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यही मेरा अस्तित्व है, एक क़ैदी का : इरोम

वंदना बीबीसी संवाददाता, इंफ़ाल, मणिपुर 16 साल का लंबा इंतज़ार आज ख़त्म हो रहा है. आख़िरकर इरोम शर्मिला चानू आज सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून के ख़िलाफ़ अपनी भूख हड़ताल तोड़ देंगी. 5 नवंबर सन 2000 वो आख़िरी दिन था जब इरोम ने खाने का स्वाद चखा था. इंफ़ाल के मालोम गाँव में 10 लोगों के […]

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16 साल का लंबा इंतज़ार आज ख़त्म हो रहा है. आख़िरकर इरोम शर्मिला चानू आज सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून के ख़िलाफ़ अपनी भूख हड़ताल तोड़ देंगी.

5 नवंबर सन 2000 वो आख़िरी दिन था जब इरोम ने खाने का स्वाद चखा था. इंफ़ाल के मालोम गाँव में 10 लोगों के मारे जाने के बाद इरोम ने तब तक खाना न खाने की क़स्म खाई थी जब तक कि ये कानून ख़त्म नहीं कर दिया जाता.

इरोम ने अभी अपने परिवार तक से अपने फ़ैसले के बारे में बात नहीं की है. मानवाधिकार बबूल लोइटोंगबम उन चंद लोगों में से हैं जो अस्पताल में नज़रबंद शर्मिला से उनके नए फ़ैसले के बारे में उनसे थोड़ी बहुत बात कर पाए हैं.

वो बताते हैं, "इरोम को सुबह अस्पताल से 15 मिनट के लिए बाहर आने देते हैं ताकि उन्हें धूप मिल सके. उसी 15 मिनट में कुछ दिन पहले मैं भी अस्पताल पहुँचा, इरोम ने बताया कि वो चाहती तो उसी दिन भूख हड़ताल ख़त्म कर सकती थीं."

"लेकिन वो सबको समय देना चाहती थीं ताकि जान सकें कि लोग उनके फ़ैसले पर क्या राय देते हैं. तभी गार्ड ने कहा 15 मिनट का समय ख़त्म हुआ."

बबलू ने बताया, "इरोम ने जाते-जाते भावुक होकर बस इतना कहा कि देखो यही मेरा अस्तित्व है, एक क़ैदी का. तुम लोग समझ सकते होगे कि मैं कैसे जी रही हूँ."

पिछले 16 सालों से इरोम को हर 15 दिन पर इंफ़ाल अस्पताल के जेल वार्ड से कोर्ट ले जाया जाता है, जज उनसे पूछते हैं: क्या वो भूख हड़ताल तोड़ंगी? हर बार उनका जवाब होता था नहीं. लेकिन आज ऐसा नहीं होगा.

जज को जवाब देने के बाद वो अपनी भूख हड़ताल तोड़ने का इरादा रखती हैं.

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हालांकि उनकी लड़ाई में बरसों से उनका साथ दे रही मोमोन लाइमा जैसी महिलाएँ इरोम के फ़ैसले से ख़फ़ा हैं.

वो कहती हैं, "इरोम शर्मिला ने हमसे एक बार भी बात नहीं की भूख हड़ताल तोड़ने का फैसला करने से पहले. ये दुर्भाग्यपूर्ण है, मणिपुर के लिए, हमारे लिए. हम तो उनकी माँ की तरह हैं. हमने बरसों से उसका साथ दिया. वो बहुत असाधारण हैं लेकिन अचानक ये फ़ैसला क्यों?"

शहर में मीडियावालों, कार्यकर्ताओं की भीड़ है पर फिर भी एक अजीब सा सन्नाटा है. इसी सन्नाटे में इरोम के लिए आवाज़ें भी सुनाई दे जाती हैं.

मणिपुर विश्वविद्वालय की कुछ छात्राओं ने अपनी बात रखते हुए कहा, 16 साल बहुत लंबा वक़्त होता है.

"आख़िर इरोम की भी कुछ ख्वाहिशें होंगी. हमें एक दिन अच्छा खाना न मिले तो हम शिकायत करने लगती हैं. इरोम क्यों न चुनाव लड़े, क्यों न शादी करें?"

ख़ैर आज का दिन इरोम के लिए बड़ा बदलाव लेकर आएगा. हमेशा उनके नाक से लगी रहने वाली नली की अब उनको शायद ज़रूरत नहीं होगी.

जब भी वो रिहा होंगी तो धूप लेने के लिए उन्हें अस्पताल से मोहलत में मिले 15 मिनटों का इंतज़ार नहीं करना होगा.

वो अपनों से कोर्ट के साये से परे मिल सकेंगी.

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इन अपनों में उनकी माँ शामिल होंगी या नहीं ये किसी को मालूम नहीं.

इरोम की माँ ने अफ़्सपा ख़त्म न होने तक बेटी से न मिलने की कसम जो खाई हुई है.

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