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व्यर्थ के विवादों में उलझ कर गंवा दिये दो साल

सरकार के एजेंडे में नहीं है समाज मोदी सरकार ने बीते दो सालों में सामाजिक उत्थान की दिशा में अनेक पहलें की हैं. स्वच्छता अभियान और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे कार्यक्रमों से लेकर जन-धन और मुद्रा योजना जैसे समावेशीकरण के ठोस प्रयास हुए हैं. परंतु चिंता की बात यह है कि समाज में कटुता, असहिष्णुता […]

सरकार के एजेंडे में नहीं है समाज
मोदी सरकार ने बीते दो सालों में सामाजिक उत्थान की दिशा में अनेक पहलें की हैं. स्वच्छता अभियान और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे कार्यक्रमों से लेकर जन-धन और मुद्रा योजना जैसे समावेशीकरण के ठोस प्रयास हुए हैं. परंतु चिंता की बात यह है कि समाज में कटुता, असहिष्णुता और भेदभाव की घटनाएं बढ़ी हैं तथा इस संदर्भ में सत्ता पक्ष के कुछ नेताओं की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका रही है. समाज में शांति और सद्भाव विकास की आधारभूत शर्ते हैं. उम्मीद है कि शेष अवधि में सरकार समाज की बेहतरी के लिए जोर-शोर से सक्रिय होगी. सामाजिक स्तर पर मोदी सरकार के दो सालों के कामकाज और उपलब्धियों पर एक नजर…
शिव विश्वनाथन
समाजशास्त्री
मोदी सरकार के कार्यकाल का दो साल पूरा हो रहा है. इन दो सालों के कामकाज को सामाजिक पैमाने पर बेहतर नहीं कहा जा सकता है. इस सरकार के पास नीतियों की कमी नहीं है, लेकिन इन नीतियों के केंद्र में समाज नहीं है. पिछले दो साल में शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र में सरकार ने कुछ खास नहीं किया है.
देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में बेवजह हस्तक्षेप कर इसकी कार्यप्रणाली को खराब किया गया है. सरकार बनते ही प्रमुख शिक्षण संस्थानों में अपने चहेते लोगों को नियुक्त करने की कोशिश की गयी. इससे इन शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता पर प्रतिकूल असर पड़ा है और इसे ठीक करने में काफी वक्त लगेगा. देश के कई शिक्षण संस्थान को विवादों को अखाड़ा बना दिया. इससे शिक्षण का कार्य प्रभावित हुआ है.
मोदी के कार्यकाल में अति राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. चाहे आरएसएस, बजरंग दल हो या भाजपा, ये अति राष्ट्रवाद को अपने एजेंडे के तौर पर आगे बढ़ा रहे हैं. कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी, स्किल इंडिया या ‘मेक इन इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों से इसे ठीक नहीं किया जा सकता है. देश की अर्थव्यवस्था पर गौर करें तो इसमें अहम क्षेत्रों- सामाजिक क्षेत्र, रोजगार और कृषि- की हालत मौजूदा समय में सबसे खराब है. देश में बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है. कृषि क्षेत्र तो सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है, जबकि देश की सबसे अधिक आबादी कृषि पर आश्रित है. ऐसा लगता है कि मोदी सरकार राष्ट्रवाद के एजेंडे के लिए कुछ भी करने को तैयार है, लेकिन समाज के लिए उसके पास कोई एजेंडा नहीं है. सरकार की नीतियों के कारण सिविल सोसाइटी, पर्यावरण, शिक्षा और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ा है.
सरकार दावा कर रही है कि उसके कार्यकाल में गवर्नेंस काफी बेहतर हो गया है, लेकिन इसका असर जमीनी स्तर पर कहीं दिख नहीं रहा है. सरकार अनावश्यक विवादों में उलझी रही, जिससे दो अति महत्वपूर्ण साल बेकार हो गये. दो साल के कामकाज को रिपोर्ट कार्ड या विकास के पैमाने पर नहीं आंका जा सकता है, लेकिन दो साल में कम काम करके भी जमीनी स्तर पर व्यापक बदलाव लाया जा सकता है.
भाजपा देश निर्माण का अपना नजरिया सब पर थोपने का काम कर रही है. इसके लिए वह इतिहास को बदलने और स्कूलों के पाठ्यक्रम में बदलाव लाने की कोशिश कर रही है. सरकार प्राचीन विज्ञान को पुर्नजीवित करने की कोशिश कर रही है, लेकिन कृषि, मेडिसिन, आर्किटेक्चर में परंपरागत और स्थानीय जानकारी को दरकिनार कर रही है.
विकास के विभिन्न सूचकांक पर भी सरकार की उपलब्धियां खाली हैं. आर्थिक विकास दर को सरकार अच्छा बता रही है, लेकिन इसका लाभ आम लोगों को मिलता नहीं दिख रहा है. कई राज्यों में सशक्त जातियां आरक्षण की मांग कर रही है. गुजरात में पटेल, हरियाणा में जाट, आंध्र प्रदेश में कापू और कई राज्यों में उच्च जातियों ने आरक्षण को लेकर हिंसक आंदोलन किया. ऐतिहासिक तौर पर ये जातियां राजनीतिक और आर्थिक तौर पर सशक्त मानी जाती हैं, लेकिन अब इन्हें सरकारी नौकरियों के लिए आरक्षण चाहिए. इससे जाहिर हो रहा है कि प्रभावशाली समाज और प्रभावशाली हो रहा है. बहुसंख्यक समुदाय भी ऐसा करने की कोशिश कर रहा है. इससे समाज में हाशिये पर पड़े लोग कमजोर हो रहे हैं.
अल्पसंख्यकों में भय का वातावरण है. इसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता है. देश की विविधता में एकता की छवि को नुकसान पहुंचा कर हम प्रगति नहीं कर सकते हैं. ऐसे मामलों पर लगता है प्रधानमंत्री का नियंत्रण नहीं है और आरएसएस अपनी विचारधारा को देश पर थोपने की लगातार कोशिशें कर रहा है. विरोध करने वालों को राष्ट्रविरोधी बताया जा रहा है.
लोकतंत्र में सक्रिय सिविल सोसाइटी को होना बेहद जरूरी है. मौजूदा समय में मोदी सरकार के तौर तरीकों का राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मुखर विरोध नहीं हो रहा है, क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी कमजोर हो गयी है. देश में सभी विचारों को तरजीह मिलनी चाहिए और भारत की हमेशा से यही ताकत रही है. अगर इस ताकत को कमजोर होने दिया गया, तो हमारी संस्कृति पर एक खास सोच हावी हो जायेगी.
पूर्व सैनिकों का कल्याण
घोषणा पत्र में वादे
-पूर्व सैनिकों की तकलीफों की सुनवाई के लिए पूर्व सैनिक आयोग का गठन.
-पूर्व सैनिक अंशदायी स्वास्थ्य योजना (इसीएचएस) में सुधार तथा पूर्व सैनिकों के पुनर्रोजगार इस आयोग के कार्यक्षेत्र में होंगे.
-एक रैंक-एक पेंशन योजना को लागू करना.
अब तक क्या-क्या हुआ
पूर्व सैनिकों के लिए अपने किये गये एक वायदे को सरकार ने पूरा करते हुए ‘वन रैंक-वन पेंशन’ योजना को लागू कर दिया है. यह योजना पिछले चार दशक से लंबित थी. योजना का लाभ 1 जुलाई, 2014 से दिया जायेगा. एरियर का भुगतान चार छमाही किस्तों में किया जायेगा.
घोषणा पत्र में वादे
– संविधान के दायरे में राम मंदिर के निर्माण के लिए भी विकल्पों को तलाशा जायेगा.
– रामसेतु, सेतु समुद्रम् चैनल परियोजना पर निर्णय लेते समय उसके हमारी सांस्कृतिक विरासत का अंग होने और थोरियम भंडार के तथ्यों को दृष्टिगत रखा जायेगा.
– गाय और गौवंश की रक्षा की जायेगी.
– गंगा में निर्मलता व उसके प्रवाह में निरंतरता तथा सभी प्रमुख नदियों की स्वच्छता सुनिश्चित करना.
– सर्वश्रेष्ठ परंपराओं से प्रेरित और संविधान की भावना के अनुसार समान नागरिक संहिता.
अब तक क्या-क्या हुआ
– राम मंदिर के निर्माण के विकल्पों पर सरकार द्वारा किसी भी प्रकार का कोई कदम नहीं उठाया गया.
-कुछ महीनों पहले मुंबई में आयोजित मैरीटाइम इंडिया समिट में प्रधानमंत्री ने बंदरगाहों के विकास और व्यापार, यातायात को सुगम व बेहतर बनाने के उद्देश्य से सागरमाला प्रोजेक्ट की शुरुआत की. एक रिपोर्ट के अनुसार इस परियोजना से 2025 तक भारत का व्यापारिक आयात 110 बिलियन डॉलर के आंकड़े पर पहुंच सकता है. बताया जा रहा है कि इससे करीब एक करोड़ नौकरियां पैदा होंगी.
– गायों और गौवंश के संरक्षण का वादा भले ही सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र किया था, लेकिन इस दिशा में अभी कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया है, बल्कि इस मुद्दे पर सहमति कम और उलझनें ज्यादा बढ़ी हैं. मिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद से पर्यावरण मंत्रालय के पास गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने के लिए एक लाख से अधिक अनुरोध आया है. देश भर में 1830 पंजीकृत गौशालाएं हैं. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सरकार देसी गायों के दूध उत्पादन में बढ़ोतरी, पशुआहार की व्यवस्था जैसे मसलों पर काम कर रही है.
– अगस्त, 2015 में इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च द्वारा गायों के कल्याण पर आयोजित सेमिनार में देश भर से विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया था.
गंगा की निर्मलता और अविरलता
हमारी सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक विरासत को समेटने वाली गंगा नदी वर्षों से प्रदूषण के संकट से जूझ रही है. भाजपा ने गंगा की निर्मलता और अविरलता का वादा किया था. इसके लिए सरकार पिछले वर्ष 20 हजार करोड़ रुपये आवंटित किये थे. जुलाई, 2014 के बजट में सरकार ने ‘नमामि गंगे’ परियोजना की शुरुआत की थी. इसके तहत सरकार ने गंगा किनारे स्थित 48 औद्योगिक इकाइयों को बंद करने का आदेश दिया है. विभिन्न उपकरणों की मदद से आठ प्रमुख शहरों कानपुर, इलाहाबाद, मथुरा-वृंदावन, पटना, साहिबगंज, हरिद्वार और नवद्वीप में सफाई अभियान आरंभ किया है.
सामाजिक सद्भाव बनाम विवाद
1. नेताओं की फिसलती जुबान
सरकार और संगठन में भाजपा के कई नेता ऐसे रहे हैं, जो बीते दो वर्षों में समय-समय पर विवादास्पद बयान देकर मोदी सरकार की छवि खराब करते रहे हैं. उनके बयानों ने विरोधियों को सरकार को घेरने का मौका दिया है. यह भी उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री या भाजपा नेतृत्व की ओर से उन पर लगाम लगाने की गंभीर कोशिशें नहीं की गयी हैं. ऐसे नेताओं में गिरिराज सिंह, वीके सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति, कैलाश विजयवर्गीय, साध्वी प्राची, साक्षी महाराज आदि प्रमुख हैं.
2. ‘लव जिहाद’ और ‘घर वापसी’
सरकार बनने के साथ ही 2014 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने मसलिम युवकों पर हिंदू लड़कियों को बरगला कर शादी करने और धर्म परिवर्तन का आरोप लगाया. ऐसे बयानों से सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इलाके में तनाव का माहौल बना. इसी तरह से आगरा और अलीगढ़ में कुछ मुसलिम परिवारों का धर्म-परिवर्तन कर हिंदू धर्म में ‘घर-वापसी’ का अभियान चलाया गया. व्यापक विरोध के कारण कुछ दिन बाद भाजपा ने इन मुद्दों को उठाना बंद कर दिया.
3. गोमांस से जुड़े विवाद
बीते साल महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर सरकार ने अपने यहां गाय के मांस पर प्रतिबंध लगाया. भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने इसे देशव्यापी मुद्दा बना कर भावनाएं भड़काने की कोशिशें भी कीं, जिसमें कई जानें भी गयीं. गोमांस रखने के आरोप में उन्मादी भीड़ ने दादरी में अखलाक की हत्या की, तो झारखंड, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और बंगाल में स्वयंभू गौ-रक्षकों ने युवाओं को मार डाला. इस मुद्दे ने देश में सांप्रदायिक असहिष्णुता का वातावरण पैदा किया.
4. बुद्धिजीवियों की हत्या से भय का माहौल
कट्टरपंथी गिरोहों ने बीते साल फरवरी में महाराष्ट्र के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता गोविंद पानसरे तथा अगस्त में कर्नाटक के विख्यात शिक्षाविद् एमएम कलबुर्गी की हत्या कर दी. कुछ साल पहले इसी तरह से विद्वान तार्किक नरेंद्र दाभोलकर को मार दिया गया था. अनेक लेखकों को भी जान से मारने की धमकियां दी गयीं और हिंसक हमले किये गये.
जब इन घटनाओं के विरोध में लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और पत्रकारों समेत बड़ी संख्या में लोग खड़े हुए, तो उन्हें भी सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक तौर पर भला-बुरा कहा गया. अनेक विक्षुब्ध बौद्धिकों ने सरकारी पुरस्कार और सम्मान वापस कर अपना विरोध जताया था. इस आक्रोश के प्रति सरकार का रवैया चुप्पी-भरी अवमानना का रहा था.
5. छात्रों के साथ सरकार की तनातनी
बीते साल जून में टीवी कलाकार गजेंद्र चौहान को पुणे फिल्म संस्थान का अध्यक्ष नियुक्त करने के बाद सरकार को छात्रों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. छात्रों का कहना था कि भाजपाई चौहान इस पद के लायक नहीं हैं. यह विरोध 139 दिनों तक चला था. इससे पहले मद्रास आइआइटी में दलित छात्रों के एक संगठन पर पाबंदी लगाने की कोशिश की गयी थी. इसी तर्ज पर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में दलित छात्रों की गतिविधियों का दमन का प्रयास किया गया, जिसकी त्रासद परिणति शोधार्थी रोहित वेमुला की मौत के रूप में हुई.
इस मौत ने छात्रों का एक देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर दिया. अभी इस आंदोलन की आंच कम भी नहीं हुई थी कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथ-समर्थक छात्रों पर देशद्रोह का आरोप मढ़ दिया गया. छात्रों की गिरफ्तारी और सरकार की शह पर हिंदुत्व संगठनों द्वारा विश्वविद्यालय को निशाना बनाये जाने के विरोध में देश भर में आवाजें उठीं. बीते तीन पांच महीनों से अनेक संस्थानों के छात्र मोदी सरकार की नीतियों के विरोध में आंदोलनरत हैं.
6. ‘भारत माता की जय’ के नारे पर ध्रुवीकरण
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा ‘भारतमाता की जय’ के नारे को देशभक्ति का प्रमाण बताने और सांसद असदुद्दीन ओवैसी द्वारा इसका विरोध किये जाने के बाद सरकार और भाजपा ने इस मुद्दे को उछाल कर देशभर में ध्रुवीकरण की कोशिश की, जिसका राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर व्यापक विरोध हुआ.विरोधियों ने इसे बेमानी मुद्दा बताने हुए सरकार पर इसकी आड़ में अपनी विफलता को छुपाने का आरोप लगाया.
गरीब और कमजोर तबकों के लिए बड़े कदमों का इंतजार
अभय कुमार दुबे
सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक
दलित-वंचित, पिछड़ा वर्ग और स्त्रियां, ये ऐसे सामाजिक पहलू हैं, जिनको मजबूत किये बिना समाज में समरसता की उम्मीद करना बेमानी है. दलितों-वंचितों को समाज की मुख्यधारा में लाने की पुरजोर कोशिशों के बिना हमारा सामाजिक स्तर मजबूत नहीं हो सकता. बीते दो सालों में हमारे समाज में सांप्रदायिक विभाजन की गतिविधियां, ध्रुवीकरण, राजनीतिक तानाशाही जिस तरह से बढ़ी है, साफ तौर पर दिख रहा है कि यह सरकार बहुसंख्यकवाद के जरिये समाज को बांटने का काम कर रही है.
केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद आरएसएस ने एक मुहिम चलायी कि भाजपा को अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करना चाहिए और दलितों को भी अपने दायरे में लेना चाहिए. इस मुहिम के तहत डाॅ आंबेडकर को अपना पैरोकार बताने और उनके विचारों को अपना मान लेने की एक होड़ शुरू हो गयी. यह एक व्यवस्थित और योजनाबद्ध कार्यक्रम था, जिसे मोदी सरकार ने शुरू किया, लेकिन तभी हैदराबाद में रोहित वेमुला की घटना हो गयी, जिसके बाद से यह कार्यक्रम पूरी तरह से असफल हो गया.
गुजरात में भाजपा ने अनुसूचित जनजातियों के लिए कुछ काम किया और उन्हें अपने पाले में ले आयी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर एसटी के लिए सरकार ने कुछ नहीं किया, क्योंकि एसटी भाजपा के एजेंडे में हैं ही नहीं. पूरे मध्य भारत के आदिवासी माओवादियों के प्रभाव में हैं. छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा, बंगाल और महाराष्ट्र के आदिवासी इलाकों के लिए सरकार की कोई विशेष पहलकदमी नजर नहीं आती.
मोदी सरकार ने तो अपने पहले बजट में ही एससी-एसटी प्रावधानों में कटौती की थी, जिसका दलित संगठनों ने बहुत विरोध किया था. आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए आरएसएस एक अरसे से मुहिम चलाता आ रहा है, लेकिन वह आदिवासियों के हिंदूकरण की मुहिम होकर रह गया है, उनके उत्थान की मुहिम नहीं.
दूसरा सवाल स्त्रियों को लेकर है. केंद्र में मोदी सरकार के बनने के बाद हुए बिहार और दिल्ली के चुनावों में स्त्रियों ने मोदी के नाम पर वोट नहीं दिया. बिहार में ग्रामीण स्त्री और दिल्ली में शहरी स्त्री- इन दोनों मतदाताओं को मोदी सरकार अपनी ओर खींचने में विफल रही. इसका कारण यह है कि स्त्री मतदाताओं के लिए भाजपा के पास कोई विशेष कार्यक्रम नहीं है. एक भी ऐसा कार्यक्रम नहीं है, जिससे यह कहा जा सके कि यह सरकार ‘जेंडर फ्रेंडली गवर्नमेंट’ है.
दो साल हो गये लेकिन संसद के पटल पर अब भी महिला आरक्षण बिल नहीं रखा गया है, हालांकि महिलाओं को समर्थन करने की जबानी जमा खर्च भाजपा करती रहती है. कहने का अर्थ यह है कि जो हमारे महत्वपूर्ण सामाजिक सूचक होते हैं- कि सरकार स्त्रियों के लिए क्या कर रही है, दलितों-वंचितों के लिए क्या कर रही है, आदिवासियों के लिए क्या कर रही है, इन सभी प्रश्नों पर मोदी सरकार बीते दो साल में विफल नजर आयी है. अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जिस समाज में बहुसंख्यकवाद से अल्पसंख्यक तबके में डर बन जाये, उस समाज को समृद्ध समाज कैसे माना जा सकता है?
समाज में अगर कोई वर्ग पिछड़ा हो, तो सामाजिक समृद्धि नहीं कही जा सकती है. इस स्तर पर भी मोदी सरकार विफल रही है, जिस कारण सभी पिछड़े वर्गों ने मोदी सरकार को पूरी तरह से नकार दिया है. जिस हिंदू एकता की बात भाजपा और आरएसएस के लोग करते हैं, वह एकता तो तभी बन पायेगी, जब सभी पिछड़े वर्ग के लोग और ऊंची जातियां मिल कर एकताबद्ध हों.
जिस एकता के लिए बाल गंगाधर काम किया करते थे, वह एक विराट विचार है एकता का. कांशीराम के बहुजन विचार में भी एकता का बहुत बड़ा पहलू है, जिसमें दलित, वंचित, पिछड़े, मुसलिम सभी एक साथ दिखाई देते हैं. यानी यह जो सामाजिक पृष्ठभूमि है, इसमें भाजपा ने कोई बहुत बड़ी कामयाबी हासिल नहीं की है. इस स्तर पर उसने अभी तक जो भी योजनाएं बनायी हैं, उनकी सफलता संदिग्ध है, क्योंकि उनकी सोच में सामाजिक समरसता का ख्याल है ही नहीं, सिर्फ जबानी जमाखर्च है.
समाज का एक बड़ा हिस्सा गरीब और कमजोर होता है और वह आम बहाव की ओर चलता है. इस आम बहाव के लिए भाजपा को कोई ऐसा चमत्कारिक कदम उठाना पड़ेगा, जिसका लाभ सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि समाज के पिछड़े वर्गों को भी मिल सके. नहीं तो भाजपा के लिए मुश्किल हो जायेगा कि वह आगामी चुनावों में कोई बढ़त हासिल कर पाये.

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