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डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की कहानी : क्या वाजपेयी की वजह से स्थापना काल में वे भाजपा में नहीं हुए थे शामिल?

डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की कहानी श्रृंखला में अबतक आपने पढ़ा कि वे कैसे जेपी के बुलावे पर भारत आये, सर्वोदय आंदोलन से जुड़े और फिर वहां से वे आइआइटी, दिल्ली और फिर सक्रिय राजनीति में पहुंचे. जेपी की इंदिरा विरोधी मुहिम के वे एक अहम सूत्रधार बने. हॉर्वर्ड में अहम टॉपिक पर अपना शोध अधूरा […]

डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की कहानी श्रृंखला में अबतक आपने पढ़ा कि वे कैसे जेपी के बुलावे पर भारत आये, सर्वोदय आंदोलन से जुड़े और फिर वहां से वे आइआइटी, दिल्ली और फिर सक्रिय राजनीति में पहुंचे. जेपी की इंदिरा विरोधी मुहिम के वे एक अहम सूत्रधार बने. हॉर्वर्ड में अहम टॉपिक पर अपना शोध अधूरा छोड़ा. पढ़िए उससे आगे की कहानी :

डॉ सुब्रमण्यन स्वामी 1974-75 तक कांग्रेस विरोधी राजनीति के अहम सूत्रधार बन चुके थे. 35-36 साल के युवा स्वामी अपनी उम्र व अनुभव से अधिक प्रभावी भूमिकाएं निभा रहे थे. जेपी ने उन्हें राजनीतिक दलों की नेशनल को-आर्डिनेशन कमेटी का सदस्य बना रखा था. इस रूप में वे अधिक सक्रिय व प्रभावी भूमिकाएं निभा रहे थे और विभिन्न नेताओं को मतभेदों को बावजूद एक मंच पर लाने का प्रयास कर रहे थे. 1974 में वे जेपी-कामराज को मिलवा चुके थे. अब बारी थी जेपी-मोरारजी देसाई की.

25 जून 1975 को इमरजेंसी लगने से एक दिन पहले दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में विपक्ष ने एक विशाल रैली आयोजित की. इसमें जेपी व देसाई को आना था. रैली का समय पांच बजे शाम तय किया गया था. जैसा कि डॉ स्वामी ने अपने आलेख में लिखा है कि जेपी इस समय से असहमत थे, वे चाहते थे कि शाम आठ बजे रैली हो, क्योंकि उस समय गर्मी चरम पर थी. डॉ स्वामी के लेख के अनुसार, दूसरी ओर मोरारजी देसाई जेपी की लेतलतिफी को पसंद नहीं करते थे. मोरारजी समय और अनुशासन के बहुत पक्के थे. ऐसे में डॉ स्वामी पर यह दबाव था कि जेपी समय पर कार्यक्रम में आयें, क्योंकि सबको मालूम था कि वे जेपी के नजदीकी हैं. जेपी के मन में डॉ स्वामी के लिए एक शॉफ्ट कॉर्नर था.

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डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की कहानी : हॉर्वर्ड में भी पश्चिमी पहनावे से नहीं था उनका नाता

दो कद्दावर नेताओं को निकट लाने के रूप में डॉ स्वामी को मोरारजी के निकट जाने का मौका मिला. लेकिन, मोरारजी के सख्त व्यक्तित्व के कारण उनका मित्र बनना डॉ स्वामी जैसे 35 साल के युवा के लिए आसान नहीं था. पर, डॉ स्वामी ने कोशिशें की और अंतत: दोनों दिग्गज नेताओं को मना लिया कि वे एक साथ शाम छह बजे रामलीला मैदान के मंच पर पहुंचें. डॉ स्वामी के मुद्दों का समाधान करने के कौशल से मोराजी देसाई प्रभावित हो गये. उन्होंने रैली में डॉ स्वामी को खुद के साथ बिठाया. डॉ स्वामी ने लिखा है कि मोरारजी की आत्मकथा के वॉल्यूम – 3 में उनकी, जेपी और मेरी एक साथ बैठी तसवीर है.

डॉ स्वामी लिखते हैं कि रैली वाली रात मैं अकेले में जेपी से डिनर पर मिला. जेपी ने डॉ स्वामी से कहा : सैन्य शासन तय है और मैं उसके खिलाफ लड़ूंगा, तुम्हारे पास साहस है और दुनिया भर में तुम्हारे दोस्त हैं, इसलिए तुम विदेश में इस लड़ाई को संगठित करो. डॉ स्वामी लिखते हैं : मैंने उस समय सोचा जेपी अनावश्यक पूर्व सतर्क हैं. पर, वे सही थे. उसी सुबह साढ़े चार बजे एक पुलिसवाला मेरे पास आया और उसने मुझसे कहा कि जेपी गिरफ्तार कर लिये गये हैंऔर आप अपना घर छोड़ दें, नहीं तो आपकी भी गिरफ्तारी हो जायेगी. ऐसे में डॉ स्वामी ने जेपी की पूर्व रात्रि की सलाह को याद किया और सोचा कि वे कितने सही थे. इसके बाद डॉ स्वामी भूमिगत हो गयेऔर एक सिख सरदारकी वेशभूषा में रहे.

इमरजेंसी में डॉ सुब्रमण्यन स्वामी भगोड़ा घोषित कर दिये गये और उनके ऊपर ईनाम घोषित किया गया. डॉ स्वामी ने लिखा है, लेकिन इंदिरा गांधी की पुलिस मुझे पकड़ नहीं पायी. जेपी की अपेक्षाओं के अनुरूप डॉ स्वामी ने इमरजेंसी का पुरजोर विरोध किया.

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डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की कहानी : जेपी से किया था आग्रह फिर से राजनीति में हों सक्रिय

जेपी से इसके बाद डॉ स्वामी की अगली मुलाकात 1977 में हुई. इमरजेंसी के बाद. डॉ स्वामी के लिखे अनुसार, वे 1970 के उलट अब नेशनल हीरो बन गये थे. जब 1977 में डॉ स्वामी मिले तो जेपी उन्हें देख कर काफी खुश हुए. पर, जेपी की लोकप्रियता व व्यस्तता के कारण स्वामी को उनसे बातचीत करने का मौका नहीं मिला. हर ओर भीड़ थी. अब पूर्व सोशलिस्ट से लेकर आरएसएस वाले तक सब उन्हें अपना बता रहे थे. डॉ स्वामी के लिखे अनुसार, जेपी ने मोरारजी को लेकर उनसे शिकायत की, तब फिर वे दोनों नेताओं में मेल-मिलाप की कोशिश में लग गये, लेकिन दोनों ओर ऐसी शक्तियां थीं जो दोनों को एक-दूसरे से दूर खींचरही थीं.

इस दौरान जेपी ने डॉ स्वामी को गांधी शांति प्रतिष्ठान बुलाया, वहां आचार्य कृपलानी भी थे. अंतत: दोनों नेताओं ने प्रधानमंत्री के लिए मोरारजी का नाम चुना न कि जगजीवन राम का. जेपी ने गांधी शांति प्रतिष्ठान में डॉ स्वामी को एक नेता की तरह बिठाया और सबों का नजरिया लिया. डॉ स्वामी लिखते हैं कि उस समय मैंने वास्तविक राजनीतिक शिक्षा प्राप्त की और उस क्षण का गवाह बना. डॉ स्वामी यह भी लिखते हैं कि जेपी इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट थे कि मोरारजी देसाई ही प्रधानमंत्री बनें. ध्यान रहे कि 23 जनवरी 1977 को जेपी ने जनता पार्टी की स्थापना की थी और इसी साल मई में चुनाव हुए थे, जिसमें जनता पार्टी विजयी हुई थी, जो कांग्रेस (ओ), स्वतंत्र पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, जनसंघ, लोकदल और जगजीवन राम की अगुवाई वाले कांग्रेस के धड़े से मिल कर बनी थी और मतभेद उभरने के बाद 19 जुलाई 1979 को देसाई के इस्तीफे के साथ इस पार्टी में विघटन होता गया.

इसके बाद 1979 तक डॉ स्वामी जेपी से यदा-कदा मिलते रहे. दोनों की अंतिम मुलाकात उनकी 1979 में पटना में हुई. तबतक जनता परिवार मेंटूट आ चुका था. जेपी इससे बहुत आहत थे. डॉ स्वामी ने लिखा है कि जेपी ने उनसे कहा कि मेरा सुंदर गार्डन टूटने जा रहा है और वे रो रहे थे. डॉ स्वामी ने लिखा है कि जेपी ने उनकी बांह पर अपनी हथेली रखते हुए कहा कि लेकिन तुम अवश्य नयी पीढ़ी को गतिशील करना, ताकि जनता परिवार का झंडा लहरा सके. डॉ स्वामी के अनुसार, जेपी ने उनसे इसके लिए वादा भी लिया था. डॉ स्वामी ने वादा किया और जब भाजपा बनने लगी तो उसमें नहीं गये. ध्यान रहे कि 1979 में ही आठ अक्तूबर को जेपी का निधन हुआ था.

डॉ स्वामी ने लिखा है कि जब चंद्रशेखर ने उन्हें 1984 में पार्टी से एक्सपेल्ड किया, तब भी वे मौके के इंतजार में रहे कि उनसे वे दोस्ती कर सकें और जनता परिवार में लौट सकें. 1989 तक अमूमन ज्यादातर अहम लोग पार्टी छोड़ गये. यहां तक कि चंद्रशेखर भी इस समय तक जनता दल में चले गये. तब डॉ स्वामी व देवेगौड़ा जनता पार्टी में ही रहे, लेकिन बाद में 1992 में देवेगौड़ा भी जनता पार्टी छोड़ जनता दल में चले गये. डॉ स्वामी ने लिखा है कि जेपी से किये वादे के कारण वे जनता पार्टी में ही रहे और उसे फिर से खड़ा करने की कोशिश करते रहे.

डॉ स्वामी के अनुसार, जेपी ने जनता पार्टी को आदर्श व विकेंद्रीकरण के लिए बनाया था. ऐसे में आज उन्हें लगता है कि जेपी की विजय हुई है और उनके आदर्श व सिद्धांत को हर कोई मानता है. भले ही उनकी जनता पार्टी 1977 की चमक को वापस नहीं पा सकी, लेकिन उनके सिद्धांत हर जगह स्वीकार किये गये यहां तक कि कांग्रेस में भी, जिसका श्रेय राजीव गांधी व नरसिम्हा राव को जाता है. यह सब जेपी के व्यक्तित्व की विराटता को बताता है.

हालांकि इन सब के बीच डॉ स्वामी हिंदुत्ववादी विचारधारा की सबसे प्रबल धारा से किसी न किसी तरह से नजदीक ही रहे. वे आज भी अपने ट्विटर एकाउंट पर वैसे कार्यक्रमों की पूर्व सूचना देते हैं और बहुत सक्रियता व प्रभावशाली ढंग से उसमें शामिल होते हैं. शायद मीडिया इसलिए रिपोर्ट करता है कि उनके द्वारा उठाये गये कदम या मुद्दों को परिवार का समर्थन हासिल है. पर, जनता पार्टी के विघटन के बाद हिंदुत्ववादी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की जब 1980 में स्थापना हो रही थी तो वे उसमें शामिल नहीं हुए. इसका एक कारण तो जेपी और उनके द्वारा स्थापित जनता पार्टी के प्रति उनका आग्रह था और दूसरा कारण अटल बिहारी वाजपेयी से उनके रिश्ते थे.

वाजपेयी से डॉ स्वामी के रिश्ते कभी अनुकूल नहीं रहे. भारतीय जनता पार्टी का गठन वाजपेयी की अगुवाई में हुआ था. डॉ सुब्रमण्यन स्वामी के करीबी जगदीश शेट्टी कहते हैं कि तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बहुत बड़े नेता की सलाह भी एक कारण थी, जिसकी वजह से वे भाजपा में स्थापना के समय नहीं गये, क्योंकि तब के नेतृत्व में भाजपा में उनके लिए परिस्थितियां अनुकूल नहीं थे. डॉ स्वामी को संकेत किया गया कि आप वहां आराम से रह नहीं सकेंगे. उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रमुख बाला साहेब देवरस थे और संघ परिवार उन्हीं के मार्गदर्शन में काम करता था.

डॉ स्वामी के साथ ही अपनी धारा तय करने वाले जगदीश शेट्टी कहते हैं कि 2003-04 में मौका आया जब तत्कालीन संघ प्रमुख केसी सुदर्शन ने उन्हेें (डॉ स्वामी को) कहा कि अब साथ आ जाना चाहिए. यह वह दौर था जब वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के सर्वोच्च व सर्वशक्तिमान नेता की भूमिका से आहिस्ता-आहिस्ता नेपथ्य में जा रहे थे. शासन में भी शक्तिसंतुलन के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी उपप्रधानमंत्री बनाये जा चुके थे.

जगदीश शेट्टी कहते हैं तब सर संघचालक ने राम माधव को वार्ता के लिए भेजा भी था कि अब आ जाइए परिवार के साथ. पर, बात अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंच सकी. बाद में जनता पार्टी एनडीए का घटक बनी और फिर 11 अगस्त 2013 को डॉ सुब्रमण्यन स्वामी की अगुवाई वाली जनता पार्टी का भारतीय जनता पार्टी में विलय हो गया. भाजपा सत्ता में आयी पर डॉ स्वामी को कोई प्रभावी भूमिका नहीं मिली. अलग-अलग मुद्दों पर अपने स्तर पर वे लड़ते रहे. फिर भाजपा ने उन्हें मनोनीत सदस्य के रूप में राज्यसभा भेजा और उसके बाद से वे और अधिक आक्रामक भूमिका में नजर आ रहे हैं, जिसे मीडिया में बनती सुर्खियों के कारण हम सब देख-सुन रहे हैं.

…और जाते-जाते नोबेल की कसक

पर, डॉ स्वामी के हॉर्वर्ड छोड़ने के बाद वे नोबेल पुरस्कार की संभावित दावेदारी से वंचित हो गये. उनके दो साथियों एमआइटी के पॉल सेमुअलसन और हॉर्वर्ड के सिमोन कुजनेट्स को नोबेल मिला. वे दोनों उस समय हॉर्वर्ड में शोध कर रहे थे. हालांकि दोनों उम्र व अनुभव में तब युवा रहे डॉ स्वामी से काफी सीनियर थे, लेकिन वेडॉ स्वामीकी प्रतिभा के कायल थे. दोनों को अर्थशास्त्र का नोबेल मिला. डॉ स्वामी वहां अर्थशास्त्र में थ्योरी ऑफ इंडेक्स पर काम कर रहे थे. डॉ स्वामी ने लिखा है कि सेमुअलसन और सिमोन का कहना था कि अगर तुम (डॉ स्वामी) हॉर्वर्ड नहीं छोड़ते तो तुम्हें इस थ्योरी पर काम पूरा करने पर नोबेल मिलता. शायद इसी कसक के कारण डॉ स्वामी ने 30 जून को एक ट्वीट किया कि अगर मैं सेमुअलसन-स्वामी थ्योरी ऑफ इंडेक्स नंबर को भारतकेजीडीपी कलकुलेशन व आरबीआइ इंटरेस्ट रेट के लिए अप्लॉय करूंगा तो मीडिया पार्टी विरोधी गतिविधि कह कर चिल्ला उठेगा.

नोट : यह आलेख डॉ सुब्रमण्यन स्वामी के आलेख व उनके सहयोगी जगदीश शेट्टी से बातचीत के आधार पर तैयारकिया गया है. इसमें कई अंश डॉ स्वामी के आलेख से लिये गये हैं.

प्रस्तुति : राहुल सिंह

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