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दलित नेता जिग्नेश मेवाणी में ख़ास क्या है?

अंकुर जैन अहमदाबाद से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए "बस इतनी समझ दे परवरदिगार, जब भी जहां भी सुख मिले तब सबका विचार दे, दुनिया में कइयों का ऋणी हूँ मैं ‘मरीज़’, चुकाना है सभी का कर्ज़ जो अल्लाह उधार दे.." ये लाइनें हैं जाने-माने गुजराती कवि मरीज़ की, जिन्होंने 35 साल के जिग्नेश […]

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"बस इतनी समझ दे परवरदिगार, जब भी जहां भी सुख मिले तब सबका विचार दे, दुनिया में कइयों का ऋणी हूँ मैं ‘मरीज़’, चुकाना है सभी का कर्ज़ जो अल्लाह उधार दे.."

ये लाइनें हैं जाने-माने गुजराती कवि मरीज़ की, जिन्होंने 35 साल के जिग्नेश मेवाणी को बहुत प्रभावित किया है.

जिग्नेश गुजरात में पिछले कुछ हफ़्तों से चल रहे दलित आंदोलन का चेहरा हैं. गुजरात के वेरावल में दलितों की पिटाई के बाद भड़के दलित आंदोलन का नेतृत्व जिग्नेश ही कर रहे हैं.

पत्रकार, वकील फिर कार्यकर्ता और अब नेता बने मेवाणी ने कवि मरीज़ की ज़िंदगी, उनके परिवार की जानकारी और उनके ख़ोए हुए काम को ख़ोजने और जुटाने में कई साल बिताए हैं.

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मेवाणी तब अचानक सुर्खियों में आए जब उन्होंने वेरावल में उना वाली घटना के बाद घोषणा की कि ‘अब दलित लोग समाज के लिए ”गंदा काम" नहीं करेंगे,’ यानी मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकाला, मैला ढोना आदि…

1980 में गुजरात के मेहसाना में जन्मे मेवाणी इन दिनों मेघानीनगर में रह रहे हैं. यह अहमदाबाद का दलित बहुल इलाक़ा है. उनके पिता नगर निगम के कर्मचारी थे और अब रिटायर हो चुके हैं.

ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी की ‘दांडी यात्रा’ से प्रेरणा लेते हुए उन्होंने दलितों की यात्रा का आयोजन किया और उसे नाम दिया "दलित अस्मिता यात्रा."

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अहमदाबाद से शुरू हुई इस यात्रा में उस समय 100 से अधिक लोग उनके साथ थे.

मेवाणी कहते हैं, "गांधी जी ने अपनी यात्रा के लिए लोगों का चयन किया था, ठीक वैसा ही मैंने किया है. हम जिस भी गांव से गुज़रे, हज़ारों लोगों ने स्वागत किया. मैंने उन हज़ारों लोगों को शपथ दिलाई कि अब वे मरे हुए जानवरों को नहीं उठाएंगे और सरकार से अपने लिए दूसरे काम की बात करेंगे."

हज़ारों दलित और मुस्लिम कार्यकर्ताओं के साथ रविवार को मेवाणी उना पहुँचे. 70वें स्वतंत्रता दिवस पर उन्होंने उना के दलित पीड़ितों के साथ तिरंगा झंडा फहराया.

पिछले दो दशकों से गुजरात में नेताओं की कुछ कमी दिखती रही है. कांग्रेस का तो राज्य में जैसे कोई चेहरा ही नहीं है और गुजरात और गुजराती सिर्फ़ एक नेता को जानते हैं- नरेंद्र मोदी.

2015 में हार्दिक पटेल आए, पाटीदार नेता बने और आरक्षण मांगा. उनके समर्थन में लाखों लोग आए. मगर मेवाणी एक अलग मक़सद और योजना से आए हैं.

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मेवाणी को कॉलेज में पढ़ा चुके प्रोफ़ेसर और कार्यकर्ता संजय भवे कहते हैं, ”उन्होंने स्टालिन से लेकर चर्चिल और गांधी से लेकर अंबेडकर तक को पढ़ा है. किसी ने उन्हें प्रभावित नहीं किया. वो एक जोशीले और जिज्ञासु आत्मा हैं. दलित समुदाय की जो आवश्यकता है, उसे पूरा करने के लिए उनके पास न केवल सामग्री है बल्कि उत्साह भी है.”

भवे आगे कहते हैं, "मवाणी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी, गुजराती और हिंदी में बात कर सकते हैं. मैंने कोई ऐसा गुजराती नेता नहीं देखा जो यह दावा कर सके कि उसे तीनों भाषाओं में महारथ हासिल हो."

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आंदोलन को सिर्फ़ दलित एक्टिविस्टों का समर्थन ही नहीं बल्कि देश के कई मुस्लिम एक्टिविस्टों और नागरिकों का भी समर्थन मिल रहा है.

मुसलमानों और दलितों के साथ आने से बीजेपी में चिंता बढ़ गई है.

स्तंभकार और लेखक उरविश कोठारी जिन्होंने ‘मरीज़’ का काम ढूंढने में मेवाणी की काफी मदद की है, कहते हैं ”वह कवि मरीज़ के साथ आगे बढ़ रहा है. उसने खोए हुए मरीज़ की निज़ी जिंदगी को ढूंढने में कई वर्ष लगाए हैं. वह जल्दी ही मरीज़ पर लिखी अपनी किताब को प्रकाशित करेंगे.’

चार साल पत्रकारिता के बाद मेवाणी एक्टिविस्ट बने. उन्होंने लॉ कॉलेज में प्रवेश लिया और अब गुजरात उच्च न्यायालय में पेशेवर वकील हैं. उनकी दायर कई पिटीशन में उन्होंने सरकार से भूमिहीन दलितों को भूमि देने की बात कही है.

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उन्होंने दिवंगत वकील और एक्टीविस्ट मुकुल सिन्हा के ”जन संघर्ष मंच” को भी ज्वाइन किया और दंगा पीड़ितों और वर्कर यूनियन के लिए भी लड़ाई लड़ी. बाद में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता बने.

पाटीदार आंदोलन के बाद ‘आप’ ने गुजरात में अपनी भूमिका साफ़ नहीं की थी, लेकिन जैसे ही पटेलों का समर्थन मिला अरविंद केजरीवाल ने गुजरात राजनीति में अपनी मंशा साफ़ कर दी थी.

लेकिन बिना स्थानीय चेहरे के ‘आप’ यहां कुछ नहीं कर सकते.

कुछ जानकारों का मानना है कि 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मेवाणी आम आदमी पार्टी का नेतृत्व कर सकते हैं.

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