-हरिवंश-
शरद संगम 2008 संपन्न हो गया. यह आयोजन सात दिनों तक चला. 9 नवंबर से 15 नवंबर तक. रविवार से शनिवार तक, रांची के हृदयस्थल में. 1700 लोगों ने भाग लिया. देश और दुनिया से. अमेरिका, इटली, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर समेत दर्जनों देशों के लोग आये. भारत के तकरीबन अधिकतर प्रांतों से. जात-पात, क्षेत्रवाद, धार्मिक-भाषाई अंतर, रंगभेद, नस्लवाद, सबसे परे रह कर इस समूह ने साधना की. रांची में एक मिनी दुनिया की झलक. फूलों और रंगों की भाषा में कहें, तो तरह-तरह के फूलों, रंग-बिरंगे फूलों का एक सुंदर गुलदस्ता जैसे दृश्य. अलग-अलग देश, प्रांत, भाषा, रंग, जाति के लोग, फिर भी एक समूह में, एक साथ. जो यह दृश्य देखा होगा, या देखता है, वही इसे समझेगा या समझता है.
कहीं इधर-उधर मौखिक चर्चा हुई हो या कोई छोटी खबर छप गयी हो, पर इस आयोजन का प्रचार-प्रसार नहीं होता. बल्कि यह बताना सही होगा कि आयोजक बरजते हैं, मना करते हैं, खबर न छापें, प्रचार न करें. वैसे भी अध्यात्म प्रेमी मानते हैं कि अखबारों की खबरें जीवन के शांत समुद्र में हिलोरें पैदा करती हैं. हत्या, बलात्कार, षडयंत्र, अपराध, भ्रष्टाचार .. यही न विषय-वस्तु हैं : सुबह-सुबह इन्हें पढ़ कर कैसा मानस बनता है? और यह आयोजन बरसों से चल रहा है. लगभग हर वर्ष, सर्दियों में. इसलिए नाम है, शरद संगम. आयोजनकर्ता हैं, योगदा सत्संग आश्रम रांची. इस आश्रम के संस्थापक हैं, महर्षि श्री श्री परमहंस योगानंद जी (1893-1952). सिद्ध और श्रेष्ठ योगी. उनकी पुस्तक ‘आटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ (एक योगी की आत्मकथा) दुनिया की सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों में से एक है.
अनेक भाषाओं में अनूदित. देश के बाहर और देश के अंदर. एक बार इस पुस्तक को आपने उठाया, तो खत्म किये बिना चैन नहीं. इसमें जीवन के रहस्य हैं, जीवन के संगीत हैं, साधना की कला-कथा है. वह सब कुछ है, जो हम देहधारी जानना चाहते हैं. सृष्टि, मनुष्य, जीवन, जीने की कला वगैरह के बारे में. हां जो ‘सीइंग इज विलिविंग’ (देखना ही विश्वास का आधार है) मुहावरे में विश्वास करते हैं, वे इस पुस्तक अध्ययनक्रम में शंका-सवालों से घिरेंगे. पर उनके लिए भी यही उत्तर है, मनुष्य का अनुभवजन्य संसार, हम विराट ब्रह्मांड-प्रकृति में अल्प, नगण्य और हाशिये पर हैं. मानव ज्ञान या मानवीय अनुभवों के परे एक विराट संसार है, जो आज भी अज्ञात, अनजाना और रहस्यों से घिरा है. परमहंस जी की यह पुस्तक भी यह एहसास कराती है. उनका रचना संसार बहुत बड़ा और व्यापक है. गीता, ईसा मसीह से लेकर अनेक विषयों-अनुभवों पर. ठोस और व्यावहारिक सुझावों के साथ.
उनकी पुस्तकें, विचार और व्यावहारिक सुझाव जीवन, समृद्ध बनाते हैं. पर इन पर बाद में. पहले शरद संगम पर. शरद संगम के अनुभव आंतरिक होते हैं. वे बंट नहीं सकते. बखान और कथन की सीमा है. पर इस आयोजन के बाहरी अनुभव बंटने-फैलने चाहिए.
आज का समाज क्या है? 10 लोगों का गुट (जो भाड़े के भगोड़े सिपाही जैसे होते हैं) कोई कार्यक्रम करे, उसकी तैयारी देखिए. मंच, लाउडस्पीकर, खर्च, कुव्यवस्था, चंदा, फिर प्रचार-प्रसार. ऐसा बखान या आत्मप्रशंसा मानो इतिहास पलट गया हो. ऐसा कार्यक्रम न पहले हुआ होगा, न आगे होगा का दर्प-बोध. कार्यक्रम स्थल पर गंदगी, अव्यवस्था, अराजकता, आपाधापी, शोर अलग. अहं के टकराव. बड़ी-बड़ी बातें. अनुपयोगी-अनर्गल तर्क, चीखना-चिल्लाना, खाने के लिए धक्कामुक्की. पर प्रचार में-खबरों में सबसे आगे रहने की होड़. कार्यक्रम का स्वरूप चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक या वैचारिक, कमोबेश आयोजनों का स्वरूप आजकल कुछ ऐसा ही हो गया है.
इसके ठीक विपरीत शरद संगम जैसे आयोजन होते हैं. रिखिया के कार्यक्रम होते हैं. भारी भीड़, पर सुई गिरने की आवाज भी सुन सकते हैं. गूंजते मौन की भाषा का एहसास कर सकते हैं. सब कुछ व्यवस्थित. बैठने की जगह तय और हर चीज का सही इंतजाम. जूता-चप्पल करीने से रखे हुए. खाना-चाय, ध्यान, वार्ता या संवाद, सब समय से, व्यवस्थित. एक जूठा दोना, पत्तल या कप इधर-उधर नहीं. अगर आप नये हैं, अनजाने हैं, या भूलवश कहीं रख दिया, तो कोई दूसरा चुपचाप उठा कर व्यवस्थित कर देगा. शिकायत बोध से नहीं, कृतज्ञता भाव से. अजीब लगता है. जैसे प्रबंधन या व्यवस्था की यह दूसरी दुनिया हो. इस प्रबंध के पीछे कौन है? साधक, संत या स्वामी श्रद्धानंद, स्वामी निष्ठानंद जैसे चुपचाप काम करनेवाले लोग तो हैं ही. इसमें जो भाग लेने आते हैं, देश के कोने-कोने से. अलग-अलग भाषा, क्षेत्र, जाति, धर्म की पृष्ठभूमि से, वे साथ मिल कर प्रबंध में लगते हैं. आश्रम की सफाई, सौंदर्य, कदम-कदम पर फूलों की कतारें. खिले फूलों की महक .. सचमुच मनुष्य चाहे, तो अपनी दुनिया कितना सुंदर बना सकता है. और खासियत यह कि सब आयोजन सात्विक भव्यवता के बीच. आश्रम के पास बड़े और भव्य आयोजनों या दिखावे के लिए फंड तो है नहीं. पर सात्विक सौंदर्य की गरिमा और मर्यादा ही कुछ और है.
इस शरद संगम आयोजन से लगभग एक माह पूर्व श्री श्री परमहंस योगानंद की एक पुस्तक रिलीज हुई. दिल्ली में. उपराष्ट्रपति ने लोकार्पण किया. पुस्तक का नाम है, ‘इनर पीस’ (आंतरिक शांति). प्रकाशक, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया, योगदा सत्संग मठ. 21.यू.एन. मुखर्जी रोड, दक्षिणेश्वर, कोलकाता 76. योगदा द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का स्वरूप, गेटअप, छपाई वगैरह अत्यंत आकर्षक होता है. लगभग 126 पन्नों की यह पुस्तक आकार में छोटी पर अत्यंत सुरुचिपूर्ण व सुंदर है.
इस पुस्तक का सार कहना हो, तो महर्षि योगानंद को ही कोट (उद्धृत) करूं. सामान्य जीवन, पेंडुलम की तरह है. अनथक, पीछे और आगे चक्कर काटता हुआ. शांतचित्त व्यक्ति तब तक स्थिर-निश्छल रहता है, जब तक वह काम करने के लिए तैयार नहीं हो जाता. फिर वह काम में डूबता है, पेंडुलम की तरह. फिर वह शांति के केंद्र में लौट आता है. पेंडुलम की तरह. पुस्तक परिचय में ही दो बड़े सुंदर शब्दों का इस्तेमाल है. ‘एक्टिवली काम’ (सक्रिय शांति या खनकता मौन) और ‘कामली एक्टिव’ (शांतिपूर्ण सक्रियता या कर्म).
पुस्तक में छह अध्याय हैं. भूमिका में योगदा सत्संग सोसाइटी, भारत और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की अध्यक्ष और संघमाता श्री श्री दयामाता की भूमिका है. वह 20 वर्षों तक महर्षि के सानिध्य में रह चुकी हैं. वह कहती हैं, इस दौर में टेक्नालॉजी में स्तब्धकारी परिवर्त्तन हुए हैं. हालात सुधरे हैं पर इसके लिए निजी जीवन में तनाव, दबाव और उलझनों के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. जीवन में संतुलन की तलाश हो रही है. दुनिया अब महसूस कर रही है कि सबसे जरूरी आज का नया विज्ञान है, योग. शरीर, मस्तिष्क और आत्मा को आंतरिक शांति देने का प्रभावी माध्यम.
इस संकलन में परमहंस जी की पुस्तकों, लेखों, प्रवचनों, विद्यार्थियों में बातचीत के वे अंश एक जगह संकलित किये गये हैं, जो रोज के जीवन के लिए जरूरी व उपयोगी हैं. आंतरिक संतुलन और शांति के लिए इसमें व्यावहारिक सुझाव हैं. क्रोध, भय, चिंता अतिरेक या अतिसंवेदनशीलता से बचने के.