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सरकार ने नहीं पूछा, तो पहाड़ काट कर बना लिया रास्ता

जहां हुआ था नरसंहार, उसी इमली के पेड़ के नीचे बोया विकास का बीज अमकूदर से लौट कर जीवेश jivesh.singh@prabhatkhabar.in एकीकृत बिहार के बड़े नरसंहारों में एक अमकूदर नरसंहार (छह सितंबर 1997), जिसमें एमसीसी ने भाकपा माले के बड़े पदाधिकारियों सहित 10 सदस्यों को मार डाला था, को अब याद भी नहीं करना चाहते अमकूदर […]

जहां हुआ था नरसंहार, उसी इमली के पेड़ के नीचे बोया विकास का बीज
अमकूदर से लौट कर
जीवेश
jivesh.singh@prabhatkhabar.in
एकीकृत बिहार के बड़े नरसंहारों में एक अमकूदर नरसंहार (छह सितंबर 1997), जिसमें एमसीसी ने भाकपा माले के बड़े पदाधिकारियों सहित 10 सदस्यों को मार डाला था, को अब याद भी नहीं करना चाहते अमकूदर के लोग. वे यह भी भूल गये हैं कि नरसंहार के बाद एक साथ 10 लाशें देख तत्कालीन विधायक महेंद्र सिंह भोक्ता की हृदय गति रुक गयी थी. अब तो गांव के लोग न खुद चर्चा करते हैं और न ही किसी को करने देते. हालात के आगे घुटने टेकने की जगह खुद राह बनाने व कलंकगाथा से दूर होने की जिद्द में हैं अमकूदरवासी.
शासन-प्रशासन व राजनीतिज्ञों की उपेक्षा ने उन्हें और ज्यादा मजबूत बना दिया है. वे अब रोने की जगह खुद राह गढ़ने में लगे हैं. इसके लिए न सिर्फ गांव में चौड़ी पगडंडी बनायी, बल्कि रास्ते में पड़नेवाले गड़िया पहाड़ का भी सीना चीर चार किलोमीटर रास्ता बना डाला. जीने की जिद्द व विकास की ऐसी भूख की पड़ोस के उस गांव (गड़िया) के लोगों को भी गले लगा लिया, जिनके कारण नरसंहार हुआ था. गांव के उसी इमली पेड़ के नीचे बैठक हुई, जहां 10 लाशें गिरी थीं. बैठक का नेतृत्व अमकूदर के जुगेश्वर सिंह भोक्ता व गड़िया गांव के बालेश्वर यादव ने किया. बैठक में आसपास के गांव पथेल, बनियाबांध, नारे, बघमरी, पंचखेरी व सीकीर के लोग भी शामिल हुए. 2006 में हुई इस बैठक में तय हुआ कि आपसी रंजिश मिटा सब मिल कर काम करें.
फिर सबने मिल पहाड़ पर सड़क बनने की शुरुआत की. सैकड़ों लोगों ने लगातार मेहनत कर 2013 तक ट्रैक्टर आने-जाने लायक राह बना डाली. यह भी तय हुआ कि हर साल बरसात के बाद खराब हुई सड़क की सब मिल कर मरम्मत करेंगे. यह काम आज भी जारी है.
जुगेश्वर सिंह भोक्ता बताते हैं : पहले हर साल पहाड़ पार करने व अन्य कारणों से कई लोगों की मौत हो जाती थी, अब संख्या कम हुई है. गांव के तीन लड़के सेजल कुमार, खीरू सिंह व रामवृक्ष सिंह मैट्रिक पास हैं. हाल ही में पहली इंटर पास बहू देवंती कुमारी आयी है, वह गांव के बच्चों को पढ़ाती है.
गांव में एक प्राथमिक स्कूल भी है. उसके लिए दो भवन बने हैं, पर पढ़ाने शिक्षक ही नहीं आते. इस बात का लोगों को अफसोस है़ वे कहते हैं कि सरकार ही नहीं चाहती कि गांव के बच्चे मुख्यधारा में जुड़ें. सरकारी सुविधाओं की चर्चा की जगह वे बताते हैं कि किस तरह से गांव होकर गुजरी डारो नदी के पानी से दो-तीन फसल पैदा करने की कोशिश करते हैं. गांव की बुजुर्ग महिलाओं को इस बात का दुख जरूर है कि वे शादी के बाद पैदल ससुराल अमकूदर आयीं थी और अब वर्षों बाद भी उनकी बेटी, पोती या बहू भी मोटरसाइकिल, साइकिल या ट्रैक्टर से आ-जा रही.
किशन जी ने की थी बैठक
पहाड़ से घिरे इस गांव से महज सात किलोमीटर दूर है कौलेश्वरी पहाड़. 2004 में यहां किशनजी ने बैठक की थी. आज भी माओवादी व टीपीसी के लोग आते हैं. बैठक करते हैं और चले जाते हैं. गांववालों को किसी से मतलब नहीं होता, पर दोनों की जय बोलना उनकी मजबूरी है.
क्या हुआ था अमकूदर में
अमकूदर में गया जिले के कदल बरसुली के गड़र सिंह की लगभग एक एकड़ जमीन थी. वह उसे बेचना चाहते थे. अमकूदर के लोगों का कहना था कि उनके गांव की जमीन है, इस कारण उनका पहले खरीदने का हक बनता है. पर गड़र सिंह ने उस जमीन को बगल के गांव गड़िया के बदरी यादव के बेटा रामधनी यादव को बेच दिया. इस कारण जमीन पर विवाद हो गया था. उस समय गांव में भाकपा माले का दबदबा था. गांव के लोग उनकी सभा में जाते रहते थे. इस बात की जानकारी जब माले के लोगों को लगी, तो उन लोगों ने गांव के लोगों के समर्थन में अमकूदर में छह सितंबर 1997 को सभा का आयोजन किया. इमली के पेड़ के नीचे सभा चल रही थी. इसी दौरान शाम चार बजे एमसीसी (तब संगठन का नाम एमसीसी था) ने चारों तरफ से सभास्थल पर हमला कर दिया.
इसी बीच तेज बारिश शुरू हो गयी. बारिश व गोलीबारी के बीच मची भगदड़ का लाभ उठा ग्रामीण भाग निकले. एमसीसी के लोगों ने घेर कर माले के पदाधिकारियों सहित 10 सदस्यों को मार डाला. गांव के एकमात्र ग्रामीण विशुनदेव सिंह भोक्ता के हाथ में गोली लगी थी. इस दौरान जिनकी मौत हुई थी, उनमें शामिल थे भाकपा माले के जिला कमेटी सचिव झमन सिंह भोक्ता, जिला कमेटी सदस्य लक्ष्मी दांगी, विजय दांगी, कारू सिंह भोक्ता, ननकू सिंह भोक्ता, भुवनेश्वर सिंह भोक्ता, माघा सिंह भोक्ता, विशुनधारी सिंह भोक्ता, रामेश्वर भुइंया व एक अन्य. जब सबकी लाश जिला मुख्यालय लायी गयी, तो वहां तत्कालीन विधायक महेंद्र सिंह भोक्ता पहुंचे. एक साथ इतने शव देख उन्हें गहरा आघात लगा और उनकी हृदयगति रुक गयी, जिससे उनकी मौत हो गयी. घटना के चार माह बाद प्रतिशोध में जमीन खरीदनेवाले रामधनी यादव के पिता बदरी यादव को माले के लोग उठा कर ले गये. बाद में उनकी लाश मिली.
जमीन की बिक्री में गवाह बने गांव के ही मेघन सिंह भोक्ता पर आरोप लगा कि उन्होंने एमसीसी के लोगों को बुलाया था. उनका घर तोड़ दिया गया. पुलिस लगातार उन्हें खोजती रही. पांच साल तक वे अपने परिवार के साथ बाहर छुप कर रहे. नरसंहार के मामले में 30 अप्रैल 2012 को पूर्व एरिया कमांडर बुधन गंझू को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी.
तब सबने पूछा, पर किया कुछ नहीं
गांव के लोगों को इस बात का दुख है कि नरसंहार के बाद उनके गांव पर कलंक का टीका लग गया. उनके अनुसार गांव का एक भी आदमी इस मामले में शामिल नहीं था. सब मेहनतकश हैं और शांति से जीना चाहते हैं, पर बहुत दिनों तक लोग उनसे डरते थे. गांव के लोग बताते हैं कि नरसंहार के बाद बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं, तो लगा कि गांव का कुछ भला होगा, पर हुआ कुछ नहीं. आज भी गांव में कोई सुविधा नहीं.
इसका जवाब कौैन देगा
गांव में बाहर से आया व्यक्ति देख गांव के लोग दंग थे. वे हमें उसी टीले पर ले गये, जहां नरसंहार हुआ था. वहां उन लोगों ने व्यवस्था से जुड़े कई ऐसे सवाल किये, जिनका जवाब हमारे पास नहीं था, पर सवाल जायज थे.
– क्यों नहीं कोई सरकारी अधिकारी-कर्मचारी इलाके में आता
– क्या गांव में रहने से कोई उग्रवादी हो जाता है, अगर नहीं तो हमें भय या उपेक्षा की निगाह से क्यों देखा जाता है
– हमारे बच्चे क्यों नहीं पढ़ें, क्यों स्कूल नहीं खुलता या सुविधाएं नहीं मिलती
– करमा मोड़ से गड़िया पहाड़ होते हुए बिहार बॉर्डर तक सड़क बननी थी. कोडरमा के अनिल पांडेय को ठेका मिला था. 2008 में काम भी शुरू हुआ. फिर पहले माओवादियों ने, फिर टीपीसी ने काम रुकवा दिया. काम आज तक शुरू नहीं हुआ. ठेकेदार भी भाग गया. अब सड़क अधूरी है.
– अगर सरकार को ध्यान नहीं देना तो गांव पर बुलडोजर चलवा दे और सबको बाहर जीने का साधन मुहैया कराये, या फिर गांव में सुविधा दे.
(साथ में चतरा से दीनबंधू, कान्हाचट्टी से सीताराम व तसवीर रवि की.)
चतरा से 22 िकमी दूर कान्हाचट्टी प्रखंड मुख्यालय से 25 िकमी दूर गड़िया व कोठिनो पहाड़ की गोद में बसा है अमकूदर. बेंगोकला पंचायत के 70 घरवाले इस गांव की आबादी लगभग 300 है. एक घर भुइयां और सभी लोग भोक्ता जाति के हैं. प्राकृतिक सौंदर्य से पूर्ण चारों -ओर से पहाड़ से घिरे व डारो नदी के किनारे बसे इस गांव में आज भी कोई सुविधा नहीं.
बाहरी दुनिया से उनका नाता तभी जुड़ता है, जब वे 14 किलोमीटर पैदल चल बाहर केंदुआसोर आते हैं. केंदुआसोर से सुबह में एक छोटी गाड़ी खुलती है. वही गाड़ी शाम में उधर से वापस लौटती है. अगर यह गाड़ी छूट गयी, तो फिर कोई दूसरी गाड़ी नहीं. बिहार-झारखंड के बॉर्डर पर बसे इस गांव से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर जीटी रोड है.
गांववालों के अनुसार उधर से भी सिकिद गांव होकर आना-जाना करते हैं. यह सड़क भी बन जाये, तो लोगों का जीवन बदल जाये. चुनाव के समय में बगल के गांव गड़िया में बूथ निर्धारित किया जाता है, पर सुरक्षा कारणों से कभी वहां वोट नहीं पड़ा. वोट देने सभी 14 किलोमीटर दूर केंदुआसोर के प्राथमिक विद्यालय आते हैं. जब तक पहाड़ को उन लोगों ने काटा नहीं था, तब तक वोट देने मुश्किल से कुछ ही लोग आ पाते थे.

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