-हरिवंश-
यकीन नहीं होता, वह असरदार और नैतिक आवाज, अब नहीं सुन सकूंगा. यात्रा में ही खबर मिली कि विधायक महेंद्र जी मार डाले गये. यह सुन्न करनेवाली सूचना थी. तब से स्तब्ध, जड़ और अवाक हूं. उन हजारों लोगों की तरह, जिनका मन अब भी प्रतीक्षारत है कि कोई इसे अफवाह-झूठ बता दे.
हमारा समय, कालखंड कायरों-सुविधापरस्तों का है. वर्ड्सवर्थ ने फ्रांस की क्रांति के समय टिप्पणी की थी कि समय के इस कालखंड में जन्मना-साक्षी बनना (जब फ्रांस की क्रांति हो रही थी) वरदान था. इस कालखंड के उसूल पलट गये हैं. ताकत के सामने समर्पण, सुविधा-सत्ता के नाम अंतरात्मा, आवाज और साहस गिरवी, ये लक्षण हैं हमारे कालखंड के. इस कालखंड में महेंद्र जी ऐसी आवाज थे, जिन्हें सुनना-देखना ताकत देता था.
लिंकन ने अपने बच्चे के प्राथमिक स्कूल के अध्यापक के नाम खत लिखा था. क्लासिक खत है. आनेवाले हजारों वर्षों में इंसान को प्रेरित करनेवाला खत. उस खत में एक जगह लिंकन उस अध्यापक से गुजारिश करते हैं कि मेरे बच्चे को ऐसी शिक्षा दो कि वह अकेले सच कह सके. वह तब भी सच बोले, जब पूरी दुनिया उसके खिलाफ खड़ी हो. वह अपनी आत्मा-विवेक की आवाज, सच का दामन अकेले पड़ जाने के कारण न छोड़ दे.
महेंद्र जी की औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी. पर जीवन के अनुभवों में उन्हें ऐसा अध्यापक मिला, जिसने उन्हें पूरी भीड़ के सामने अकेले खड़े होने की ताकत दी. सच पर चलने का साहस-आत्मबल दिया. उनके साहित्य-अध्ययन, कानूनी जानकारी, बेखौफ-बेबाक सच बोलने का साहस, वह निसंगता, कबीर का फक्कड़पन, दार्शनिक दृष्टि और नैतिक बल ने उन्हें भीड़ में अलग बना दिया था.
कई बार सोचता था कि मौजूदा आधुनिक शिक्षा, शिक्षित तो बना रही है.
वेतन, सुविधा और उपभोग की संस्कृति में व्यक्तित्वों-बच्चों-छात्रों को ढाल रही है. वेतनभोगी बना रही है, पर वह इंसान, जिसकी कामना लिंकन ने प्राइमरी स्कूल के अध्यापक से की थी, विकसित नहीं कर रही. पर, किस परंपरा-परिवेश में स्कूल से शिक्षा न ग्रहण करनेवाले महेंद्र सिंह जैसा व्यक्तित्व विकसित हुआ और भीड़ के सामने एकला चलने – सच बोलने का साहस किया.
यह समय है कि विधायक (ऐसा न करनेवाले अपवाद विधायक हैं) बिना गये भत्ता लेते हैं, फरजी बिल बनाते हैं, विधानसभाध्यक्ष विशेषाधिकार के नाम पर विधानसभा में मनमानी नियुक्तियां करते हैं (बिहार विधानसभा में ऐसी घटनाएं हुईं), तब इन ताकतवरों के कुकर्मों के खिलाफ सिर्फ एक आवाज सुनाई देती थी, वह आवाज महेंद्र जी की थी. ऐसे ‘सुकमा’ के खिलाफ इस अकेली आवाज को बंद करानेवाली ताकतों ने हमारे कालखंड-दौर को सूना कर दिया है.
हमारे कालखंड की राजनीति-विधायकों की मुख्यधारा क्या है? जनराजनीति से निकल कर फाइव स्टारवाली दलाली की राजनीति में पारंगतता. इधर-उधर से लाबिंग. विधानमंडलों में बहस न होना, कानूनी प्रक्रिया-विधियों को न जानना, पढ़ने-लिखने से छत्तीस का रिश्ता. अपने कामकाज, अधिकार के बारे में अज्ञानता. इसी झारखंड से गरीबों की राजनीति, नक्सलियों की पीड़ा, जड़-जमीन के नारे लगा कर जो विधायक-मंत्री हुए, वे घोषित भ्रष्ट बन गये.
सार्वजनिक जगहों पर शराब सेवन करने लगे. सेवेन स्टार होटलों में शराब पीकर नाचने लगे, इन्हीं लोगों के बीच एक आवाज थी, जो खेत-खलिहानों से आयी थी. वह विधायक, विधानसभा के काम से ही पटना-रांची रहता था, या फिर गांव-देहात, खेत-खलिहानों में लौट जाता था. खेत-खलिहानों की आवाज शांत कर देनेवालों ने इस दौर का कितना नुकसान किया है, कभी समझेंगे?
यह दौर है, जब नेता, कंपनियों के अफसरों-सरकारी एक्सक्यूटिव जैसे बन गये हैं. नेता-कार्यकर्ता रिश्ता खत्म हो गया है. तब एक विधायक था, जो कार्यकर्ताओं की तरह चना-चबेना खाता था, उनके बीच-उनके साथ रहता था, सुरक्षा की परवाह नहीं करता था. गाड़ियों के काफिले और स्टेनगनों के बीच नहीं जीता था, यह अकेला प्रतीक भौतिक रूप से खत्म हो गया, पर क्या यह परंपरा खत्म हो जायेगी?
यह अकेली आवाज लालू-भाजपा को साथ-साथ कठघरे में खड़ी करती थी. एमसीसी से लेकर अन्य उग्र संगठनों के बारे में बेबाक टिप्पणी करती थी. मंत्रियों-सरकार पर लगाम लगाती थी. बददिमाग अफसरों को उनकी सीमा का एहसास कराती थी. जब दिल्ली से गांव- पंचायतों तक बेतहाशा बढ़ते भ्रष्टाचार को दलों-व्यवस्था-लोगों ने जीवन का हिस्सा मान लिया था, तब झारखंड में यह अकेली आवाज जन अदालतों में भ्रष्टाचार के मुद्दों पर बहस चला रही थी. इस आवाज को चुप करानेवाली ताकतें, क्या इस धारा को खत्म करना चाहती हैं?
यह झारखंड-बिहार की अकेली आवाज थी, जो हम पत्रकारों को उनकी गलतियां-सीमाएं बताती थीं. खबरों के बारे में उनकी बड़ी पैनी दृष्टि थी. वह बेबाक विवेचन करते थे. वह सीधे फोन करते थे. लंबी बातचीत और कबीर की तरह बेलाग बोलते थे. उनकी हर बातचीत-लंबे फोनों से हमने सीखा है, कुछ भिन्न-नया करने की दृष्टि पायी है. इस आवाज को चुप करानेवाली ताकतों ने झारखंड की पत्रकारिता का भी सही साथी-मार्गदर्शक छीन लिया है.
वह इस कालखंड में 1990 से लगातार विधायक रहे. जब एक बार विधायक बन कर पुश्तों का भविष्य संवारने की होड़ लगी है, कारों का काफिला, अपराधियों की सोहबत, कमीशनखोरी, धनार्जन, रुतबा वगैरह विधायकों की पहचान बन रहे हैं, तब भी बस में, जीप में, साधारण चाय दुकानों में आम आदमी की तरह जीनेवाला एक विधायक था. जन साधारण के कंधों पर सवार होकर जब विधायकी, विशिष्ट बनने की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल हो रही है, तब विधायक बन कर भी एक व्यक्ति बार-बार सामान्य लोगों में खो जाता था. क्या सार्वजनिक जीवन से यह विशिष्टता खत्म करने के लिए यह हत्या हुई है?