे में पानी की कितनी ऊंची दीवार उन तक पहुंचेगी या फिर वह उन्हें बख्श देगी, यह अनुमान लगाने की जम्मिेवारी ग्रामीणों के ही मत्थे छोड़ दी जाती है. यदि किसी घर में प्रवास से बचे किसी पुरुष द्वारा किसी भी तरह यह सूचना बाहर से न लायी जा सकी हो, तो महिलाएं उन्हें घेरती आती बाढ़ से अधिकतर अनजान ही रह जाती हैं, क्योंकि सूचनाओं का दायरा तो दियारे से दूर रहनेवाले उन पढ़े-लिखे पुरुषों की पहुंच तक ही सिमटा रहता है, जो अखबारों, रेडियो तथा टेलीविजन की जद में आते हैं. सरकारी उपेक्षा की शिकार बन इन महिलाओं ने कई अन्य उपाय अपना रखे हैं, जिसमें मोबाइल फोन एक बड़ा सहारा बन उन्हें स्थानीय चिकित्सकोंऔर नाविकों से सुगम संपर्क की सुविधा देने लगा है. ‘वक्त अब बदल गया है,’ इन गांवों की बड़ी-बूढ़ी महिलाओं की चकित प्रतिक्रियाहोती है. वक्त सचमुच बदल गया है, पर इन महिलाओं के मामले में उसकी रफ्तार बहुत धीमी है. इस महीने भी गंडक में बाढ़ है और अब तक वह 800 घर डुबो चुकी है. प्रत्येक डूबे घर के पीछे संघर्ष तथा नुकसान की एक कहानी है, जो कभी राष्ट्रीय चर्चा का हिस्सा नहीं बन सकेगी, क्योंकि उसे तो दिल्ली तथा गुरुग्राम के जलजमाव, ट्रैफिक जाम और शहरी की मुसीबतों ने डुबो रखा है. गंडक के बाढ़ क्षेत्र की महिलाएं गुमनामी के एक और साल की तैयारी में लगी हैं.
(लेखक स्वतंत्र शोधार्थी हैं)