-हरिवंश-
इस पुस्तक के पुनर्जन्म या पुनर्उद्धार का प्रसंग जानना अच्छा लगा. पर पहले पुस्तक के बारे में.विल डूरंट ने ‘द केस फार इंडिया’ पुस्तक लिखी. 1930 में. विल डूरंट कौन थे? वह विश्व के सबसे बड़े इतिहासकार माने गये. 11 खंडों में ‘द स्टोरी आफ सिविलाइजेशन’ (सभ्यता का इतिहास) लिखनेवाले. विश्वविख्यात ‘द स्टोरी आफ फिलासफी’ (दर्शन की कथा) के लेखक भी. ये पुस्तकें विश्व प्रसिद्ध रचनाएं हैं. उसी विल डूरंट ने भारत पर यह पुस्तक लिखी. उस दौर में यह खूब चर्चित हुई. पर धीरे-धीरे खो गयी.
मुबंई में एक पुस्तक दुकान है. ‘स्ट्रैंड बुक स्टाल’. अत्यंत चर्चित. संस्थापक टी.एन.शानबाग के कारण. एक व्यक्ति अपने पसंदीदा क्षेत्र को ही अपना व्यवसाय बना ले, तो वह अपनी छाप छोड़ सकता है, यह ‘आधुनिक प्रबंधन’ भी कहता है. अधिसंख्य पुस्तक प्रेमी टी.एन.शानबाग और उनकी दुकान को जानते हैं. अरूण शौरी ने ‘स्ट्रैंड बुक स्टाल’ और इसके मालिक शानबाग पर बरसों पहले लिखा था. इसी तरह की एक और दुकान है, बेंगलूर में. महात्मा गांधी रोड पर. प्रो.राम गुहा ने इस पुस्तक दुकान और उसके पुस्तक प्रेमी मालिक पर स्तंभ लिखा. ऐसे लोग महज किताबें बेचने का धंधा नहीं करते, वे ज्ञान के इस कारोबार में लगे हैं. अपने एक-एक ग्राहक के प्रति अपनत्व. एक-एक पुस्तक के प्रति संवेदनशील.
वही शानबाग 1960 में विल डूरंट से मिले. भूमिका में वह बताते हैं, ‘सभ्यता के सबसे बड़े इतिहासकार’ से मुलाकात में विल डूरंट ने बताया कि भारत पर मैंने एक पुस्तक लिखी है, ‘द केस फार इंडिया’. पर यह पुस्तक नहीं मिली. बाजार से गायब थी. लगभग 48 वर्षों से वह इसकी तलाश करते रहे. पर हाल में मशहूर इनफोसिस के मोहनदास पाइ ने कहीं से इसकी ‘फोटो प्रति’ उपलब्ध करायी. इस पुस्तक में दुनिया के इस सबसे बड़े इतिहासकार ने ‘भारत को सबसे प्राचीन और मानव समाज के लिए अब तक की सबसे महान सभ्यता’ कहा है. 30 के दशक में इस पुस्तक ने भारत को एक नये फलक पर खड़ा कर दिया. विश्व जनमत भारत के पक्ष में बना. शासक अंग्रेज बचाव की मुद्रा में आ गये. आधुनिक संदर्भ में पुन: भारत को नयी पीढ़ी समझे. इसी आग्रह से ‘स्ट्रैंड बुक स्टाल’ के मालिक टी.एन.शानबाग ने इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशन का निर्णय लिया. लगभग 170 पृष्ठों की यह किताब, फिर छपी, शानबाग के कारण.
1930 में विल डूरंट ने ‘नोट टू द रीडर’ (पाठकों के नाम एक नोट) लिखा. छोटा. पर हर भारतीय को हमेशा याद रखने लायक. वह कहते हैं, ‘द स्टोरी आफ सिविलाइजेशन’ के क्रम में भारत की सांस्कृतिक विरासत (इतिहास) जान रहा था. इसी सिलसिले में भारत आया. पर भारत आकर दंग रह गया. शानदार अतीत-विरासत के लोगों का यह हाल! मुझे लगा, अब तक के इतिहास में किसी मुल्क पर सबसे बड़ा जुल्म है. ‘मैं जानता हूं. बंदूक और खून के साये में मेरे शब्द कितने कमजोर हैं. सोना और साम्राज्य की ताकत के सामने, महज सच और शिष्टता कितने अप्रसांगिक है’. भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद का आतंक और अत्याचार देखकर विल डूरंट बेचैन हो गये. उनकी इसी बेचैनी और आक्रोश का परिणाम है, यह पुस्तक. इसे पढ़ते हुए ‘द रेचेड आफ द अर्थ’, फैंट्र्ज फैनन की याद आयी. फैनन फ्रांसीसी थे. अल्जीरिया गये. अल्जीरिया, फ्रांस का गुलाम था. वहां के मूल लोगों की हालत देखी, तो वे अपने देश फ्रांस के खिलाफ हो गये. दरअसल डूरंट हों या फैनन जैसे लोग, यही असल बौद्धिक हैं.
शुद्ध मानव. रंग, जाति, देश जैसी सीमाओं से परे, मानवता की बात करनेवाले. मानव मूल्यों के प्रहरी और वाहक. बौद्धिकता और बुद्धिजीवियों की शानदार भूमिका गढ़नेवाले. इन्हें पढ़ते हुए न जाने क्यों विभीषण याद आते हैं. विभीषण आज एक विशेषण बन गये हैं. गलत अर्थ में. पर उनकी महानता का पक्ष कमजोर क्यों? उन्होंने ‘भाई’ या सगे को नहीं चुना, उदात्त मानवीय मूल्यों के साथ खड़े हो गये. आज हम जाति, धर्म, परिवार और सगे-संबंधियों के आधार पर ‘सार्वजनिक पाप’ के भागीदार बनते हैं, उनके कुकर्म पाखंड ढोते हैं. पर गोरे अंग्रेजों में एक बड़ी तादाद हुई, जिन्होंने भारत पर अंग्रेजी अत्याचार की खिलाफत को धर्मयुद्ध माना. ऐसे ही लोग ‘नरभूषण’, ‘मानवभूषण’, और ‘सभ्यताओं – संस्कृतियों को नये क्षितिज पर ले जानेवाले होते हैं’. ऐसे ही विल डूरंट की यह पुस्तक है. कहते हैं, गांधी के हाथ जब पुस्तक आयी, वह घंटों इसी में डूब गये. पढ़कर ही उठे. रवींद्रनाथ टैगोर ने विल डूरंट के बारे में सटीक टिप्पणी की है. उनके अनुसार हमारे दुर्भाग्यों के इतिहास की छानबीन डूरंट ने की है. उन्होंने हमें मनुष्य होने का गौरव दिया. यह काम कर उन्होंने पश्चिम के सर्वश्रेष्ठ मूल्यों और परंपराओं का निर्वाह किया, स्वतंत्रता की वकालत और न्यायसंगत समान व्यवहार की बात की.
‘भारत की खोज’ पंडित नेहरू ने की. पर अतीत के सागर से भारत के गौरव के मोती ढूंढ़ लानेवालों में विल डूरंट भी हैं. यह खोयी किताब कहानी नहीं, नयी पीढ़ी के लिए भारत के शानदार अतीत से दरस-परस का मंच है. नास्तिक नेहरूजी ने भी गंगा की लहरों में अपनी अस्थियों के विसर्जन की कामना की. समाजवादी चिंतकों ने भारत की इस उत्कृष्ट परंपरा की बात की. डा. लोहिया ने राम, कृष्ण, शिव, भारत के तीथा और नदियों की मीमांसा की. मधुलिमये ने भी इन चीजों पर गौर किया. कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग भी इन उदात्त भारतीय मूल्यों पर बात करता रहा. पर धीरे-धीरे राजनीति में विचार, बहस और इतिहास पर बात होनी बंद हो गयी और भाजपा ने संकीर्ण दायरे में इन सवालों को उठाकर माहौल ही बदल दिया.
भाजपा के उत्थान का शायद एक वजह यह भी है कि भारत के मध्यमार्गीय दलों ने सत्तर के दशक के बाद स्वस्थ भारतीय परंपराओं और मूल्यों को अनदेखा करना शुरू किया. यहीं से भाजपा इन मूल्यों की स्वघोषित और आत्मघाती प्रहरी बन बैठी. फिर भी भारत का वह महान अतीत कभी ओझल नहीं हो सकता, जिसके बारे में लार्ड मैकाले ने कहा था. 2 फरवरी 1835 को. ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हए, ‘मैंने भारत की ओर-छोर की यात्रा की है, पर मैंने एक भी आदमी नहीं देखा, जो भीख मांगता हो या जो चोर हो. मैंने इस मुल्क में अपार संपदा देखी है. उच्च उदात्त नैतिक मूल्यों को देखा है.
इस योग्यता और मूल्योंवाले भारतीयों को कभी कोई जीत नहीं सकता, यह मैं मानता हूं. तब तक, जब तक कि हम इस देश की रीढ़ ही न तोड़ दें. और भारत की यह रीढ़ है, उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत. इसलिए मैं यह प्रस्ताव करता हूं कि भारत की पुराने शिक्षा व्यवस्था को हम बदल दें. उसकी संस्कृति को बदलें ताकि भारतीय यह सोंचे की जो भी विदेशी है, बेहतर है. ताकि वे सोचने लगें कि अंग्रेजी भारतीय भाषाओं से महान है. इससे वे अपना आत्मसम्मान खो बैठेंगे. अपनी देशज जातीय संस्कृति भूलने लगेंगे और तब वे वह होंगे, जो हम चाहते हैं. सचमुच का एक आक्रांत और पराजित राष्ट्र.’
21वीं सदी में महाशक्ति बनने का सपना देख रहा यह मुल्क भी अपने इतिहास-अतीत से ताकत, दृष्टि और सबक ले सकता है. जैसे चीन अपने अतीत से ऊर्जा ग्रहण कर दुनिया की नयी महाशक्ति बन रहा है. इस पुस्तक को ढूंढ़ने का काम इनफोसिस के एक अधिकारी ने किया. यह अच्छा संकेत है. दुनिया में भारतीय परचम लहरानेवाली, इन विशिष्ट कंपनियों की विशिष्ट भारतीय प्रतिभाएं, भारत के अतीत के बेहतर अध्यायों की तलाश में हैं. यह सुखकर संकेत है.