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प्रबंधकीय अधिनायकवाद का जन्म

-हरिवंश- जेम्स बर्नहम ने 1941 में एक मशहूर किताब लिखी थी, ‘द मैनेजेरियल रिवोल्यूशन’. इस पुस्तक की अब चर्चा नहीं होती. इस पुस्तक में जेम्स बर्नहम का निष्कर्ष है कि पूंजीवाद का अंत अवश्यंभावी है. लेकिन इसका विकल्प लोकतांत्रिक या साम्यवादी समाज नहीं हैं, बल्कि एक नये किस्म का समाज जनमेगा. यह केंद्रीकृत व व्यवस्थापक […]

-हरिवंश-

जेम्स बर्नहम ने 1941 में एक मशहूर किताब लिखी थी, ‘द मैनेजेरियल रिवोल्यूशन’. इस पुस्तक की अब चर्चा नहीं होती. इस पुस्तक में जेम्स बर्नहम का निष्कर्ष है कि पूंजीवाद का अंत अवश्यंभावी है. लेकिन इसका विकल्प लोकतांत्रिक या साम्यवादी समाज नहीं हैं, बल्कि एक नये किस्म का समाज जनमेगा. यह केंद्रीकृत व व्यवस्थापक वर्ग द्वारा शासित फासिस्ट किस्म का समाज होगा. इस व्यवस्थापकीय समाज (मैनेजेरियल सोसाइटी) में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण हो जायेगा. समाज पर जिन लोगों का कब्जा होगा. उत्पादन के साधनों पर जो लोग काबिज होंगे.

बर्नहम उन्हें ‘टेक्नीशियन नौकरशाह और कार्यपालक’ की संज्ञा देता है. बर्नहम की दृष्टि में ये लोग पूंजीवादी वर्ग का सफाया तो करेंगे ही. श्रमिक वर्ग का भी अस्तित्व मिटा देंगे. यानी इस प्रक्रिया से व्यवस्थापकीय अधिनायकवाद का जन्म होगा. यह समाज दासता पर आधारित एक व्यक्ति स्वातंत्र्य शून्य समाज होगा.

राजीव गांधी की सरकार, वर्तमान समाज और देश के धुंधले भविष्य का इससे स्पष्ट खाका नहीं हो सकता. राजनेताओं और सरकार का जनता से संवाद नहीं है. शस्त्र शक्ति, धन शक्ति और राज शक्ति के नुमाइंदे नीति-निर्धारण के काम में लगे हैं. राजनेताओं का दर्प अनोखा है. क: अन्य: अस्ति सदृश: मया? (मेरे समान दुनिया में कौन है). आंदोलन हो रहे हैं. लोग सत्याग्रह कर रहे हैं. वर्षों से क्रमानुसार लोग भूख-हड़ताल पर पर बैठते हैं. लेकिन संवेदनहीन प्रशासन-सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. पटना सचिवालय से थोड़ी दूर (पुलिस प्रशासन द्वारा निर्धारित लक्ष्मण रेखा के बाहर) राजमार्ग के दोनों ओर अनशन और सत्याग्रह पर हजारों लोग अलग-अलग बैठे हैं. इनमें से कुछ तो वर्षों से यहां जमे हैं.

इन लोगों ने सड़क किनारे ही अलग-अलग झोंपड़ियां बना ली हैं. सबके अलग-अलग बैनर हैं. इनमें बिहार कृषि सहकारी समितियों, शिक्षा आदि विभागों से संबंधित लोग हैं. ये राज्य के कोने-कोने से आये लोग हैं. प्रेस-सरकार या अपने विधायक तक भी इनकी पहुंच नहीं है. अत: ये लावारिस पड़े रहते हैं. इनके अनशन, धरना और सत्याग्रह से किसी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता. बिहार सरकार के सभी नुमाइंदे, विरोधी नेता, विधायक और नौकरशाह रोज इसी रास्ते से गुजरते हैं, लेकिन इन लोगों की खोज-खबर लेने की फुरसत किसी को नहीं है. पिछले दिनों बिहार में प्रशिक्षित टेक्नीशियनों, जूनियर इंजीनियरों ने रोजगार नहीं मिलने के विरोध में सड़क पर भिक्षाटन कर अपने विरोध का इजहार किया.

लोगों के आंसू पोंछने का दायित्व सरकार का है. परिवार के हर सदस्य की देखभाल जैसे मुखिया करता है, पूरे समाज में सरकार का भी वही दायित्व है. लेकिन सरकार की दिलचस्पी लोगों की समस्याओं में नहीं है. ऐसे मुद्दों पर बिहार में विक्षुब्धों की बैठक भी नहीं होती. असंतुष्टों की बैठक में कुरसी हथियाने की नयी-नयी तरकीबों पर मशविरा होता है. राज्य में सूखे की स्थिति है. पिछड़ापन है. पुलिस का आतंक है. लेकिन सरकार और प्रशासन इन सवालों से अछूते है.

कमोबेश पूरे देश में यही स्थिति है. हाल में डॉ मनमोहन सिंह (उपाध्यक्ष, योजना आयोग) ने आगाह किया है कि वर्तमान नीतियों के सहारे 10 करोड़ लोग ही 21वीं शताब्दी में प्रवेश करेंगे, 90 करोड़ लोग 19वीं शताब्दी में ही छूट जायेंगे. इससे भी खतरनाक बात है कि ऐसे लोगों के लिए आंसू बहानेवाला, लड़नेवाला कोई नहीं होगा. इस देश में औद्योगिक तंत्र के साथ-साथ सैन्य तंत्र का भी विकास हो रहा है. 1960 में आइजन आवर अमेरिका के राष्ट्रपति थे. राष्ट्रपति बनने के पूर्व वह सेना में महत्वपूर्ण पद पर कार्य कर चुके थे.

अमेरिका में ‘सैनिकीकरण-औद्योगीकरण’ के रिश्ते से उपजते संवेदनहीन और भ्रष्ट समाज के खिलाफ राष्ट्रपति आइजन आवर ने देशवासियों का ध्यान खींचा था. उनकी दृष्टि में ऐसे समाज में राष्ट्रीय प्राथमिकताएं ओझल हो जाती हैं. भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. महत्वपूर्ण संसाधनों का अन्यत्र इस्तेमाल होता है. सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में विकृतियां उभरती हैं. यही हाल आज के भारत का है.


बुनियादी सवालों से न सिर्फ शासक दल ही निरपेक्ष है, बल्कि विरोधी राजनेता भी इन मुद्दों पर मौन हैं. वर्तमान आर्थिक संकट से निकलने के लिए सता पक्ष या विरोधी दलों के पास कोई वैकल्पिक विचार नहीं है. सत्ता पक्ष के कुछ लोगों ने तो घाटे के बजट को संतुलित करने के लिए अनोखे सुझाव दिये हैं. सरकार के महत्वपूर्ण ओहदे पर आसीन लोगों का तर्क है कि खाद्यान्न पर खर्च की जानेवाली सब्सिडी राशि (अनुदान राशि, 1650 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष) खत्म कर देनी चाहिए. स्पष्ट है इस कदम से मझोले किसान और सर्वाधिक गरीब प्रभावित होंगे.

ऐसे सुझाव या दलील सत्ता पक्ष की मानसिकता को उजागर करते हैं. ये लोग यह सवाल नहीं उठायेंगे कि राजधानी दिल्ली को सुंदर और स्वच्छ बनाये रखने के लिए अरबों रुपये का अनुदान सरकार क्यों देती है? गरीब लोगों को भोजन उपलब्ध कराना सरकार की पहली प्राथमिकता है, या शहरों को सुंदर बनाना. यह सवाल सत्तारूढ़ नेताओं के सामने नहीं है. उन्हें गरीबों-पिछड़ों की कीमत पर सुंदर शहर चाहिए. ऐसी दलीलें यह जाहिर करती हैं कि ऊपर बैठे लोग संवेदनशून्य हो गये हैं. बर्नहम ने जिस व्यवस्थापकीय समाज की कल्पना की थी, वह भारत में फलीभूत हो रही है. कंप्यूटर, प्रबंध और तकनीकी विशेषज्ञों को गरीबों की आह-कराह से क्या लेना-देना! ऐसे लोगों के राजनीतिक दर्शन में मानवीय समस्याओं का हल यंत्रों से या यांत्रिक दृष्टिकोण से ही संभव है.

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