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मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी

-हरिवंश कुछ स्मृतियां जीवन के साथ ही विदा होती हैं.गंगा के साथ ऐसी ही स्मृतियां हैं. जनमा, गंगा-घाघरा की गोद में. कई रूपों, भंगिमा और तेवर में देखा है गंगा को. करवट बदलते, विनाश करते, खेतों को आबाद करते, ऊंची-ऊंची लहरों की गर्जना, अशांत नदी का शोर.. न जाने गंगा के कितने रूप हैं. उस […]

-हरिवंश

कुछ स्मृतियां जीवन के साथ ही विदा होती हैं.गंगा के साथ ऐसी ही स्मृतियां हैं. जनमा, गंगा-घाघरा की गोद में. कई रूपों, भंगिमा और तेवर में देखा है गंगा को. करवट बदलते, विनाश करते, खेतों को आबाद करते, ऊंची-ऊंची लहरों की गर्जना, अशांत नदी का शोर.. न जाने गंगा के कितने रूप हैं. उस घाघरा के भी , जिसमें राम ने प्राण छोड़ा. दोनों पावन नदियों के बीच जीवन पाना, इनके संगम की पवित्रता के प्रति लोक आस्था का बचपन से गवाह होना. भिन्न-भिन्न रूपों में देखना. विद्यापति की भाषा में कहूं, तो बार-बार देखने के बाद भी ‘नयन न तिरपत भेल’. आंखों की तृप्ति कहां हुई? मन कहां भरा? कहां अघाया?
‘गंगा’ पुस्तक, लेखक जूलियन क्रेंडल हालिक (प्रकाशक, रैंडम हाउस इंडिया) और ‘द पेंग्विन बुक ऑफ रिवर राइटिंग्स’ (नदियों पर लिखे लेखों पर पेंग्विन की पुस्तक), ‘वाटरलाइंस’ (संपादित, अमित बामिसकर) पढ़ते हुए न जाने गंगा के कितने रंग याद आये? पर एक रूप, एक दृश्य, वह कुछ क्षण, जो सबसे अधिक याद है. लगभग चार दशक पहले की बात है. 12-13 वर्ष की उम्र. चैत का महीना रहा होगा. स्कूल-परीक्षा-पढ़ाई से मुक्ति के दिन. गरमी की छुट्टी की मौज. घर के किसी बड़े के साथ सुबह-सुबह गंगातट जाना हुआ. कुछेक किलोमीटर पैदल चल कर. तब नदी नहाने का उमंग होता था.

सूरज के उतरने में देर थी. गंगा का पानी गहरा नीला दिख रहा था. शांत. एक ओर रेत का मीलों फैला समुद्र. हमारी तरफ ताड़ बराबर ऊंचा तट. गंगा, कटाव के लिए मशहूर हैं. पर ऊपर तट पर खड़े होकर नील वर्ण की गंगा का सौंदर्य बाल मन में उतरता गया गहरे. वर्षों बाद जाना, चैत की गंगा का सौंदर्य, रंग, सुबह की मादक हवा कैसे यादगार होती है? पुरवइया हवा थी. ताजी बयार. सूर्योदय पूर्व का गहरा नीला आकाश. चांद अभी लुप्त नहीं हुआ था. नीला पानी. यह सब मिल कर प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य रच रहे थे. कई दशकों पहले गंगा को देखा वह दृश्य मन-मस्तिष्क और दिल में उतर गया, तसवीर की मानिंद.

तब से गंगा के न जाने कितने रूप देखे, पर वह रूप, वह सौंदर्य तो जैसे अटक गया है. फिर बनारस में पढ़ते हुए भी गंगा सानिध्य बना रहा. गंगा लगभग 2500 कि.मी. की अपनी यात्रा में दो ही जगह उत्तरायण हैं. चुनार में. फिर, काशी में. उत्तरायण होती गंगा, दशाश्वमेघ घाट की गंगा, अस्सी की गंगा, रामनगर (शास्त्री जी की जन्मभूमि) की गंगा, नगवा की गंगा, जहां बनारसी भाषा में दिव्य नहान और निबटान के लिए लगभग रोज शाम जाना होता था. मित्रों के साथ. घंटों चुपचाप बहती गंगा को निरखना वहीं हुआ. और यह सुख भी छूटा, बनारस छूटते ही. बाद में कृष्णमूर्ति फांउडेशन कुछेक बार जाना हुआ.

गंगा किनारे बसा है, यह सेंटर. गंगा तट पर बड़े-बड़े छतनार पेड़, वहां बैठ कर ध्यान या कृष्णमूर्ति दर्शन पर चर्चा, या मौन होकर गंगा को निरखना. शांत बहती नदी. राजघाट का पुल. नावों पर सैलानी. जैसे लगता है, समय ठहर गया हो. काशी की एक मान्यता है कि वह शंकर के त्रिशूल पर है. काल से परे. जहां ‘कालचिता’ (मणिकर्णिका श्मशान) चौबीस घंटे जलती है. गंगा किनारे. फिर प्रयाग की गंगा, हरिद्वार की गंगा, ऋषिकेश की गंगा और मेरे गांव की गंगा. साल में छह महीने गंभीर बाढ़ का प्रकोप.

भरीत (मिट्टी भर कर ऊंचाई पर डूब क्षेत्रों में घर बनते हैं) के नीचे डूबाह पानी. बचपन में बाढ़ की उत्सुक प्रतीक्षा, नावों की चाहत. गंगा की पूजा. लोकगीत. नदियों से तबाही. बार-बार घरों का कट कर नदी में गिरना. फिर भी उसी नदी की पूजा. उससे अलग या दूर न होना. उसी में मरना और जीना. इसलिए गंगा पर या नदियों पर साहित्य या वृत्तांत पढ़ना, तो उन बीते क्षणों – दिनों को जीने जैसा है.

पर भीष्म की जननी गंगा अपनी गोद में जनमनेवाले को ही नहीं खींचती, कई हजार किलोमीटर दूर के लोगों को भी लुभाती हैं. उन्हीं में से हैं, जे.सी.हालिक. दुनिया के जाने माने मीडिया हाउसों के लिए काम करनेवाले. रेडियो डाक्यूमेंट्री बनानेवाले. कई पुरस्कार जीतनेवाले ‘प्रोड्‌यूसर’. बचपन में इंग्लैंड में दादी से कहानियां सुनीं. सुदूर के पहाड़ों, रेगिस्तानों और नदियों के बारे में. एमेजन, मिसिसीपी, नील, यांगत्सी जैसी नदियों के बारे में. पर इन बड़ी नदियों ने भी हालिक के मन पर छाप नहीं छोड़ी, याद रह गयी बस गंगा की. उसकी पवित्रता की कहानियां. हालिक कहते हैं, गंगा से बड़ी 34 अन्य नदियां हैं, पर जो गंगा, गोमुख से समुद्र तक 2510 किमी की यात्रा तय करती है, वह भिन्न है.

नील, एमेजन, मिसिसीपी, यांगत्सी, ये सभी गंगा से दोगुनी लंबी हैं. उसी गंगा को पहली बार 1986 में हालिक ने देखा, बनारस में. डाक्यूमेंट्री बनाते वक्त. पुरानी कहावत है, ‘सुबहे बनारस, शामे अवध’. सुबह गंगा किनारे का बनारस अद्भुत होता है. यह अनुभव का प्रसंग है, बखान का नहीं. हालिक ने देखा, फिर वे गंगा के हो गये. फिर कानपुर से देखा. बांग्लादेश से देखा, गंगा को. और बंध गये इस नदी से. फिर बड़ा निर्णय किया. हिमालय (गंगोत्री) से गंगासागर (जहां गंगा समुद्र में मिलती हैं) तक की यात्रा. नाव से. दिन में यात्रा. रात में नदी किनारे टेंट लगा कर रहना. या कहीं-कहीं किनारे बसे आश्रमों में पड़ाव.

बनारस जैसे शहर में होटल में. साथ ही दुनिया के जाने-माने रेडियो संस्थानों के लिए ‘गंगा यात्रा’ पर कमेंट्री. तीन चरणों में और 18 महीनों में संपन्न हुई यह यात्रा. पर मुख्य यात्रा अप्रैल 2004 से (जब गंगोत्री में बर्फ पिघल चुका था). फिर अक्तूबर 2004 से जनवरी 2005 के बीच. साथ में फोटोग्राफर. अनुवादक, नाविक, ये बदलते रहते थे. जगह और जरूरत के मुताबिक. अंतिम 100 किमी की गंगा यात्रा में हालिक की पत्नी मार्टिन भी साथ रहीं. अब लंबे समय से हालिक सपरिवार अमेरिका में रहते है. फ्रांस में भी.

इस अद्‌भुत यात्रा के अनुभवों का संकलन है, यह पुस्तक? लेखक के लिए पहेली है कि जिस गंगा को भारतीय पावन, पूज्य और मोक्षदायिनी मानते हैं, उसे ही ‘पाल्यूट’(गंदा) कैसे करते हैं? गंगा कैसे खतरे में पड़ गयी है? लेखक की जिज्ञासा है कि क्या गंगा के खत्म होते ही उस ‘गंगा मां’ (देवी रूप) का भी अंत हो जायेगा, जिसे आज भारतीय पूजते हैं? पुस्तक में कुल आठ अध्याय हैं. लगभग दस नक्शे. आकर्षक छपाई और सुंदर कवर. गंगा से जुड़े सवालों की गहराई से छानबीन लेखक ने की है. टिहरी बांध, फरक्का बांध, सिंचाई परियोजनाएं, कानपुर से बनारस तक अत्यंत प्रदूषित गंगा, किनारे-किनारे बसे मंदिरों-आश्रमों के पुजारियों से भेंट, डकैतों, मछुआरों से मुलाकात. जिन गांवों-बस्तियों को गंगा ने उजाड़ा, उनके बाशिदों से भेंट.

पर हर एक के मन में गंगा के प्रति अगाध भक्ति और प्रेम. फिर गंगा पानी की पवित्रता पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण. यह जानकर आश्चर्य हुआ कि डेढ़-दो सौ वर्ष पहले गंगा के पानी को पेरिस ले जा कर परखा गया लेब्रोटरी में. पाया गया कि गंगा के पानी में कुछ तत्व हैं, जो कीटाणुओं को, बीमारी को, गंदगी को कंट्रोल करते हैं. सबसे मार्मिक अध्याय है ‘द रेप आफ गंगा’ (गंगा से बलात्कार). गंगा की गंदगी-प्रदूषण का आलम. यह अध्याय पढ़ते हए मेरे गांव के सहपाठी किसान की बात याद आयी. गंगा सूख रही है. पाट (चौड़ाई) सिमट रहा है. उनकी दृष्टि में लोक मान्यता है कि गंगा सूखी तो प्रलय होगा. मेरी नजर में इस कथन का अर्थ है कि प्रदूषण से नदियां सूखीं, तो मनुष्य और धरती तो खतरे में होंगे ही. पुस्तक में गंगा के अलग-अलग सौंदर्य का बखान, वनों, पहाड़ों और घाटियों में इठलाती, उफनती और घहराती-गुजरती. हरिद्वार की आरती का सजीव सौंदर्य बखान.

‘वाटरलाइंस’ पुस्तक में भी 24 लेख हैं. नदियों से संबंधित कहानी, लेख, कविता, यात्रा वृतांत. जीवन में रचे-बसे नदियों के विवरण. हमारे देश, बसाहट और जमीन को नदियों की धारा गढ़ती रही है. और अब हम मनुष्य नदियों की धारा को बांध या बदल रहे हैं. इस तरह जीवन और नदी एक दूसरे से गुथे हुए हैं. नर्मदा, गंगा और कावेरी के भव्य रूपों का वर्णन. टैगोर, अज्ञेय, अरूंधती राय, अद्वैत मल्लाबर्मन, आनंद पांडियन वगैरह के लेख. बनारस के घाटों का नीता कुमार का काव्यात्मक वर्णन. चैत में गंगा कैसे खींचती है? अपने सौंदर्य और रमणीक दृश्यों से. चैत की निंदिया, अलसाये हो रामा , छोड़ कर लोग गंगा भागते हैं.

साथ में कार्तिक स्नान की भव्यता का ब्योरा. डायना एल एक (हार्वर्ड की प्रोफेसर) का गंगा पर बड़ा लेख. डायना ने बनारस पर दो विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी हैं. बनारस की उत्तरायण गंगा का पहला दृश्य 80 में देखा था. विद्यार्थी था. रात को मुगलसराय से बनारस जाने के क्रम में राजघाट पुल से. दीपों से नहाते गंगा किनारे के घाटों का अक्षत सौंदर्य. डायना का लेख पढ़ते हुए वे दिन याद आये.

इन दोनों पुस्तकों को पढ़ते हुए, फिर जाना कि नदियां कैसे जीवन और संसार का अभिन्न अंग हैं. पर आज उनकी स्थिति क्या है? यमुना, दिल्ली में लगभग सूख चुकी हैं. गंगा, जो मंदाकिनी, भागीरथी और मां नामों से भी जानी जाती हैं, कई जगहों पर सूखने की स्थिति में हैं. वे नदियां, जिन्हें हम ‘मदर, फिलोसफर और गाइड’ (मां, दार्शनिक और पथ प्रदर्शक) मानते रहे हैं, आज बुरी स्थिति में हैं, शहरों के कचरों के कारण, औद्योगिक प्रदूषण के कारण, मरे जानवरों और लाशों के कारण. शहर, आधुनिकता के प्रतीक हैं. ये क्या जाने नदियों का मोल?

‘मानो तो मैं गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी’, बरसों पहले सुना था. पर हमारा विकास दर्शन तो बहते पानी के ही खिलाफ है, उसे तो इस बहते पानी का ‘कामर्शियल यूज’ करना है. पर गांवों में आज भी अलग दर्शन है. जिस गंगा नदी में पांच बार घर कट कर गिरा(मेरे जन्म से पूर्व), एक बार डूबते-डूबते बचा, जिसके तट पर स्वजनों की चिता जली, जो आज भी बाढ़ और कटाव से तबाह करती है, फिर भी वहीं गंगा पूजी जाती हैं. मुसीबतों के बाद भी उस गंगा का साथ कोई छोड़ने को तैयार नहीं. उनका पर्व मनता है. कामना होती है कि हर घर में गंगाजल हो और जीवन को जो अंतिम बूंद मिले, वह गंगा का ही हो.

इसके पीछे न कोई धार्मिक आग्रह, न पाखंड, सीधा दर्शन ‘जल है, तो जीवन है.’ शायद यही कारण रहा होगा कि पश्चिमी मानसवाले पंडित नेहरू ने भी लिखा. यादगार पंक्तियां. मरने पर अपनी राख इलाहाबाद के संगम पर बिखेरने की इच्छा बतायी. धार्मिक कारण से नहीं. इसलिए कि गंगा सदियों से भारत की पुरानी संस्कृति, सभ्यता के बदलाव, बहाव की साक्षी हैं भारत के लोगों की प्रिय नदी, जिसके साथ भारतीय जातीय संस्मरण, आकांक्षाएं, सपने, भय, भारत के जय और पराजय के क्षण गुथे हुए हैं.
इस गंगा का माहात्म्य, मिथ, नदियों में सर्वश्रेष्ठ होने का गौरव एक विदेशी ने फिर तलाशा. परखा, लिखा, लंबी यात्रा की. इच्छा होती है, काश! उसकी यात्रा (गो मुख से गंगा सागर) पथ पर चल पाता.

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