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‘ग्लोबल’ दुनिया में छात्र

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया ‘ग्लोबल’ दुनिया तेजी से नयी मान्यताओं को परिभाषित और स्थापित कर रही है. अपराजेय भाव से पांव पसारती यह दुनिया जिन मूल्यों और विचारों को सामने ला रही है, उससे अब कोई अछूता नहीं है. कहा जाता रहा है कि छात्र देश के कर्णधार होते […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
‘ग्लोबल’ दुनिया तेजी से नयी मान्यताओं को परिभाषित और स्थापित कर रही है. अपराजेय भाव से पांव पसारती यह दुनिया जिन मूल्यों और विचारों को सामने ला रही है, उससे अब कोई अछूता नहीं है. कहा जाता रहा है कि छात्र देश के कर्णधार होते हैं. यह अब भी कहा जाता है, लेकिन बदले हुए स्वर में, क्योंकि ‘ग्लोबल’ दुनिया में देश का मतलब ‘संप्रभुतायुक्त’ देश नहीं, बल्कि ‘संप्रभुताहीन’ देश से है. संप्रभुता की बातें ‘ग्लोबल’ दुनिया यानी बाजार की दुनिया को स्वीकार्य नहीं है.
आज कोई देश का कर्णधार तभी है, जब तक कि वह इस बाजार नियंत्रित ‘देश’ पर सवाल नहीं खड़ा करता है. आज आदर्श छात्र का मतलब सवाल खड़ा करना नहीं, बल्कि चुपचाप अनुचर बनते जाना है. आज महंगाई को लेकर सड़क पर उतरनेवाले छात्र, स्कॉलरशिप को लेकर धरना-प्रदर्शन करनेवाले छात्र या जनहित के लिए प्रदर्शन करनेवाले छात्र आदर्श छात्र नहीं कहलाते. इन्हें तुरंत सीख दे दी जाती है- ‘पढ़ाई करो, राजनीति नहीं’. लेकिन, सवाल यह है कि क्या छात्र जीवन को प्रभावित करनेवाला तंत्र या संपूर्ण शिक्षा तंत्र राजनीति से विछिन्न है? क्या लोकतंत्र में किसी भी समुदाय को अपना राजनीतिक पक्ष रखने अधिकार नहीं है?
जब जेएनयू प्रकरण को लेकर राजनीति गरम थी, तब भी कहा गया कि ‘छात्रों को राजनीति नहीं करनी चाहिए’, ‘राजनीति की बात करनेवाले छात्र नहीं हो सकते’. साथ ही, जेएनयू छात्र संघ और उसके अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ दुष्प्रचार किया जा रहा था. दरअसल, हाल के दिनों में छात्र समुदाय ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है और इस बहस को तेज किया है. जेपी आंदोलन के लंबे अंतराल के बाद हाल के दिनों में छात्र आंदोलनों का उभार फिर से हुआ है. वह दौर एक राष्ट्रीय पार्टी का अतिवादी दौर था, तो यह दूसरी का.
चूंकि, मोदी सरकार पर हिंदुत्व और कॉरपोरेट, दोनों को साधने के आरोप लग रहे हैं, इसलिए आज के छात्र आंदोलन में इन दोनों का विरोध शामिल है. कट्टरपंथी हिंदुत्व और मुनाफाखोर कॉरपोरेट, दोनों ही आम जन के लिए हितकारी नहीं हैं. इन दोनों का प्रतिरोध छात्रों के आंदोलन- ‘रोहित वेमुला प्रकरण’ और ‘ऑक्युपाइ यूजीसी मूवमेंट’- के रूप में सामने आया. रोहित वेमुला प्रकरण हमारे समाज में जड़ जमा चुके ब्राह्मणवाद का प्रतिबिंब है. इस प्रकरण का संबंध हिंदुत्व की राजनीति से भी है. दलित छात्र संगठन तो लंबे समय से ब्राह्मणवादी मानसिकता के विरुद्ध संघर्षरत हैं. चूंकि, हिंदुत्व की राजनीति वर्णव्यवस्था की पुनर्स्थापना चाहती है और ‘वर्ण’ आधारित व्यवस्था में कभी दलितों को सम्मान नहीं मिला है, ऐसे में दलित समुदाय की ओर से उसका प्रतिरोध स्वाभाविक है. आज इस संघर्ष में कई प्रगतिशील छात्र संगठन भी शामिल हो रहे हैं.
दूसरी ओर, ‘ऑक्युपाइ यूजीसी मूवमेंट’ विदेशी निवेश और शिक्षा को बाजार के हाथ में सौंपने की कार्यवाही के विरोध का प्रतिफलन था. एफडीआइ की समर्थक सरकार शिक्षा को भी मुक्त भाव से बाजार को सौंप देना चाहती है. यदि शिक्षा को पूरी तरह बाजार के हाथ में सौंप दिया गया, तो बाजार शिक्षा के सामाजिक दायित्व को चौपट कर देगा, साथ ही शिक्षा को आम जन से दूर कर देगा. आज भी हमारे देश में इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट के क्षेत्र में सरकारी कॉलेजों की कमी है. इस कमी को निजी संस्थान ही पूरा करते हैं, जो छात्रों से भारी फीस वसूल रहे हैं.
इसका दुष्परिणाम यह है कि आम छात्रों से तकनीक और प्रबंधन की पढ़ाई दूर है. एक औसत आय वाले छात्र के लिए डेढ़-दो लाख रुपये प्रति सेमेस्टर फीस देना मुश्किल है. जब शिक्षा पूरी तरह बाजार के हाथ में चली जायेगी, तब स्थिति और भी विकराल होगी. मुनाफा आधारित शिक्षा व्यवस्था वैसे क्षेत्रों में निवेश नहीं करेगी, जहां लाभ की संभावना नहीं है.
यदि छात्र समुदाय इस वास्तविकता से परिचित है और इस पर सवाल कर रहा है, तो यह कौन-सा अपराध हुआ? यदि वह छात्र हित के लिए प्रतिरोध मार्च में शामिल होता है, तो यह देश के लिए अहितकारी कैसे हुआ? यह जनता के टैक्स से मिलनेवाले अनुदान के दुरुपयोग की बात कैसे हो गयी? विश्वविद्यालयों में सीट कटौती और फीस में वृद्धि की साजिश को छात्र समुदाय उजागर नहीं करेगा, तो और कौन करेगा?
संवैधानिक मूल्यों का हनन, सामाजिक और लैंगिक असमानता, जातीय भेदभाव, सत्ता और कॉरपोरेट की खुली लूट हमारे समाज की वास्तविकता है. अगर छात्र समुदाय इन मुद्दों पर सवाल करता है, तो यह जनता के लिए सकारात्मक संकेत होना चाहिए कि उनके बच्चे जनविरोधी होने और जनपक्षीय होने का फर्क समझते हैं. हां, यह सत्ताधारियों के लिए परेशानी का सबब हो सकता है, क्योंकि, वह अक्सर यह मान लेते हैं कि वह सत्ता में हैं तो वह ही देश के पर्याय हैं. सत्ता के गलत निर्णयों के विरोध को वह देश का विरोध मान कर प्रचारित करते हैं. छात्र, किसान, मजदूर और श्रमिक समुदाय ही सत्ता के इस भ्रम को तोड़ते हैं.
कैरियर छात्रों के जीवन से जुड़ा अहम सवाल है, लेकिन कैरियर हासिल कर आत्मनिष्ठ हो जाने से देश और समाज का भविष्य संवरनेवाला नहीं है. छात्रों को देश, समाज और उससे जुड़ी हुई सभी प्रक्रियाओं पर सजग होकर नजर रखने की जरूरत है, क्योंकि उसका सीधा संबंध उनके जीवन और कैरियर से भी है. एक लोकतांत्रिक देश में नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में छात्रों को भी शामिल होना है. यह छात्र राजनीति द्वारा ही संभव है. पिछले दशकों में छात्र राजनीति के नाम पर खूब गुंडागर्दी भी हुई है. इससे अराजकता का डर भी पैदा हुआ है.
लेकिन, वह छात्र राजनीति का वास्तविक रास्ता नहीं है. छात्रों को सामाजिक मुद्दों और जनहित को अपने आंदोलन का वैचारिक आधार बनाना होगा. इस मामले में जेएनयू छात्र संघ ने जो उदाहरण पेश किया है, वह एक मिसाल है. छात्र समुदाय को देश और समाज के संघर्ष के साथ गंभीरता से जुड़ना होगा, क्योंकि जनपक्षधर होना ही सही मायने में देश का कर्णधार होना है.

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