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कहीं शून्य की तरफ तो नहीं ले जा रही है विकास की यह दौड़!

दुनू रॉय निदेशक, हजार्ड सेंटर पर्यावरण और विकास की ही बात करें, तो देश के 29 में से 13 प्रदेशों में सूखा पड़ा है. देश की एक-चौथाई आबादी पानी के लिए तड़प रही है. विकास द्वारा निर्मित जलवायु परिवर्तन का दैत्य आसमान में मंडरा रहा है, मानो प्रकृति सावधान कर रही है- चेतो, सोचो, कहीं […]

दुनू रॉय
निदेशक, हजार्ड सेंटर
पर्यावरण और विकास की ही बात करें, तो देश के 29 में से 13 प्रदेशों में सूखा पड़ा है. देश की एक-चौथाई आबादी पानी के लिए तड़प रही है. विकास द्वारा निर्मित जलवायु परिवर्तन का दैत्य आसमान में मंडरा रहा है, मानो प्रकृति सावधान कर रही है- चेतो, सोचो, कहीं यह दौड़ शून्य की तरफ तो नहीं ले जा रही है!
बीस साल में एक पीढ़ी गुजर जाती है, दूसरी पीढ़ी उसकी जगह ले लेती है. अक्सर एक को दूसरे की खबर तक नहीं होती है. कुछ यही हाल पर्यावरण का भी है. आज से बीस साल पहले, 1996 में, देश का सर्वोच्च न्यायालय कई महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मामलों की सुनवाई कर रहा था, जो आगे चल कर जजों और वकीलों की प्रसिद्धि का आधार बने. उन मामलों में थे- तमिलनाडु में चमड़ा कारखानों द्वारा प्रदूषण का नियंत्रण, दिल्ली की करीब 70,000 जहरीली (और अनियमित) उद्योगों पर रोकथाम, राजस्थान के भूजल का कंपनियों द्वारा नुकसान, हिमाचल में व्यास नदी के ताल में निर्मित होटल पर भारी जुर्माना, और बदखल तथा सूरजकुंड तालों के बचाव के लिए ‘सावधानी सिद्धांत’ का अपनाना. अर्थात् विकास की दौड़ में कई अटकलें आ रही थीं.
वक्त का जहर
उस पीढ़ी की सक्रियता की बुनियाद उसके भी बीस वर्ष पूर्व स्थापित की गयी थी, जब 1984 के भयावह भोपाल गैस कांड के बाद 1986 में पर्यावरण सुरक्षा कानून बना. उसी दरम्यान देहरादून के चूना पत्थर उत्खनन के मामले में न्यायालय ने यह भी ठहराया कि प्रकृति के विनाश के मुकाबले में मानव के रोजगार का पलड़ा हल्का होगा. यही तर्क कई और मामलों में दोहराया गया. परंतु, साल 1990 में भोपाल के मामले में अदालत ने न इनसान को और न कुदरत को कोई राहत दिलवायी, बल्कि महाशक्तिशाली यूनियन कार्बाइड को बख्शने के लिए दोनों के पर काट दिये गये. आज भी भोपाल उस वक्त का जहर झेल रहा है.
पर्यावरण की समझ
इस प्रतिगामी फैसले के बावजूद सर्वोच्च अदालत ने ताजमहल को आगरा की भट्टियों से बचाया. जंगलों में अवैध कटाई को रोका. बड़े प्रभावशाली आदेश दिये, जिनमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी होनेवाली हानि के लिए मुआवजा तय हुआ. मशहूर गोदावर्मन केस में न्यायाधीशों ने ऐलान किया कि जितना जंगल विकास के नाम पर कटेगा, विकासक (डेवलपर) उससे ज्यादा कीमत से पेड़ लगायेगा, ताकि सुरक्षित भविष्य से पीढ़ियों के बीच बराबरी कायम रहे और विनाश से बचाव का खर्च विकास कार्य में अंतर्निहित हो. इस तरह 90 के दशक में पर्यावरण की एक व्यापक समझ बन रही थी. लेकिन, यह समझ बीते दो दशकों से धराशाई होने लगी है.
विश्व में ताकतवर बनने की होड़ में हमारे शासकों ने तय किया है कि समृद्धि का एक ही रास्ता है कि विकास की दर लगातार बढ़ती रहे- सन् 1960 के 4 प्रतिशत से 6, चीन की टक्कर में 6 से 8, फिर 8 से सर्वोपरि 10 तक. यह विकास तभी हो सकता है, जब जिसके पास धन है, वह उसे उत्पादन में लगायेगा, क्योंकि वर्षों से राष्ट्रीय संपत्ति की लूट के बाद सरकार के पास पूंजी नहीं है. इसलिए सरकार का अब काम है- धनाढ्य लोगों को प्रोत्साहित करना, ताकि जैसे-जैसे वे आगे बढ़ेंगे, वैसे-वैसे बाकी देश की जनता भी दुमछल्ले की तरह गरीबी से मुक्ति पायेगी.
जलवायु परिवर्तन का दैत्य
एक और पीढ़ी काल का रास्ता नाप गयी है. कई करोड़पति अब अरबपति, खरबपति बन गये हैं. मध्यम वर्ग हमारे बाजार में उपभोक्ता के रूप में उमड़ पड़ा है; फिर भी विकास की चकाचौंध के बीच एक मेहनती, लेकिन असहाय, अस्वस्थ, और अनाथ कौम अगली रोटी की खोज में बेचैन है. पर्यावरण और विकास की ही बात करें, तो देश के 29 में से 13 प्रदेशों में सूखा पड़ा है. देश की एक-चौथाई आबादी पानी के लिए तड़प रही है. जिस महाराष्ट्र प्रदेश में सबसे अधिक बांध हैं, वहीं पानी की कमी को लेकर स्थिति सबसे चिंतनीय है. विकास द्वारा निर्मित जलवायु परिवर्तन का दैत्य आसमान में मंडरा रहा है, मानो प्रकृति सावधान कर रही है- चेतो, सोचो, कहीं यह दौड़ शून्य की तरफ तो नहीं ले जा रही है!
सरकारी सोच- चित भी मेरी, पट भी मेरी
सरकारी सोच किस तरफ जा रही है, उसका अंदाजा दो उदाहरणों से मिल जाता है. एक तरफ पर्यावरण मंत्रालय ने सुब्रमण्यम समिति की सिफारिशों पर आधारित पर्यावरण कानून सुधार विधेयक घुमाना शुरू किया है, जिसकी कड़ी आलोचना पिछले साल संसदीय समिति कर चुकी है. मूलत: आलोचकों का कहना है कि प्रस्तावित विधेयक, कुछ अंतरराष्ट्रीय सलाहकारों की गिरफ्त में आकर, पर्यावरण संबंधी मामलों को वर्तमान कानून के दायरे से निकाल कर अफसरशाहों और वकीलों के हाथों सौंप देती है- इंसाफ के अखाड़े में सरकार की चित भी मेरी, पट भी मेरी! जिससे पूंजी-प्रेमी विकास का रथ बेधड़क जल-जंगल-जमीन को पैसों के बल पर रौंद सके.
बचाने की मायावी कल्पना
दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन की राष्ट्रीय नीति में कोशिश यह है कि कम-से-कम ऊर्जा के प्रयोग से संसाधनों का ज्यादा-से-ज्यादा दोहन हो, तथा कोयले और तेल की जगह सौर, वायु, और कूड़ा से ऊर्जा उत्पन्न किया जाये. जिसमें भारत, ‘विकसित’ पश्चिम का अनुसरण करते हुए, तकनीकी विधि से अपने पर्यावरण को बचा पायेगा. यह एक मायावी कल्पना है. अगर दुनिया में सभी लोग औसत अमेरिकी की तरह जीना चाहें, तो एक पृथ्वी नहीं, बल्कि चार पृथ्वी की जरूरत होगी. सच्ची बात तो यह है कि सभी धरतीवासियों को (देसी अमीरों को भी) महीने में दस हजार रुपये से कम कमाता हुआ आम हिंदुस्तानी की तरह जीना पड़ेगा, तब जाकर एकल धरती मानव जाति का बोझ ढो पायेगी.
असली चुनौतियां
हमारे सामने असली चुनौती तो यही है कि- चाहे पर्यावरण सुरक्षा के नजरिये से हो, चाहे जलवायु परिवर्तन के नजरिये से- किस तरह जिंदगी को संवारें कि कम साधनों में, कम उपभोग से, लोभ और लालच से दूर, एक ऐसी जिंदगी जी सकें, जिसमें आनंद हो, मेहनत भी हो, थोड़ा-सा प्यार भी हो, साथ में सहिष्णुता भी हो. काम पर या स्कूल तक पैदल जाना उसके लिए कष्टदायी होगा, जो मोटरकार में जाता है.
एक बाल्टी पानी में स्नान करना उसके लिए मुश्किल है, जो रोज देर तक शावर का आनंद लेता है. खेत की जुताई ट्रैक्टर से वही करता है, जिसका बैल संभालने में पसीना छूटता है. और पेड़ की छांव उसी को भाती है, जिसको एयर-कंडीशंड मॉल की लत न लगी हो. ‘विकास’ किसको कहेंगे? यही सवाल तय करेगा कि हम धरती के मालिक हैं या धरती हमारी जीवनदाता है.
पर्यावरण शिक्षा को बढ़ावा देना जरूरी
डॉ अभय कुमार
पर्यावरण विशेषज्ञ
संयुक्त राष्ट्र ने मानव पर्यावरण पर पहला सम्मेलन 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित किया था. उस सम्मेलन के पहले दिन की याद में संयुक्त राष्ट्र ने 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित किया. उसी सम्मेलन में एक अन्य संकल्प के द्वारा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की भी स्थापना की गयी. इस साल विश्व पर्यावरण दिवस का विषय है ‘जीवन के लिए जंगल की ओर’.
बापू की चिंताओं पर ध्यान नहीं
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जब औद्योगीकरण और विकास का मतलब प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का अधिक-से-अधिक दोहन था, तभी इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे थे.
ये दुष्परिणाम इतने गंभीर थे कि उनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था. विश्व मानवता ने इकट्ठे होकर इस समस्या का सामना करने का प्रयास किया. संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरण कार्यक्रम संगठन ने पर्यावरण की बिगड़ती हालत को गंभीरता से संज्ञान लेते हुए कई महत्वपूर्ण कदम उठाये. पर्यावरण शिक्षा पर समुचित बल इस दिशा में एक दूरगामी प्रयास था.
यहां पर यह ध्यान देने की जरूरत है कि महात्मा गांधी ने बीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में ही पश्चिमी देशों के विकास के पैमाने पर महत्वपूर्ण प्रश्नचिह्न लगाये थे. उन्होंने पर्यावरण से संबंधित चिंताओं से हमें अवगत कराया था. उन्होंने कहा था- हमारी पृथ्वी हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए सक्षम है न कि लालच को. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने उनकी चिंताओं पर गौर नहीं किया.
पर्यावरण शिक्षा पर पहला सम्मेलन
स्टॉकहोम घोषणा, जिसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव पर्यावरण पर आयोजित पहले सम्मेलन के अंत में अपनाया गया है, यह पहली बार घोषित किया गया कि ‘पर्यावरण शिक्षा आवश्यक है.’
बाद में, 1975 में बेलग्रेड (तब युगोस्लाविया की राजधानी) में एक चार्टर अपनाया गया, जो पहली बार पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम के सिद्धांतों, लक्ष्य और उद्देश्य पर मार्गदर्शन करते हैं. पर्यावरण शिक्षा पर पहला अंतरसरकारी सम्मेलन (IFEE)- जो सन् 1977 में त्बिलिसी, जॉर्जिया (तत्कालीन सोवियत संघ का हिस्सा) में संपन्न हुआ- में पर्यावरण शिक्षा की भूमिका और उद्देश्यों पर विस्तार से चर्चा की गयी और पर्यावरण शिक्षा के सिद्धांतों को स्पष्ट किया गया.
भारत में पर्यावरण शिक्षा
भारत ने भी पर्यावरण शिक्षा के मामलों में निश्चित कदम उठाये. शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति (1986) में पर्यावरण शिक्षा पर जोर देते हुए पर्यावरण संरक्षण से संबंधित मूल्यों को पाठ्यक्रम का अभिन्न हिस्सा बनाने को कहा गया. समाज के हर वर्ग में पर्यावरण के प्रति चेतना को विकसित करना होगा, जिसकी शुरुआत बच्चों से होनी चाहिए. स्कूल और काॅलेजों में पठन-पाठन की प्रक्रिया इस पर्यावरणीय चेतना से प्रभावित होनी चाहिए.
बाद में, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने फैसले में कहा कि यदि कानून को लागू करना है और पर्यावरण की रुग्णता को नियंत्रण में रखना है तथा पर्यावरण को प्रदूषित होने से रोकना है, तो यह आवश्यक है कि आम नागरिक प्रदूषण और उसके दुष्परिणामों से भली भांति अवगत हों. इसी फैसले में आगे पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य घोषित किया गया. आगे सन् 2003 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एनसीइआरटी को एक अनुकरणीय पाठ्यक्रम बनाने का निर्देश दिया तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं सभी स्कूल बोर्ड को आदेश दिया कि पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य रूप से लागू किया जाये.
सन् 2004 के अपने निर्णय में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को एनसीइआरटी द्वारा तैयार किये गये पहली कक्षा से 12वीं तक के पाठ्यक्रम को अपनाने को कहा और इसके कार्यान्वयन के लिए एनसीइआरटी को नोडल एजेंसी नियुक्त किया. एनसीइआरटी ने पर्यावरण और प्रदूषण से संबंधित मुद्दों को सभी विषयों के पाठ्यक्रम एवं पाठ्य पुस्तकों मे इन्फ्यूजन माॅडल के तहत समावेशित किया है.
सफल रहा शिक्षा का दशक
संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने 2005 से 2014 के दशक को सस्टेनेबल डेवलपमेंट के लिए शिक्षा का दशक घोषित किया था. इस दशक के अंत में जापान में एक सम्मेलन में इसकी समीक्षा के दौरान पाया गया कि सामाजिक न्याय और पर्यावरण संरक्षण के साथ विकास के लिए शिक्षा का दशक अपने उद्देश्यों में काफी सफल रहा है. यह भी पाया गया कि गतिविधियों पर आधारित पठन-पाठन की शैली ही पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्यों को पूरा करने में सहायक होती है. पर्यावरण शिक्षा को संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्यों में भी शामिल किया गया है.
पर्यावरण के संकट को ध्यान में रखते हुए आज जरूरत यह है कि पर्यावरण शिक्षा को स्कूलों और कालेजों में इस तरह समावेशित किया जाये कि पर्यावरण के प्रति समाज में एक अनुकूल रवैया तैयार हो सके.
2016 भी हो सकता है सबसे गर्म साल
यह बहुत चिंताजनक है कि अब तक के 15 सबसे गर्म वर्षों में से 12 पिछले 15 सालों (2001-15) में ही रहे हैं.
– अमेरिकी संस्था नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन ने अप्रैल में संभावना जतायी थी कि 2015 को पीछे छोड़ते हुए 2016 दुनिया के रिकॉर्डेड इतिहास का सबसे गर्म साल हो सकता है. भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने भी कहा है कि हमारे देश के लिए भी यह साल सदी के सबसे गर्म सालों में एक हो सकता है. इस वर्ष जनवरी से लेकर मई तक गर्मी सामान्य से अधिक रही है.
तीसरा सबसे गर्म साल रहा था 2015, साल 1901 के बाद से अब तक.
– 2015 में वार्षिक औसत तापमान 1961-1990 के औसत से 0.67 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा था. रिकॉर्ड के मुताबिक इसके अलावा नौ सबसे गर्म साल इस प्रकार हैं- 2009, 2010, 2003, 2002, 2014, 1998, 2006 और 2007.
– दशक के हिसाब से पिछला दशक सर्वाधिक गर्म रहा था और उसका औसत तामपान 1901 के बाद के दशकों के औसत तापमान से 0.49 डिग्री सेल्सियस अधिक था.
– 2500 से अधिक लोग मारे गये थे, पिछले साल देशभर में भयंकर लू और गर्मी के कारण.
नयी तकनीक के अदूरदर्शी हस्तक्षेप से गहरा रहा है संकट
डॉ गोपाल कृष्ण
पर्यावरण कार्यकर्ता
मानव सभ्यता के उत्थान और पतन में पर्यावरण, प्रौद्योगिकी और उसे उपयोग करनेवालों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. आज के आधुनिक समय में जब एक अमानवीय आर्थिक विचारधारा ने विभिन्न प्रकार की नयी प्रौद्योगिकी के प्रयोग से प्रकृति और भोजन चक्र के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है, नयी प्रौद्योगिकी के पर्यावरण और स्वास्थ्य पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव का वैज्ञानिक आकलन और कारगर कानूनी और तकनीकी रोकथाम एक ऐसा विषय है, जिस पर मानव सभ्यता का उत्थान और पतन निर्भर करता है.
हाल के दशकों में प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदा की घटनाएं बढ़ी हैं. मुनाफा-परस्त संस्थानों और नीति-निर्माताओं कीहठी अदूरदर्शिता के कारण मानव-निर्मित आपदाओं की शृंखला की कड़ियों का अंतहीन सिलसिला खत्म होता नहीं दिख रहा है. ऐसे में नयी प्रौद्योगिकी के साथ-साथ हमारी ‘संस्थाओं’ की पड़ताल भी जरूरी है, क्योंकि संस्थाएं हरेक आपदा के बाद चकित हो जाने का स्वांग रचती रही हैं.
एक व्यक्ति के लिए विस्मित होना स्वाभाविक है, मगर संस्थाएं जब आश्चर्यचकित होने का दावा करती हैं, तो उनके अस्तित्व पर ही सवाल उठता है. मानव समाज ने ‘संस्था’ के अधीन काम करना इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि उसके पास मौजूद अंतहीन स्मृति भंडार से विभिन्न प्रकार की आपदाओं से निपटा जा सकता है. लेकिन, पिछले चार सौ साल के संस्थाओं के इतिहास से लगता है कि उन पर ईश्वर जैसी आस्था का आधार ठोस नहीं है.
कारगर ब्लू प्रिंट का अभाव
पर्यावरण संकट और उससे निजात पाने के लिए किसी कारगर ब्लू प्रिंट का अभाव संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा देता है. भोपाल गैस कांड और जलवायु संकट के जवाब में जिस प्रकार संस्थाएं ठोस कदम उठाने के बजाय निवेश की मजबूरी और कार्बन बाजारी समाधान को पेश करती हैं, उससे किसी भी संस्था पर आस्था व्यक्त करना किसी अव्यक्त शक्ति के प्रति खोखली आस्था दर्शाने जैसा है.
भारत सरकार के प्रौद्योगिकी परिदृश्य 2020 और प्रौद्योगिकी परिदृश्य 2035 की तुलना करना इस संदर्भ में काफी समीचीन है.
2035 तक की स्थिति के संदर्भ में छह विराट चुनौतियों का जिक्र किया गया है, इसमें से पांच का संबंध पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन से है. खाद्य और पोषक आहार की सुरक्षा, नदियों और जल-स्रोतों में जल की मात्रा और गुणवत्ता, महत्वपूर्ण संसाधनों की सुरक्षा और जलवायु के स्वरूप को समझने और उसके अनुकूल ढालने आदि चिह्नित चुनौतियां से विवेकशील तरीके से जूझने के लिए एक नये प्रकार की चैतन्य सामाजिक संस्था की जरूरत का तर्क गढ़ती दिख रही है.
यह अपने आप में हैरतअंगेज बात है कि प्रौद्योगिकी परिदृश्य 2020 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन संबंधी उपरोक्त चुनौतियों पर चुप्पी साधे हुए हैं. मगर 2020 का यह परिदृश्य दस्तावेज न्यायायिक प्रक्रिया, पुलिसिया जांच, फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं और विज्ञान और टेक्नोलॉजी से जुड़ी संस्थाओं और सूचना व संचार संबंधी प्रक्रिया के साथ तालमेल बिठाने की जरूरत को चिह्नित करता है.
बाढ़ नियंत्रण के असर का आकलन नहीं
न्यायिक संस्थाओं और गैर-न्यायिक संस्थाओं के योगदान की पोल नेपाल और बिहार का सबसे बड़ा प्राकृतिक संकट खोल देता है. आज तक न तो केंद्र ने और न ही बिहार सरकार ने यह आकलन करने के लिए कोई सर्वेक्षण किया है कि बाढ़ नियंत्रण के वैज्ञानिक और तकनीकी उपायों का समाज के समाजिक आर्थिक परिस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा है. यही स्थिति नेपाल में भी है. मौजूदा समस्या का मूल कारण तटबंध है, जो अदूरदर्शी तकनीकी हस्तक्षेप का नतीजा है.
हॉलैंड में राइन और मियूस नदी को बांधने में असफल होने के बाद वहां के जलविज्ञान के जानकारों ने सुरक्षा का एक खास तरीका अपनाया है, जिसे ‘नदी के उन्मुक्त प्रवाह की जगह’ कहा जाता है. यह नयी आवधारणा एक व्यापक राजनीतिक समर्थन पर आधारित है.
बिहार के निवासियों से इस पर चर्चा करके आपसी सहमति बनाने की जरूरत है. जब तक कोसी जल निकासी संकट के दोषी अधिकारियों एवं संस्थाओं को जवाबदेह नहीं बनाया जायेगा, तब तक न सिर्फ वे पिछली गलतियां दोहरायी जायेंगी, बल्कि नयी अवधारणाओं और रणनीतियों को लागू करना भी मुश्किल होगा. यह बात जल संसाधन से जुड़ी संस्थाओं के मूल, क्रियाकलाप, और कानूनों से साफ होती है. फिलहाल, तटबंध की मरम्मत का कार्य जारी है.
ऐसे समय में उत्तरी बिहार और नेपाल में कोसी के बाढ़ क्षेत्र की इस पूरी आपदा पर और खासकर उत्तरी बिहार में कोसी घाटी के ड्रेनेज (जलनिकासी) पर एक श्वेत पत्र जारी किया जाये, ताकि मौजूदा नीतियों के कारण बंद हुई ड्रेनेज समस्या को हल किया जा सके. इससे समस्या और बाढ़ प्रवण क्षेत्र में बढ़ोतरी करनेवाली तथाकथित विपरीत हल की परिस्थतियों का पता लगना चाहिए.
कोसी को समझा जाना बाकी
रूस सरकार द्वारा जो कुछ साइबेरियन नदियों के साथ किया गया, उससे अराल समुद्र की जो दुर्दशा हुई है, उसे याद कर और पर्यावरण संकट के गंभीर परिणाम पर विचार कर बिहार सरकार को नदी जोड़ों योजना छोड़ देनी चाहिए. अराल समुद्र को दुनिया का सबसे बड़ा पर्यावरण संकट माना जाता है. बांध, तटबंध और उनकी मरम्मत जैसे बाढ़ नियंत्रण के उपायों से सिर्फ तात्कालिक भ्रामक राहत मिल सकती है. ऐसी परिस्थिति में नदी के बहाव क्षेत्र में बदलाव के कारकों का सूक्ष्म स्तर पर दीर्घकालिक और सावधानीपूर्वक अध्ययन की जरूरत है.
अब तक न ऐसा कोई तटबंध बना है और न भविष्य में बनेगा, जिसमें कटाव न आये. कोसी नदी के तटबंध में कटाव और पिछली नेपाली और भारत सरकार द्वारा बड़े बांध का प्रस्ताव के तर्क में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि कोसी को बांधा नहीं जा सकता. अपने विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों और जटिल जलविज्ञान के विशेषताओं के कारण कोसी, हिमालय और गंगा घाटी की एक ऐसी नदी है, जिसके बारे में अभी व्यापक रूप से समझा जाना बाकी है.
यह सही समय है कि नीति निर्माता ‘प्रकृति पर नियंत्रण’ करने की अपनी पुरानी अवधारणा का त्याग करें और यह मानें कि इस संकट से, जो कि एशिया का सबसे बड़े पर्यावरण संकट है, निपटने के लिए हमें बाढ़ और नदियों के साथ जीना सीखना होगा. वह विचारधारा, जो शहरीकरण को मानवता का मुक्ति मार्ग बताती रही है और जो नदी घाटी को केंद्र में नहीं रखती है, वह पर्यावरण और मनुष्य के लिए हितकारी नहीं रही है.

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