-हरिवंश-
कोई भी राजनीतिक कार्यकर्ता यह सोचने-विचारने के लिए राजी नहीं है कि कथित राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पैर मध्य बिहार या पिछड़ों-दलितों के बीच से क्यों उखड़ गये है? मध्य बिहार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत सभी राष्ट्रीय दल शोषकों-सामंतों के प्रवक्ता क्यों बन गये हैं? हिंसा की प्रतिष्ठा पूरे इलाके में क्यों हो रही है? कुख्यात हत्यारों को लोग तारक मान कर क्यों पूज रहे हैं? जब अपराधी पूरे समाज में पूजे जाते हों और प्रतिष्ठित हों, तो ऐसे आत्मघाती सोच से क्या सिर्फ सरकार लड़ पायेगी?
जब तक इन सभी प्रश्नों पर बिहार के सभी वर्ग समान रूप से आंदोलित नहीं होते, तब तक समस्याएं नहीं सुलझनेवाली और न ही नरसंहार रुकनेवाले हैं. बिहार में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जरूरत है और यह सरकार के भरोसे नहीं हो सकता.बिहार के अधिसंख्य नौकरशाह उसी उच्च मध्यम तबके के हिस्से हैं, जो पंजाब या बिहार की ऐसी घटनाओं से उद्वेलित नहीं होते.
यही कारण है कि पिछले दो माह से खाली, खालिसपुर गांव के लोगों को जहानाबाद के स्थानीय शासक पुन: अपने-अपने घरों में लौटने का भरोसा नहीं दिला सके. स्पष्ट है कि खालिसपुर के भुक्तभोगियों की पीड़ा और घर छोड़ने के दर्द से स्थानीय प्रशासक अपने को नहीं जोड़ सके हैं. इस कारण इसे कानून की समस्या मान कर वे फर्ज पूरा करते रहे. अभी तक खालिसपुर के लोग अपने-अपने घरों को बंद कर भागे हुए हैं.
उनकी फसल सड़ गयी है. खेतों से गेहूं की लहलहाती फसल नहीं कट सकी. उस वीरान गांव की सुध न तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को है और न ही किसी दूसरे विरोधी दल को. स्थानीय प्रशासन की विफलता का इससे बड़ा नजीर दूसरा नहीं है. लेकिन बिहार के कथित क्रांतिकारी नेता, जो इस नरसंहार के बाद मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद से इस्तीफे की मांग कर रहे हैं, उनमें से भी कोई उस गांव में नहीं गया वहां कैंप करने, लोगों को भरोसा दिलाने की बात तो दूर रही.
इस नरसंहार के बाद बिहार के मुख्यमंत्री की नोन्हीं-नगवां गांव की यात्रा, संकल्प और सख्त भाषण से लोगों में थोड़ा धीरज बंधा है. एमकेएसएस के एक कार्यकर्ता ने बताया कि मुख्यमंत्री रेलगाड़ी से जहानाबाद आये. स्टेशन पर अगवानी के लिए मौजूद अधिकारियों को फटकारा कि उनका यहां क्या काम है? वे घटनास्थल पर तत्काल जायें, सुरक्षा के लिए पुलिस लेने से मना किया. बगैर तामझाम के वहां पहुंचे.
मारे गये लोगों के हर घर में जा कर अकेले में बातचीत की. महिलाएं भी आजाद का पैर पकड़ कर रोने लगीं. उन्होंने वहां प्राण की बाजी लगा कर भी उग्रवादी हिंसा और सामंती शोषण खत्म करने की घोषणा की. नोन्हीं-नगवां के सभी भू-स्वामियों से सामूहिक जुर्माना वसूलने और हरिजनों को देने की बात कही. इस इलाके के लोगों की बंदूकें जब्त करने और न्यूनतम मजदूरी नहीं देने के आरोप में भू-स्वामियों पर मुकदमा दर्ज करने का निर्देश अधिकारियों को दिया.
पुलिस को सामंतों का आतिथ्य स्वीकार करने के लिए फटकारा और सावधान रहने की चेतावनी दी. मुख्यमंत्री के भाषण और निर्णयों से पिछड़े लोगों की अपेक्षाएं जगी हैं. काम के स्तर पर अगर मुख्यमंत्री की फौज सिफर रहती हैं, तो लोगों की अपेक्षाएं विस्फोटक होंगी. फिर मध्य बिहार में हिंसा रोकना प्रशासनिक बूते के बाहर की बात होगी. मुख्यमंत्री की घोषणाओं से वे कांग्रेसी भी नाराज हैं, जो जातीय उन्माद की आग में रोटी सेंकते हैं.
सबसे पहले तो उन्हें ऐसे कांग्रेसियों और आत्मलीन नौकरशाहों से जूझना होगा. इसके बाद भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के सांसद रामाश्रय प्रसाद सिंह जैसे नकाबपोश जातिवादी नेता हैं, जो अपनी जाति के कुख्यात अपराधियों को खुलेआम संरक्षण देते हैं. इन सबके अतिरिक्त पटना में बैठी कांग्रेस के अंदर सामंतों की जहानाबाद लॉबी और यादव शिरोमणि नेता हैं, जो वोट बैंक खिसकने की दुहाई देकर मुख्यमंत्री को सख्त निर्णय लेने से रोकेंगे.
अरवल नरसंहार के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विंदेश्वेरी दुबे वहां नहीं गये थे. कांग्रेस की जहानाबाद लॉबी के वह प्रवक्ता बन गये थे. पूरे मध्य बिहार में लोग उन्हें सामंती शोषक के पहरेदार मानने लगे थे. इस कारण नोन्हीं में मृतकों के परिवारों को तत्काल मुआवजा और सरकारी सहायता उपलब्ध कराने से लोगों को अचरज हुआ.
रविवार से बातचीत में मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद ने कहा कि भविष्य में ऐसी वारदात न हो, इसके लिए वह कुछ ठोस काम करेंगे. साथ ही आदतन अपराधियों का भी उपचार करेंगे. मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘मैं भूमिहीनों को पट्टा देने में विश्वास नहीं करता, बल्कि कब्जा दिलाने में यकीन करता हूं. मैंने अधिकारियों को कहा है कि वे कब्जा दिलायें या पट्टा वापस ले लें. भूदान की जमीन वितरित कराने के संबंध में भी मैंने निर्मला देशपांडे से बातचीत कर ली है. भूमि हदबंदी कानून का सख्ती से पालन कर मैं सीमा से अधिक भूमि वितरित कराऊंगा.’
नोन्हीं में की गयी घोषणाएं ही मुख्यमंत्री के संकल्प को परखने की कसौटी हैं. संभव है, इस प्रक्रिया में कांग्रेस के पारंपरिक उच्च वर्ग का समर्थन उन्हें न मिले, लेकिन लाखों पिछड़ों के बीच उनका आधार पुख्ता हो सकता है.