-हरिवंश-
यह खबर ‘द वाल स्ट्रीट जरनल’ में छपी. 17 अप्रैल 2009 को. एक मित्र ने ईमेल से भेजा. बदलती दुनिया का प्रतिबिंब है, यह खबर. आधुनिक सभ्यता, संस्कृति और विकास के पश्चिमी मॉडल के टूटने-बिखरने का संकेत भी. खबर छोटी है, पर असाधारण. क्या पूंजीवाद (मार्केट इकोनमी) के अंतर्विरोध और मंदी ने दुनिया को एक नये बंद दरवाजे पर ला खड़ा किया है? साम्यवाद के अंतर्विरोध ने तो रूस को तोड़ दिया. चीन मार्केट इकोनमी और निजी संपत्ति के विकास माडल पर चल पड़ा. क्या यह मंदी किसी बड़े परिवर्तन की आहट है? इस अर्थ में यह खबर ओबामा की जीत से भी महत्वपूर्ण है. संभावनाओं से भरे, नये भविष्य के द्वार पर पहुंचने की सूचना देती.
खबर क्या है? शीर्षक है, ‘गुडबाय ब्लैंड एफ्लूयेंस’ (अलविदा ! प्रिय अमीरी-समृद्धि). खबर लिखने वाली हैं, पेगी नूनआन. शीर्षक से ही स्पष्ट है कि जो समाज बहुतायत में जीता था, अमीरी जिसकी रगों में बसी थी, जो दौलत और समृद्धि के कारण भोग और विलास की दुनिया में डूबा था, अब उसे वह छोड़ रहा है. सिर्फ मंदी ही इसका कारण नहीं है. खबर के अनुसार यूएस टुडे में मिशिगन के एक परिवार का विवरण छपा. वित्तीय दवाब के कारण इस परिवार के सदस्यों ने क्रेडिट कार्ड लौटा दिये. याद रखिए, अमेरिका में क्रेडिट कार्ड जीवन जीने का पर्याय है. घरों से सेटेलाइट टेलीविजन को अलविदा किया.
अत्यंत महंगे, हाइटेक खिलौने से बाय-बाय किया. महंगे होटलों, रेस्टूरेंटों में जाना बंद कर दिया. वोजटाआइज परिवार ने यह कदम उठाया. इस परिवार के तीन सदस्य हैं. पैट्रिक (36 वर्ष), पत्नी मेलिसा (37 वर्ष), पुत्री गैब्रिले (15 वर्ष). संवाददाता जूडी किन के शब्दों में यह परिवार 21वीं सदी का ‘होमस्टीडरस’ (वास भूमि) बन गया है, मुर्गी और सूअर पालन, खेतीबारी और बढ़ईगीरी का काम. इस निर्णय के पीछे महज आर्थिक मंदी नहीं है. इस परिवार के सदस्य महसूस करते थे कि मौजूदा जीवन पद्धति में परिवार के हर सदस्य का मिलना कभी-कभी होता है. फिर आत्ममंथन शुरू हुआ कि इस जीवन का मकसद क्या है?
साथ रहने का आनंद कहां है? समय की मारामारी अलग. इन लोगों ने पाया, जीवन, व्यस्तता, अकेलापन और भागमभाग का पर्याय नहीं है. फिर इस परिवार ने जीने की राह बदल दी. दरअसल यह पश्चिमी जीवन पद्धति के प्रति संपूर्ण विद्रोह है, ऊब का परिणाम है. बहुत पहले इसी अमेरिका में थोरो ने जीवन का नया प्रयोग किया था. ‘वाल्डन’ पुस्तक में इसका वर्णन है. वह जंगल गये. खुद खेतीबारी करने लगे. वर्षों अपने ढंग से जीये.
हाल में मास्को के एक सबसे संपन्न परिवार ने अपनी सारी संपत्ति बेच डाली. वह चला गया खेती करने. उसने मोबाइल से लेकर हर आधुनिक टेक्नोलॉजी से खुद को दूर कर लिया. इस परिवार का निष्कर्ष था कि संपत्ति ही यह होड़ या स्पर्धा, उपभोग की भूख, आधुनिक टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता, यह सब डीह्यूमनाइज (अमानवीय) करने और संवेदनहीन बनाने के उपकरण हैं. इसलिए उस परिवार ने इस जीवन पद्धति पर ही लात मार दी. वह टॉल्सटाय के रास्ते चल पड़ा.
अमेरिका की इस खबर पर नेट पर बड़ी संख्या में लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की. अमेरिका में बड़े पैमाने पर लोग खेती, गाडनिंग, बीज उपजाने, सिलाई सीखने जैसे कामों में लग रहे हैं. मैनहटन (न्यूयार्क स्थित) दरअसल न्यूयार्क का एक हिस्सा नहीं है, वह दुनिया में अमेरिकी समृद्धि का एक सिंबल भी है. दुनिया के बाजार पर उसका आधिपत्य रहा है. समृद्धि, उपभोग और फास्ट जीवन का प्रतीक बन चुका न्यूयार्क बदल रहा है. यह न्यूयार्क दुनिया के समृद्ध लोगों का सपना रहा है.
तीन बार न्यूयार्क देखना हुआ. हर बार लगा, इस शहर की समृद्धि, चकाचौंध, जीवनशैली, तेजी, मन को लुभाते हैं. इंद्रियों को खींचते हैं. रीगन जब राष्ट्रपति बने, उन्हीं दिनों दार्शनिक कृष्णनाथजी का वहां जाना हुआ. तब उन्होंने न्यूयार्क को जो दृश्य उकेरा था, आज भी सटीक है. ‘..सब कुछ जैसे क्रेजी, उन्मादी है, चेहरे तने हुए हैं, बेचैनी है, बेकारी है. कीमतें बढ़ रहीं हैं. मुसीबतें भी. उनका असर चित्त पर भी है जैसे माथा गरम हो रहा है. चेहरे कठोर हो गये है. अंग जैसे भिंचे-भिंचे, लुंज. क्या यह लगता है कि अमेरिका के सबसे अच्छे दिन बीत गये?’
इस बार भी विशेषज्ञ बता रहे हैं कि 1750 से 2008 तक का न्यूयार्क, जहां पूंजी खनकती थी, जहां जीवन का हर सौंदर्य, कला, आनंद, भोग डालर से उपलब्ध होते थे, पहली बार वह शहर खुद से सवाल कर रहा है कि हमारे होने की वजह क्या है? हमारा अस्तित्व है क्यों ? मंदी ने इस मुकाम पर पहुंचा दिया है. विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि न्यूयार्क में कारें घट जायेंगी. भयावह बन गयी ट्रैफिक अब आसान हो जायेगी. पहली यात्रा में मैनहटन की गलियों में खड़ा हो कर, जब सिर आसमान में कर गगनचुंबी इमारतों को देखा था. ट्रैफिक का अनवरत स्वर सुना.
स्वर कहें या गर्जन. चमकती नियोन लाइटें देखीं. मालूम हुआ यह शहर सोता नहीं. अब विशेषज्ञ कह रहे हैं कि वह पुराना शोर नहीं रहनेवाला. रात में रहनेवाला उजाला भी अब कम होगा. अंधकार पसरेगा. लोग खर्च घटा रहे हैं. जीवनशैली बदल रहे हैं. वर्षों पहले ब्रिटेन ने एक कमीशन बैठाया था. युवकों में क्रेडिट कार्ड के बढ़ते लत, प्रभाव- दुष्प्रभाव की जांच के लिए. उस कमीशन ने रिपोर्ट दी कि सस्ते में उपलब्ध क्रेडिट कार्ड यानी इजी मनी (उधार राशि) ने ब्रिटेन के काफी युवाओं को खर्चीला, नशेड़ी और कर्जखोर बना दिया है. आत्महत्या के कगार पर ठेल दिया है. लगभग यही स्थिति अब क्रेडिट (उधार) पर जीनेवाली पीढ़ी की, अमेरिका में दिखाई दे रही है.
दरअसल यह मंदी या ऐसे कदम लक्षण हैं. रोग कहीं और है. और गहरा है. बीमारी का स्रोत है, आर्थिक विकास का यह माडल, जिसमें लालच, लोभ, लूट को प्रोत्साहन मिलता है. भोग और उत्तेजना को प्रेरणा मिलती है. फास्ट लाइफ आदर्श बनता है. अनैतिक बनना, और किसी कीमत पर सफल होना, धर्म बन जाता है. जहां यह सब होगा, वहां परिवार टूटेंगे. संबंध टूटेंगे. संवेदनशीलता खत्म होगी. मानवीय रिश्ते टूटेंगे. बूढ़े उपेक्षित होंगे. छोटी बच्चियों और घर के बच्चों के साथ क्रूर घटनाएं होगीं. यह सब इस भागमभाग या ताबड़तोड़ संस्कृति की अनिवार्य देन है.
इसलिए भारत की आजादी के समय ही गांधी ने अलग मॉडल की परिकल्पना की. वह मानते थे कि आधुनिक सभ्यता, समानता या समता की बात तो करेगी, पर वह कभी साकार नहीं करेगी. गांधी मानते थे कि भारत का पुनर्निर्माण आधुनिक सभ्यता के आधार पर संभव नहीं है. कारण आधुनिक सभ्यता, आधुनिक टेक्नोलॉजी की देन है. आधुनिक सभ्यता और आधुनिक टेक्नोलॉजी का संबंध अविच्छिन्न है. और यह सारे असंतुलन की जड़ है. पांच अक्टूबर 1945 को गांधीजी ने नेहरूजी को लंबा पत्र लिखा. उन्होंने लिखा कि हमारे दृष्टिकोण में अंतर है. पत्र लंबा और अत्यंत महत्वपूर्ण है. उसमें एक जगह गांधीजी ने लिखा,‘मेरी यह पक्की राय है कि अगर भारत को सच्ची स्वतंत्रता अर्जित करनी है और भारत के माध्यम से दुनिया को भी, तो देर-सबेर इस बात को कबूल करना होगा कि लोगों को शहरों में नहीं, गांवों में और महलों में नहीं झोपड़ियों में रहना होगा. लेकिन तुम यह मत सोच बैठना कि हमारे गांवों का आज जैसा जीवन है, वैसे ही जीवन की बात मैं सोच रहा हूं. करोड़ों के लिए महलों का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन करोड़ों लोग आरामदेह और अपटूडेट घरों में क्यों न रहें? इन घरों से वे सुसंस्कृत जीवन बिता सकते हैं’. यह पत्र लंबा है, पर गांधी के सपनों को बताता है. उस माडल की झलक देता है, जिसमें बौद्धिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास संभव है.
आज अमेरिका या पश्चिम के लोग मजबूरी में नयी सभ्यता-संस्कृति की तलाश कर रहे हैं. वहां गांधी में रूचि बढ़ रही है. पर भारत भोग के पीछे भाग रहा है. हमारे नेता कितने अज्ञानी, अधकचरे और बौद्धिक दृष्टि से दरिद्र हो चुके हैं कि जो बड़े सवाल और चुनौतियां आज देश के सामने हैं, आम चुनावों में उन पर चर्चा तक नहीं. भारत किस आर्थिक माडल को अपनाये? विलुप्त हो गये साम्यवाद को, ओझल हो रहे समाजवाद को या संकटग्रस्त बाजारवाद (पूंजीवाद) को? अब युवा पीढ़ी को यह तय करना है. पर 90 तक के चुनावों में बड़े सवाल उठते थे. उनकी गूंज गांवों तक पहुंचती थी. अब सवाल गायब हैं, क्योंकि भारत के शासक वर्ग ने स्विस बैंकों में सिर्फ धन ही जमा नहीं किया है, बल्कि अपने विचार को भी गिरवी रख दिया है.