10.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

धर्म की कारोबारी संस्कृति

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया अगले साल उस प्रोटेस्टेंट सुधार आंदोलन की 500वीं वर्षगांठ मनायी जायेगी, जिसमें एक आदमी के विरोध ने यूरोप में ईसाइयत को बदल दिया था. हाल में भारत में एक ही दिन छपी दो रिपोर्टों ने मुझे उक्त घटनाक्रम का स्मरण कराया. आंध्र प्रदेश में 25 मई को खबर […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
अगले साल उस प्रोटेस्टेंट सुधार आंदोलन की 500वीं वर्षगांठ मनायी जायेगी, जिसमें एक आदमी के विरोध ने यूरोप में ईसाइयत को बदल दिया था. हाल में भारत में एक ही दिन छपी दो रिपोर्टों ने मुझे उक्त घटनाक्रम का स्मरण कराया. आंध्र प्रदेश में 25 मई को खबर प्रकाशित हुई कि मंदिरों की आय में 27 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. राज्य के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने इस वृद्धि को ‘बढ़ते पापों’ का परिणाम बताया. उन्होंने कहा कि ‘लोग पाप कर रहे हैं और उससे छुटकारे के लिए मंदिर जा रहे हैं और रुपया चढ़ा रहे हैं’.
उसी दिन उदयपुर से दूसरी खबर छपी थी, जिसकी सुर्खी थी- ‘एक पवित्र डुबकी और 11 रुपये से पापों से मुक्ति’. इस रिपोर्ट में बताया गया था कि राजस्थान के एक शिव मंदिर में पुजारी 11 रुपये के बदले ‘पाप-मुक्त’ होने का प्रमाणपत्र दे रहे हैं. इस धनराशि से ‘दोष-निवारण’ भी सुनिश्चित होता है यानी भविष्य की बाधाओं से राहत मिलती है.
इसका स्पष्टीकरण यह था कि निर्दोष समेत सभी लोग पाप करते हैं. एक पुजारी ने बताया कि ‘जब लोग खेती करते हैं, वे अनजाने में कीटाणुओं और अन्य जीवों की हत्या करते हैं, चिड़ियों और सरिसृपों के अंडे नष्ट करते हैं. इससे उनमें पापबोध पैदा होता है. वे यहां भारी मन से आते हैं, पर आराम के साथ वापस जाते हैं.
ईश्वर की ओर से पुजारियों द्वारा पैसे लेने की परंपरा सार्वभौमिक है, और जैसा कि मैंने पहले कहा, 500 साल पहले यह यूरोप में बड़े पैमाने पर होता था. रोमन कैथोलिक चर्च ‘इंडलजेंस’ नामक पत्र बेचा करता था. जो व्यक्ति पैसा देता था, जो कि बड़ी रकम हुआ करती थी, मत्यु के बाद के उसके जीवन में पापों के दंड कम हो जाते थे. इस पत्र की बिक्री व्यापक स्तर पर होती थी. वर्ष 1517 में पोप ने एक आदमी को धन की वसूली के लिए जर्मनी भेजा था. इस धन का इस्तेमाल वेटिकन में सेंट पीटर्स चर्च के निर्माण में होना था.
इसके विरोध में एक जर्मन पादरी ने कैथोलिक चर्च पर धर्म को भ्रष्ट करने का आरोप लगाते हुए एक लेख लिखा. उसने कहा कि पोप जो कर रहे हैं, उन्हें उसका अधिकार नहीं है. इस लेख को उसने अपने चर्च के दरवाजे पर चिपका दिया. इस पादरी का नाम मार्टिन लूथर था, और उसकी इस पहल ने प्रोटेस्टेंट सुधार का आधार रखा.इस आंदोलन ने ईसाईयत का बंटवारा कर दिया और इसी के कारण यूरोप के कई देश कैथोलिक नहीं हैं.
लूथर के दौर की ही तरह भारत में धर्म लेन-देन बन गया है. हम आशीर्वाद के बदले मंदिरों में दान करते हैं. धनी भारतीय नगदी की जगह सोना देते हैं. क्यों? ऐसा इसलिए कि नगदी प्रसाद और अन्य कल्याणकारी कामों पर खर्च कर दी जाती है, जबकि सोना ईश्वर के साथ बचा रहता है.
वर्ष 2009 के जून में कर्नाटक के मंत्री जी जनार्दन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में 45 करोड़ रुपये कीमत का हीरा जड़ा सोने का मुकुट दान किया था. मंदिर की वेबसाइट के अनुसार, तिरुपति को सिर्फ एक साल में 3,200 किलो चांदी और 2.4 किलो हीरा चढ़ावे के रूप में मिला था. इस मंदिर को औसतन हर साल एक हजार किलो सोना मिलता है.
मंदिर इसे प्रोत्साहित भी करता है. वर्ष 2011 में जिसने एक किलो सोना, जिसकी कीमत 28 लाख रुपये से अधिक है, दान दिया था, उसे बिना कतार में लगे मूर्ति के ‘वीआइपी दर्शन’ की सुविधा दी गयी थी. आज यह मंदिर एक करोड़ से अधिक के दान के बदले कई तरह की सुविधाएं देता है. मंदिर की वेबसाइट पर इनकी सूची देखी जा सकती है.
इस जानकारी से बहुत-से भारतीयों को कोई आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे यहां धर्म हमेशा से लेन-देन का कारोबार रहा है. कुछ महीने पहले मैं हिंदू धर्म के सबसे प्राचीन शहर बनारस (काशी) गया था, जहां हर धार्मिक गतिविधि की एक कीमत तय थी. आरती के दौरान बैठने की जगह के पैसे वसूले जाते थे. दशाश्वमेध घाट पर शाम की आरती के समय घंटी बजाने की डोर पकड़ने के बदले विदेशियों से भारी रकम ली जा रही थी. हर जगह तीर्थयात्रियों के साथ ग्राहकों जैसा व्यवहार हो रहा था. और, महत्वपूर्ण बात यह है कि तीर्थयात्रियों को इस बरताव से कोई परेशानी नहीं थी.
चूंकि यही संस्कृति है, इस कारण हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि धर्म के बाहर वास्तविक समस्याओं से जुड़े कल्याणकारी काम बहुत कम होते हैं. लेकिन, हमें इस पर बहुत अधिक चिंता भी नहीं करनी चाहिए. व्यापारियों द्वारा दान में भारी रकम देना पश्चिम में भी हाल में ही शुरू हुआ है.
वहां 19वीं सदी तक संगठित रूप से कल्याणकारी काम नहीं होते थे. धनी कारोबारी चर्च को एक निश्चित रकम दिया करते थे. यह रकम, जिसे तिथ कहा जाता था, आमदनी का करीब दसवां हिस्सा हुआ करती थी. वर्ष 1889 में उद्योगपति एंड्रू कारनेगी ने ‘द गॉस्पेल ऑफ वेल्थ’ नामक किताब लिखी, जिसमें उन्होंने कहा कि धनी लोगों पर अपना धन गरीबों में बांटने की जिम्मेवारी है. उनकी नजर में किसी के लिए धनी व्यक्ति के रूप में मरना अपमानजनक था.
कारनेगी के विचारों से बहुत लोग प्रभावित हुए और आज पश्चिम में बहुत धनी लोगों द्वारा मरने से पहले अपनी संपत्ति दान करने की परंपरा बन गयी है. वहां बिल गेट्स और वारेन वफे जैसे लोग गिने-चुने नहीं हैं. और ऐसा सिर्फ बहुत धनी लोग ही नहीं करते हैं.
नीदरलैंड में एक औसत नागरिक मासिक रूप से सात कल्याणकारी संस्थाओं में दान करता है. भारत में क्या स्थिति है? इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं.
जब तक भारत में भी ऐसे बदलाव नहीं आते हैं, और हम धर्म को कारोबारी और स्वार्थी नजरिये से देखना बंद नहीं करते हैं, यूरोप को बदलनेवाले सुधार यहां नहीं हो सकेंगे. हम बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि इसमें और 500 साल नहीं लगेंगे.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें