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कृषि प्रधान होने का भ्रम

-हरिवंश- चालीस वर्षों की आजादी के बावजूद किसानों को अपनी कंगाली और आर्थिक गुलामी से मुक्ति नहीं मिली है. किसानों की इस दुर्दशा के मूल कारण गहरे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत में सरकारी अर्थशास्त्रियों का एक ऐसा तबका उभरा, जो लगातार ‘कृषि प्रधान देश’ में कृषि के आधुनिकीकरण और उसमें व्यापक पैमाने पर पूंजी निवेश को […]

-हरिवंश-

चालीस वर्षों की आजादी के बावजूद किसानों को अपनी कंगाली और आर्थिक गुलामी से मुक्ति नहीं मिली है. किसानों की इस दुर्दशा के मूल कारण गहरे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत में सरकारी अर्थशास्त्रियों का एक ऐसा तबका उभरा, जो लगातार ‘कृषि प्रधान देश’ में कृषि के आधुनिकीकरण और उसमें व्यापक पैमाने पर पूंजी निवेश को ही, देश के विकास का एकमात्र विकल्प मानता था.

प्रशासन, योजना और नीति निर्धारण में ऐसे ही पश्चिमपलट अर्थशास्त्रियों का बोलबाला रहा. इन नीति निर्धारकों और योजनाकारों ने ‘आधुनिकता से तालमेल’ के नाम पर कभी कृषि क्षेत्र को महत्व दिया, तो कभी उद्योग में अधिक पूंजी निवेश की दलील दी. अंगरेजों के एक वर्ग का तर्क था कि भारत कृषि प्रधान देश है और कृषि में निवेश से ही कायापलट संभव है.

मूलत: यह दृष्टि दोष है. भारत के 17वीं 18वीं शताब्दी के आर्थिक इतिहास से जो वाकिफ हैं, उन्हें मालूम होगा कि अंगरेजों के आगमन के पूर्व भारत मूलत: उद्योग प्रधान देश था. भारत के औद्योगिक ढांचे को तबाह कर ही इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हुई. इस प्रक्रिया में सुनियोजित रूप से भारत को कृषि प्रधान देश बना दिया गया. साजिश के तहत ऐसा किया गया. उन दिनों भारत के औद्योगिक उत्पादों का पूरी दुनिया के बाजार में एकाधिकार था. भारत के तत्कालीन औद्योगिक ढांचे को नष्ट किये बगैर कोई देश खुली प्रतिस्पर्द्धा में भारत को मात नहीं दे सकता था. इसी कारण अंगरेजों ने अपनी ताकत का इस्तेमाल भारत के औद्योगिक ढांचे को तहस-नहस करने में किया.

स्वातंत्र्योत्तर भारत की एक अजीब बात है कि जो लोग कृषि क्षेत्र पर निर्भर अनावश्यक जनसंख्या को नये-नये उद्योगों-कुटीर उद्योगों में रोजगार के अवसर देने की बात करते थे, उन्हें दकियानूस, प्रगति विरोधी और आधुनिकता विरोधी करार दिया गया, लेकिन जो लोग अंगरेजों की तरह भारत की प्रगति में एकमात्र कृषि की प्रधान भूमिका का तर्क देते थे, उन्हें आधुनिक और दूर दृष्टिवाला कहा गया, पर कृषि और उद्योग दोनों ही क्षेत्र में पर्याप्त और संतुलित प्रगति के कारण ही हिंदुस्तान 17वीं शताब्दी में सोने की चिड़िया कहा गया.

1840 में एक संसदीय जांच समिति के सामने बोलते हुए मांटगोमरी मार्टिन ने कहा था, ‘मैं इस राय से सहमत नहीं हूं कि हिंदुस्तान एक कृषि प्रधान देश है. हिंदुस्तान जितना कृषि प्रधान है, उतना ही औद्योगिक भी है. बलात उसको कृषि प्रधान देश मानना हिंदुस्तान के साथ बड़ा अन्याय है.’ 18वीं शताब्दी में बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद के बारे में इंडस्ट्रियल कमीशन ने अपनी रपट में लिखा, ‘यह शहर काफी फैला है. यहां बहुत अधिक आबादी है. यह समृद्ध है, इसकी तुलना लंदन से की जा सकती है. फर्क महज यह है कि मुर्शिदाबाद में लंदन से भी अधिक संपन्न और पैसेवाले लोग हैं.’ हिंदुस्तान के इन संपन्न लोगों का कारोबार पूरी दुनिया में फैला था.

खुले बाजार में भारतीय उद्योगों के उत्पादों के आगे विदेशी सामान टिकते नहीं थे. स्वदेशी उत्पादो के आर्थिक संरक्षण का नारा भी उन्हीं दिनों लगा. 1960 में इंग्लैंड के ऊनी कपड़ा बुनकरों ने अपनी तबाही के खिलाफ आवाज बुलंद की, तो भारत से इंग्लैंड के बाजार में पहुंचनेवाले सूती कपड़े पर 20 प्रतिशत का विशेष सीमा शुल्क लागू कर दिया गया. सन 1720 में तो बाकायदा कानून बना कर इंग्लैंड ने अपने बाजारों में भारतीय कपड़े के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया. क्या विसंगति है कि आज स्वयं हिंदुस्तान में घरेलू उत्पादों को संरक्षण देने के लिए विदेशी चीजों पर प्रतिबंध लगाने और सीमा शुल्क बढ़ाने की मांग हो रही है.

उन दिनों कृषि के साथ-साथ बड़े पैमाने पर गांव की महिलाएं-पुरुष कुटीर उद्योगों में लगे थे. फलस्वरूप पूंजी निर्माण की दर अधिक थी. इस कारण गांवों में खुशहाली व संपन्नता थी. कृषि पर जनसंख्या का एक मामूली हिस्सा निर्भर था. 1807 में डॉ बुकानन नामक एक अर्थशास्त्री ने बंगाल और उत्तर भारत का सर्वेक्षण किया. उसने शाहाबाद जिले में पाया कि डेढ़ लाख से ज्यादा औरतें सूत कातने का धंधा करती हैं और ये एक साल में 12 लाख 50 हजार रुपये का सूत तैयार कर लेती हैं.

दिनाजपुर के बारे में बुकानन बताता है कि इस जिले में प्रतिवर्ष लगभग 17 लाख रुपये के कपड़े का उत्पादन होता है. बिहार के पूर्णिया जिले के संबंध में उनका कथन है कि यहां सूत की कताई के काम का प्रसार इतना अधिक है कि इस काम को किसी जाति की महिला अपमानजनक नहीं मानती. बुकानन के अनुसार ये महिलाएं 13 लाख से अधिक रुपये के मूल्य का सूत तैयार करती हैं. गौर करने की बात है कि उन दिनों गांव की महिलाओं का घरेलू उत्पादन में कितना योगदान था? भारत के छोटे-छोटे कस्बों-शहरों में कितना उत्पादन होता था? उन दिनों के 16 लाख या 13 लाख रुपये का आकलन आज के संदर्भ में करें, तो हिंदुस्तान की प्रगति का राज पता चलेगा. कृषि पर आश्रित परिवारों के लोग बड़े पैमाने पर कृषि से इतर कार्य करते थे. बुनकर या हथकरघा उद्योग चलानेवाले अलग थे.


ऐसा नहीं था कि महज कपड़ा उद्योग में ही भारत विश्वविख्यात रहा हो, बल्कि भारत का जहाजरानी उद्योग भी पूरी दुनिया में चर्चित था. उस समय असम में तोपें बनती थीं. भारतीय इस्पात से दमिश्क में कटारें-तलवारें तैयार की जाती थीं. बंगाल और पश्चिम भारत में बेहतर जहाज बनते थे.
हाल ही में मशहूर अर्थशास्त्री सुरेंद्रनाथ गुप्त ने विदेशों में बिखरी जानकारी के आधार पर एक चर्चित पुस्तक लिखी है, ‘सोने की चिड़िया और लुटेरे अंगरेज’. इस पुस्तक में उल्लेख है कि सैंडरसन नामक अंगरेज ने स्पष्ट रूप से उन दिनों लिखा कि ‘अंगरेजों के आगमन के पूर्व भारत विश्व का केवल सर्वसंपन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं, अपितु एक सर्वोत्तम औद्योगिक क्षेत्र और व्यापारिक केंद्र था.’ फ्रैसवां पिरार्ड नामक एक फ्रांसीसी, सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में भारत आया था. 1611 में उसकी यात्रा के वृतांत फ्रेंच भाषा में छपे. भारत देखने के बाद उसने लिखा, ‘संक्षेप में मैं इतना ही कहूंगा कि सोने-चांदी, लोहे-इस्पात, तांबे एवं अन्य धातुओं मसलन जवाहरात, बढ़िया लकड़ी तथा मूल्यवान एवं दुर्लभ पदार्थों की ऐसी विविधता थी कि वर्णन का कोई अंत नहीं हो सकता.

उन दिनों पटसन उद्योग भारत का दूसरा महत्वपूर्ण घरेलू उद्योग था. 1855 में फार्ब्स रायल ने इस उद्योग का हवाला दिया, ‘इस उद्योग में निचले बंगाल के पूर्वी भाग के बहुत से लोग लगे हैं. इस शानदार घरेलू उद्योग में हर वर्ग के लोग खटते हैं. हर घर के स्त्री-पुरुष, बच्चे इसमें लगे हैं. हिंदू हो या मुसलमान- नाविक, खेतिहर, कृषक, पालकी चालक, घरेलू नौकर सभी अपने खाली समय का उपयोग सूत कातने या हाथ में तकुआ लिये बोरी के धागे बंटने में करते हैं.’

भारत के जहाजरानी उद्योग के बारे में ले. कर्नल ए वाकर ने लिखा है, ‘हिसाब लगाने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि ब्रिटेन की नौसेना का हर जहाज बारह वर्ष बाद बदला जाता है. जबकि यह प्रसिद्ध है कि टीक की लकड़ी से बने जहाज पचास वर्ष से भी अधिक चलते हैं. बंबई में बने जहाजों को चौदह-पंद्रह वर्ष चलाने के बाद ब्रिटिश नौसेना में लाया जाता है, फिर भी वे मजबूत समझे जाते हैं.’ सर ऐडवर्ड ह्यूज ने नौसेना में खरीदे जाने के पूर्व भारतीय पोत से आठ बार जलयात्रा की. यूरोप में बना कोई भी ऐसा जलपोत न था, जिसमें सुरक्षित ढंग से छह बार से अधिक जलयात्रा की जा सके.’ भारतीय लौह उद्योग के बारे में जे. कैंपबेल ने उल्लेख किया था कि ‘इंग्लैंड का बढ़िया से बढ़िया लोहा भी भारत के घटिया से घटिया लोहे का मुकाबला नहीं कर सकता.

इस औद्योगिक ढांचे के परिणामस्वरूप ही भारत की समृद्धि की पूरी दुनिया में गूंज हुई. भारत के अतीत की समृद्धि को उजागर करनेवाली अपनी महत्वपूर्ण कृति (रूट्स ऑफ अंडर डेवलपमेंट, ए पीज इंटू इंडियाज कॉलोनियल पास्ट) में अर्थशास्त्री के. एल. केडिया और ए. सिन्हा कहते है कि 17वीं और 18वीं शताब्दी में भारत के बेहतर उत्पादों को खरीदने के लिए दुनिया के सभ्य देशों से भारतीय बाजारों में दुर्लभ और बहुमूल्य पदार्थों (सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात) की अबाध बाढ़ आ गयी थी.’ होल्डेन फर्बर ने यूरोप से भारत पहुंचनेवाले इन रत्नों के कारण यूरोप में बढ़ती गरीबी और भारत की बढ़ती समृद्धि से वहां के प्रशासकों के बीच बढ़ती बेचैनी का बखान किया है.

स्वतंत्रता के बाद हमारे रहनुमा यह तथ्य नजरअंदाज कर गये कि अतीत में भारत की समृद्धि के मौलिक कारण क्या थे. महात्मा गांधी ने इस तथ्य को ध्यान में रख कर ही कुटीर उद्योग-धंधों को पुनर्जीवित करने की बात की. बाद में डॉ राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह शिद्दत के साथ ये तथ्य दोहराते रहे. लेकिन कृषि क्षेत्र में बढ़ती अनुत्पादक शक्तियों को वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध नहीं कराये गये. कृषि पर निर्भरता और छद्म बेरोजगारी बढ़ी. विकास की प्रक्रिया में अमेरिका ने भी कृषि पर आश्रित अपनी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा उद्योगों में लगाया और कृषि क्षेत्र में जनसंख्या का दबाव कम हुआ और दूसरी ओर उद्योग-धंधे फले फूले. इससे सर्वांगीण विकास हुआ. लेकिन अपने देश में कृषि में लगातार अधिक निवेश के बावजूद कृषि क्षेण की हालत दयनीय होती गयी है.

1950-51 में राष्ट्रीय आय में कृषि आय का प्रतिशत 62.8 था. लेकिन 1985-86 में यह घट कर 30.8 फीसदी रह गया. हालांकि आज भी तकरीबन 76 फीसदी लोग कृषि पर निर्भर हैं. सन 1965-66 तक हमारे कृषि उत्पादों की निर्यात प्रतिशत 41.6 था, जो 1983-84 में मात्र 28.9 रह गया. जाहिर है कि कृषि में लगातार निवेश के बावजूद राष्ट्रीय विकास कृषि की भूमिका गौण हो रही है.

कृषि पर बढ़ती निर्भरता और उद्योग उत्पादों के मुकाबले कृषिगत पदार्थों के साथ भेदभाव के कारण 1970-80 के दशक में भारतीय किसानों की आय तेजी से कम हुई है. हरियाणा में गेहूं की खेती से प्रति हेक्टेयर आमद 1970-71 में 611 रुपये थी. 1974-79 में यह घट कर 565 रुपये रह गयी. इसी तरह मध्यप्रदेश में 1970-71 में प्रति हेक्टेयर आमद 299 रुपये से घट कर 1977-78 में 255 रुपये रह गयी. देश के प्रख्यात अर्थशास्त्री दिलीप एस स्वामी और अशोक गुलाटी के अनुसार किसानों का कंगाली लगातार बढ़ रही है.

एक ओर निरंतर किसानों की गरीबी बढ़ रही है, तो दूसरी ओर कृषि पर आश्रित जनसंख्या में भी इसी अनुपात में वृद्धि हो रही है. स्वतंत्र होने के 40 बरस बाद भी इस विसंगति से योजनाकार या राजनेता चिंतित नहीं हैं. 1890 में अमेरिका की कुल जनसंख्या का 43.1 फीसदी हिस्सा जीविकोपार्जन के लिए कृषि पर निर्भर था. तब अमेरिका में प्रति व्यक्ति आय महज 355 डॉलर थी. 1965 में अमेरिका की कुल जनसंख्या का 5.1 फीसदी हिस्सा ही कृषि क्षेत्र में रह गया. फिर भी अमेरिका का कुल कृषि उत्पादन बढ़ता रहा. 1965 में अमेरिका में प्रति व्यक्ति आय बढ़ कर 2921 डॉलर हो गयी. यानी अमेरिका ने कृषि क्षेण से अनुत्पादक शक्तियों को हटा कर दूसरे उत्पादक कार्यों में लगा दिया. साथ ही अमेरिका में उद्योगीकरण की रफ्तार तेज हुई.

वस्तुत: कृषि और उद्योग विकास के दो महत्वपूर्ण बाजू हैं. इन दोनों को समान महत्व नहीं मिलने से विकलांग होने या विषम विकास की पृष्ठभूमि बन जाती है. भारत में भी कृषि उत्पादन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. प्रति एकड़ उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ उस पर से गैर उत्पादक शक्तियों का बोझ कम करने से ही भारत तेजी से प्रगति कर सकता है. 1925 तक जो देश खाद्यान्न निर्यात करता था, उसे आजादी के 40 बरस बाद भी विदेशों से खाद्यान्न मंगाना पड़ रहा है. यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्मगौरव के अनुकूल ही है.

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