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प्रतिबद्ध पत्रकारों के प्रेरणा स्रोत थे जीतेंद्र बाबू

-हरिवंश- लुंबिनी, सारनाथ, कोणार्क, नालंदा, चंपारण, वह बार-बार लौटते थे, यायावर थे. बुद्ध, गांधी, जेपी आजादी की लड़ाई से जु़डी स्मृतियों से उन्हें आंतरिक ऊर्जा मिलती थी. जीतेंद्र बाबू को जाना कैसे? आरंभिक परिचय और वह भी पत्रिका में. बिहार या यूपी में नहीं मुंबई में. नयी नौकरी, उत्साह नया, धर्मयुग में काम शुरू किया. […]

-हरिवंश-

लुंबिनी, सारनाथ, कोणार्क, नालंदा, चंपारण, वह बार-बार लौटते थे, यायावर थे. बुद्ध, गांधी, जेपी आजादी की लड़ाई से जु़डी स्मृतियों से उन्हें आंतरिक ऊर्जा मिलती थी. जीतेंद्र बाबू को जाना कैसे? आरंभिक परिचय और वह भी पत्रिका में. बिहार या यूपी में नहीं मुंबई में. नयी नौकरी, उत्साह नया, धर्मयुग में काम शुरू किया. बंबई, बोरी बंदर स्थित टाइम्स ऑफ इंडिया के चौथे फ्लोर पर पत्रिकाओं के दफ्तर थे. धर्मयुग, इलेस्ट्रेड वीकली, माधुरी, सारिका, फिल्मफेयर वगैरह. पत्रिकाओं के पुराने अंक पलटने के लिए हम आतुर थे. किसकी बढ़िया रिपोर्ट छपी?

कौन-कौन लिखता है? ‘धर्मयुग’ के पुरानी फाइलें पलटने के क्रम में ‘67 के अकाल की रपटें पढ़ीं. पलामू में अकाल. जेपी की सक्रियता जीतेंद्र बाबू द्वारा लिखित. कई अंकों में. मर्मस्पर्शी रपटें बार-बार पढ़ी. उस अकाल पर बड़े-बड़े लोगों ने ‘डिस्पैच’ लिखे. पर यह कसक, मर्मस्पर्शी तथ्य और भाव कहीं और नहीं मिले. उन्हीं रपटों को पढ़ कर पता किया, कौन हैं जीतेंद्र बाबू? क्या बैकग्राउंड है. गणेश मंत्री जी से पूछा? डॉ धर्मवीर भारती से चर्चा की.

कभी-कभार बंबई से पटना आना होता था. शंकरदयाल जी के यहां जीतेंद्र बाबू से पहली मुलाकात हुई. वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ही पढ़े थे, जहां का मैं भी छात्र रहा. पूरी बातचीत में उन्हें पलामू की रपटों के बारे में ही पूछता रहा. बार-बार कहा, पुस्तकाकार रूप दें. बंबई छूटी. कलकत्ता ‘रविवार’ में रहा. तो भी मिलना होता. वह देवेंद्र बाबू, कोइराला परिवार, उपेंद्र महारथी परिवार, शंकरदयाल जी, कर्पूरी जी से जुड़े थे.

गहरे और आत्मीय ढंग से. इन जगहों पर भेंट होती प्रभात कभार में आने पर बड़े आग्रह से उनका स्तंभ शुरु कराया. अपने स्तंभ के एक-एक शब्द के बारे में वह चौकस रहते थे. अत्यंत संवेदनशील और विनयी. इतिहास दृष्टि उन्हें प्रकृति की सौगात थी. हर मुलाकात में उन्हें पलामू अकाल की रपटों को पुस्तकाकार देने का आग्रह करता. आश्वस्त करते, जरूर करूंगा. वह काम में परफेक्शनिस्ट थे. उनके पास हिंदी के साहित्यकारों के अद्भुत अनुभव थे.

बड़े राजनेताओं के जीवन के अनेक अनजाने-विशिष्ट पहलू. उन्हें संस्मरणों में उकेरने का आग्रह किया. राजगीर, लुंबिनी, नालंदा, सारनाथ वगैरह के बारे में जब वह सुनाते, तो आप सुध-बुध खो सकते थे. इतिहासकार संस्कृति के छात्र ही नहीं थे, इस विषय को ही अपने अध्ययन-ज्ञान का संसार बना लिया था. अब लगता है, उन्हें जानना पत्रकारिता की इस नयी दुनिया का अपराध ही था. वहां वह सात्विकिता और कहां हमारा बद… वर्तमान. आज के हम पत्रकार कैसे हैं?

महत्वपूर्ण पदों पर अधिसंख्य का ज्ञान संसार से सरोकार नहीं. विनय की अहंकार-उद्दंडता, जीवन, पाखंड में डूबा. कई बड़े पत्रकार संपादकों को नजदीक से देखा. जानता हूं. दिल्ली से छोटे … तक. उपदेश देते घूमते हैं. विदेशों में छुट्टियां मनाते हैं. फांका … करते थे. अब अरबों में खेलते हैं. शर्म, इसलिए नहीं कि विचार, संस्कार से सरोकार नहीं.

भारतीय पत्रकारिता का उतारकाल (1990) के बाद सौदेबादी की पत्रकारिता. ट्रांसफर-पोस्टिंग-दलाली, ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता जोर पकड़ रही है. ऐसे दौर में पत्रकारों को जो अपने पेश के प्रति प्रतिबद्ध हैं, जीतेंद्र बाबू जैसे लोगों से ही प्रेरणा मिलेगी भी.

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