चंद्रमा और भगवान शिव का संबंध
चंद्रमा को सोम भी कहा जाता है. सोमवार को भगवान शिव का दिन माना जाता है और इस दिन भगवान शिव के पूजन से मनुष्य को विशेष लाभ प्राप्त होता है. चन्द्रमा के अधिदेवता भी शिव हैं और इसके प्रत्याधिदेवता जल है. महादेव के पूजन से चंद्रमा के दोष का निवारण होता है. महादेव ने चंद्र को अपनी जटाओं पर धारण किया हुआ है. इस प्रकार भगवान शिव की पूजा से चंद्रमा के उलटे प्रभाव से तत्काल मुक्ति मिलती है. भगवान शिव के कई प्रचलित नामों में एक नाम सोमसुंदर भी है. सोम का अर्थ चंद्र होता है.
चंद्र दोष निवारण
चंद्र दोष के उपाय जो शास्त्रों में उल्लेखित हैं उनमें सोमवार का व्रत करना, माता की सेवा करना, शिव की आराधना करना, मोती धारण करना, दो मोती या दो चांदी का टुकड़ा लेकर एक टुकड़ा पानी में बहा देना तथा दूसरे को अपने पास रखना है. कुंडली के छठवें भाव में चंद्र हो तो दूध या पानी का दान करना मना है. यदि चंद्र बारहवां हो तो धर्मात्मा या साधु को भोजन न कराएं और ना ही दूध पिलाएं. सोमवार को सफेद वास्तु जैसे दही, चीनी, चावल, सफेद वस्त्र, 1 जोड़ा जनेऊ, दक्षिणा के साथ दान करना और ॐ सोम सोमाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है.
शिव की आराधना से चंद्र दोष का निवारण
चन्द्रमा के अधिदेवता शिव हैं. अत: महामृत्युंजय मंत्र जाप शिव पूजा एवं शिव कवच का पाठ चंद्रपीड़ा में श्रेयस्कर है ही, साथ ही प्रत्याधिदेवता जल होने के कारण गणेशोपासना (विशेष रुप से केतु के साथ चंद्र हो तो) भी शुभदायी है, क्योंकि गणेश जलतत्व के स्वामी हैं. गौरी, दुर्गा, काली, ललिता और भैरव की उपासना भी हितकर है. दुर्गा सप्तशती का पाठ तो नवग्रह पीड़ा में लाभप्रद रहता ही है, क्योंकि यह समस्त ग्रहों को अनुकूल करता है व सर्व सिद्धिदायक है. इसके अलावा चंद्र मंत्र व चंद्रस्तोत्र का पाठ भी अतिशुभ है. चंद्रमा की पीड़ा शांति के निमित्त नियमित (अथवा कम से कम सोमवार को) चंद्रमा के मंत्र का 1100 बार जाप करना अभिष्ट होता है.
जाप मंत्र
ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:.
चंद्र नमस्कार के लिए मंत्र
दधि शंख तुषारामं क्षीरोदार्णव सम्भवम्.
नमामि शशिनं भक्तया शम्भोर्मकुट भूषणम्..
शिव का महामृत्युंजय मंत्र
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्ष्रिय मामृतात्.
इसे मृत संजीवनी मंत्र भी कहा गया है. यह मंत्र दैत्य गुरु शुक्राचार्य द्वारा दधीचि ऋषि को प्रदान किया गया था. चन्द्र दोष निवारण के लिये शिवरात्रि पर रुद्राभिषेक करवाएं. यदि आपके आसपास कोई शिव मंदिर हो तो वहां जाकर विशेष पूजा -अर्चना करनी चाहिए. उस रात्रि को संभव हो तो शिव मंदिर में जाकर जागरण करें.
चंद्र दोष निवारण के तांत्रिक टोटका
महापंडित रावण जैसे ज्ञानी चार वेदों के ज्ञान के आधार पर और अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर चंद्र दोष निवारण के कुछ उपाय बताएं हैं. रावण के महान विद्या के आधार पर ‘लाल किताब’ की रचना की गयी है. यहां वैदिक ज्योतिष में चंद्र दोष निवारण के लिए बड़े बड़े हवन आदि करने पड़ते है वहीं रावण के तांत्रिक टोटके उस समस्या को कुछ ही दिनों में नष्ट कर देते है. हमारे ज्योतिष शास्त्रों ने चंद्रमा को चौथे घर का कारक माना है. यह कर्क राशी का स्वामी है. चन्द्र ग्रह से वाहन का सुख सम्पति का सुख विशेष रूप से माता और दादी का सुख और घर का रूपया पैसा और मकान आदि सुख देखा जाता है. उपाय – 1 किलो जौ दूध में धोकर और एक सुखा नारियल चलते पानी में बहायें और 1 किलो चावल मंदिर में चढ़ा दे, अगर चन्द्र राहू के साथ है और यदि चन्द्र केतु के साथ है तो चूना पत्थर ले उसे एक भूरे कपडे में बांध कर पानी में बहा दे और एक लाल तिकोना झंडा किसी मंदिर में चढ़ा दे.
शिव कवचसे चंद्र दोष का निवारण होता है
।।श्रीगणेशाय नम:।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशिवकवचस्तोत्रमंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि: अनुष्टप् छन्द:। श्रीसदाशिवरुद्रो देवता। ह्रीं शक्ति:। रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्। श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थे शिवकवचस्तोत्रजपे विनियोग:।
कर-न्यास: – ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ ह्लांसर्वशक्तिधाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ मं रुं अनादिशक्तिधाम्ने अघोरात्मने मध्यामाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ वांरौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्यो जातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐयंर: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्यां नम:।
॥ अथ ध्यानम् ॥
वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिन्दमम् ।
सहस्रकरमत्युग्रं वंदे शंभुमुपतिम् ॥ १ ॥
।।ऋषभ उवाच।।
अथापरं सर्वपुराणगुह्यं निशे:षपापौघहरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्वविपत्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥ २ ॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्वव्यापिनमीश्वरम्।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ ३ ॥
शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासन: ।
जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिंतयेच्छिवमव्ययम् ॥ ४ ॥
ह्रत्पुंडरीक तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभोवकाशम् ।
अतींद्रियं सूक्ष्ममनंतताद्यंध्यायेत्परानंदमयं महेशम् ॥ ५ ॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबन्धश्चरं चितानन्दनिमग्नचेता: ।
षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम् ॥ ६ ॥
मां पातु देवोऽखिलदेवत्मा संसारकूपे पतितं गंभीरे
तन्नाम दिव्यं वरमंत्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥ ७ ॥
सर्वत्रमां रक्षतु विश्वमूर्तिर्ज्योतिर्मयानंदघनश्चिदात्मा ।
अणोरणीयानुरुशक्तिरेक: स ईश्वर: पातु भयादशेषात् ॥ ८ ॥
यो भूस्वरूपेण बिर्भीत विश्वं पायात्स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्ति: ॥
योऽपांस्वरूपेण नृणां करोति संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्य: ॥ ९ ॥
कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलील: ।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात् ॥ १० ॥
प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीति कुठारपाणि: ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्र: प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्त्रम् ॥ ११ ॥
कुठारवेदांकुशपाशशूलकपालढक्काक्षगुणान् दधान: ।
चतुर्मुखोनीलरुचिस्त्रिनेत्र: पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ १२ ॥
कुंदेंदुशंखस्फटिकावभासो वेदाक्षमाला वरदाभयांक: ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्र उरुप्रभाव: सद्योधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥ १३ ॥
वराक्षमालाभयटंकहस्त: सरोज किंजल्कसमानवर्ण: ।
त्रिलोचनश्चारुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्या दिशि वामदेव: ॥ १४ ॥
वेदाभ्येष्टांकुशपाश टंककपालढक्काक्षकशूलपाणि: ॥
सितद्युति: पंचमुखोऽवतान्मामीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाश: ॥ १५ ॥
मूर्धानमव्यान्मम चंद्रमौलिर्भालं ममाव्यादथ भालनेत्र: ।
नेत्रे ममा व्याद्भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथ: ॥ १६ ॥
पायाच्छ्र ती मे श्रुतिगीतकीर्ति: कपोलमव्यात्सततं कपाली ।
वक्रं सदा रक्षतु पंचवक्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्व: ॥ १७ ॥
कंठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठ: पाणि: द्वयं पातु: पिनाकपाणि: ।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्मवाहुर्वक्ष:स्थलं दक्षमखातकोऽव्यात् ॥ १८ ॥
मनोदरं पातु गिरींद्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनांतकारी ।
हेरंबतातो मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्जटिरीश्वरो मे ॥ १९ ॥
ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरोऽव्यात् ।
जंघायुगंपुंगवकेतुख्यातपादौ ममाव्यत्सुरवंद्यपाद: ॥ २० ॥
महेश्वर: पातु दिनादियामे मां मध्ययामेऽवतु वामदेव: ॥
त्रिलोचन: पातु तृतीययामे वृषध्वज: पातु दिनांत्ययामे ॥ २१ ॥
पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गंगाधरो रक्षतु मां निशीथे ।
गौरी पति: पातु निशावसाने मृत्युंजयो रक्षतु सर्वकालम् ॥ २२ ॥
अन्त:स्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणु: सदापातु बहि: स्थित माम् ।
तदंतरे पातु पति: पशूनां सदाशिवोरक्षतु मां समंतात् ॥ २३ ॥
तिष्ठतमव्याद्भुवनैकनाथ: पायाद्व्रजंतं प्रथमाधिनाथ: ।
वेदांतवेद्योऽवतु मां निषण्णं मामव्यय: पातु शिव: शयानम् ॥ २४ ॥
मार्गेषु मां रक्षतु नीलकंठ: शैलादिदुर्गेषु पुरत्रयारि: ।
अरण्यवासादिमहाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्ति: ॥ २५ ॥
कल्पांतकोटोपपटुप्रकोप-स्फुटाट्टहासोच्चलितांडकोश: ।
घोरारिसेनर्णवदुर्निवारमहाभयाद्रक्षतु वीरभद्र: ॥ २६ ॥
पत्त्यश्वमातंगघटावरूथसहस्रलक्षायुतकोटिभीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिंद्यान्मृडोघोर कुठार धारया २७ ॥
निहंतु दस्यून्प्रलयानलार्चिर्ज्वलत्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल सिंहर्क्षवृकादिहिंस्रान्संत्रासयत्वीशधनु: पिनाक: ॥ २८ ॥ दु:स्वप्नदु:शकुनदुर्गतिदौर्मनस्यर्दुर्भिक्षदुर्व्यसनदु:सहदुर्यशांसि ।
उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्ति व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीश: ॥ २९ ॥
ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय सर्वमंत्रस्वरूपाय सर्वयंत्राधिष्ठिताय सर्वतंत्रस्वरूपाय सर्वत्त्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणे नीलकंठाय पार्वतीमनोहरप्रियाय सोमसूर्याग्निलोचनाय भस्मोद्धूलितविग्रहाय महामणिमुकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय महाकालभेदनाय मूलाधारैकनिलयाय तत्त्वातीताय गंगाधराय सर्वदेवाधिदेवाय षडाश्रयाय वेदांतसाराय त्रिवर्गसाधनायानंतकोटिब्रह्माण्डनायकायानंतवासुकितक्षककर्कोटकङ्खकुलिक पद्ममहापद्मेत्यष्टमहानागकुलभूषणायप्रणवस्वरूपाय चिदाकाशाय आकाशदिक्स्वरूपायग्रहनक्षत्रमालिने सकलाय कलंकरहिताय सकललोकैकर्त्रे सकललोकैकभर्त्रे सकललोकैकसंहर्त्रे सकललोकैकगुरवे सकललोकैकसाक्षिणे सकलनिगमगुह्याय सकल वेदान्तपारगाय सकललोकैकवरप्रदाय सकलकोलोकैकशंकराय शशांकशेखराय शाश्वतनिजावासाय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्चिंताय निरहंकाराय निरंकुशाय निष्कलंकाय निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय निरवद्याय निरंतराय निष्कारणाय निरंतकाय निष्प्रपंचाय नि:संगाय निर्द्वंद्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रोधाय निर्मलाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियय निस्तुलाय नि:संशयाय निरंजनाय निरुपमविभवायनित्यशुद्धबुद्ध परिपूर्णसच्चिदानंदाद्वयाय परमशांतस्वरूपाय तेजोरूपाय तेजोमयाय जय जय रुद्रमहारौद्रभद्रावतार महाभैरव कालभैरव कल्पांतभैरव कपालमालाधर खट्वांगखड्गचर्मपाशांकुशडमरुशूलचापबाणगदाशक्तिभिंदिपालतोमरमुसलमुद्गरपाशपरिघ भुशुण्डीशतघ्नीचक्राद्यायुधभीषणकरसहस्रमुखदंष्ट्राकरालवदनविकटाट्टहासविस्फारितब्रह्मांडमंडल नागेंद्रकुंडल नागेंद्रहार नागेन्द्रवलय नागेंद्रचर्मधरमृयुंजय त्र्यंबकपुरांतक विश्वरूप विरूपाक्ष विश्वेश्वर वृषभवाहन विषविभूषण विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामृत्युमपमृत्युभयं नाशयनाशयचोरभयमुत्सादयोत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चोरान्मारय मारय ममशमनुच्चाट्योच्चाटयत्रिशूलेनविदारय कुठारेणभिंधिभिंभधि खड्गेन छिंधि छिंधि खट्वांगेन विपोथय विपोथय मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय वाणै: संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषयशेषभूतानि निद्रावय कूष्मांडवेतालमारीच ब्रह्मराक्षसगणान्संत्रासय संत्रासय ममाभय कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय नरकमहाभयान्मामुद्धरसंजीवय संजीवयक्षुत्तृड्भ्यां मामाप्याय-आप्याय दु:खातुरं मामानन्दयानन्दयशिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादयमृत्युंजय त्र्यंबक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते।
।। ऋषभ उवाच ।।
इत्येतत्कवचं शैवं वरदं व्याह्रतं मया ॥
सर्वबाधाप्रशमनं रहस्यं सर्वदेहिनाम् ॥ ३० ॥
य: सदा धारयेन्मर्त्य: शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं शंभोरनुग्रहात् ॥ ३१ ॥
क्षीणायुअ:प्राप्तमृत्युर्वा महारोगहतोऽपि वा ॥
सद्य: सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्चविंदति ॥ ३२ ॥
सर्वदारिद्र्य शमनं सौमंगल्यविवर्धनम् ।
यो धत्ते कवचं शैवं सदेवैरपि पूज्यते ॥ ३३ ॥
महापातकसंघातैर्मुच्यते चोपपातकै: ।
देहांते मुक्तिमाप्नोति शिववर्मानुभावत: ॥ ३४ ॥
त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम्
धारयस्व मया दत्तं सद्य: श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ ३५ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इत्युक्त्वाऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे ।
ददौ शंखं महारावं खड्गं चारिनिषूदनम् ॥ ३६ ॥
पुनश्च भस्म संमत्र्य तदंगं परितोऽस्पृशत् ।
गजानां षट्सहस्रस्य द्विगुणस्य बलं ददौ । ३७ ॥
भस्मप्रभावात्संप्राप्तबलैश्वर्यधृतिस्मृति: ।
स राजपुत्र: शुशुभे शरदर्क इव श्रिया ॥ ३८ ॥
तमाह प्रांजलिं भूय: स योगी नृपनंदनम् ।
एष खड्गो मया दत्तस्तपोमंत्रानुभावित: ॥ ३९ ॥
शितधारमिमंखड्गं यस्मै दर्शयसे स्फुटम् ।
स सद्यो म्रियतेशत्रु: साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥ ४० ॥
अस्य शंखस्य निर्ह्लादं ये श्रृण्वंति तवाहिता: ।
ते मूर्च्छिता: पतिष्यंति न्यस्तशस्त्रा विचेतना: ॥ ४१ ॥
खड्गशंखाविमौ दिव्यौ परसैन्य निवाशिनौ ।
आत्मसैन्यस्यपक्षाणां शौर्यतेजोविवर्धनो ॥ ४२ ॥
एतयोश्च प्रभावेण शैवेन कवचेन च ।
द्विषट्सहस्त्रनागानां बलेन महतापि च ॥ ४३ ॥
भस्मधारणसामर्थ्याच्छत्रुसैन्यं विजेष्यसि ।
प्राप्य सिंहासनं पित्र्यं गोप्तासि पृथिवीमिमाम् ॥ ४४ ॥
इति भद्रायुषं सम्यगनुशास्य समातृकम् ।
ताभ्यां पूजित: सोऽथ योगी स्वैरगतिर्ययौ ॥ ४५ ॥
।।इति श्रीस्कंदपुराणे एकाशीतिसाहस्त्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तरखण्डे अमोघ-शिव-कवचं समाप्तम् ।