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एम्स के पास ट्रकचालकों के ”आतंक” से हिंसा की आशंका
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक पटना एम्स के पास के कुछ गांवों के हजारों लोग इन दिनों लगातार सैकड़ों उदंड ट्रक चालकों का ‘आतंक’ झेल रहे हैं. ऐसा महीनों से हो रहा है. पर आम लोगों को बचाने की फुरसत शासन को नहीं है. जबकि, जदयू एमएलसी नीरज कुमार पटना के डीएम और एसएसपी को इस […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
पटना एम्स के पास के कुछ गांवों के हजारों लोग इन दिनों लगातार सैकड़ों उदंड ट्रक चालकों का ‘आतंक’ झेल रहे हैं. ऐसा महीनों से हो रहा है. पर आम लोगों को बचाने की फुरसत शासन को नहीं है.
जबकि, जदयू एमएलसी नीरज कुमार पटना के डीएम और एसएसपी को इस जोर-जबरदस्ती की लिखित सूचना पहले ही दे चुके हैं. शासन ने यह आदेश जरूर जारी कर रखा है कि बाहरी ट्रक फुलवारीशरीफ -नौबत पुर-शिवाला के रास्ते गुजरेंगे. पर, वह आदेश कागज पर है. इस आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए ट्रक चालक जबरन शाॅर्टकट रास्ते से गुजर रहे हैं. ट्रक चालक एम्स से थोड़ा आगे बढ़ कर ट्रकों को एनएच से नीचे खेतों में उतार देते हैं.
फिर खेतों को रौंदते हुए चकमुसा-जमालुददीन मार्ग पर चढ़ जाते हैं. इस जबरन चढ़ाई से सड़क टूट रही है. प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत निर्मित चकमुसा-जमालुददीन सड़क पहले से ही कमजोर और पतली है. भारी वाहनों से वह जहां-तहां टूट रही है. कोरजी गांव के पास तो उस सड़क के एक हिस्से को ट्रक चालकों ने तोड़ दिया है.
यदि कुछ सप्ताह आवाजाही जारी रही तो सड़क पूरी तरह टूट जायेगी. हजारों स्थानीय लोगों की आवाजाही बंद हो जायेगी. सड़कों को तोड़ने और उन पर अतिक्रमण करनेवालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए अलग से कोई सरकारी एजेंसी होती तो ऐसी नौबत नहीं आती. रोज सैकड़ों ट्रक उस ग्रामीण रास्ते से नाजायज तरीके से गुजर रहे हैं.इस बीच छोटे और मझोले वाहन चालक डर-डर कर वाहन चला रहे हैं. लोगों का पैदल चलना भी मुश्किल है.
टूट रही सड़क और खेतों से उड़ती गहरी धूल से परेशानी है. डीजल के मोटे धुएं से लोगों का जीवन नरक बन चुका है. कहीं-कहीं बिजली के नंगे तारों के ट्रकों से छू जाने का खतरा भी है. कई सड़क दुर्घटनाएं हो चुकी हैं. विरोध करने ट्रक चालक ग्रामीणों से गाली-गलौज करते हैं और मारपीट पर उतारू हो जाते हैं. इसको लेकर कभी भी हिंसक घटनाएं भी हो सकती हैं.
कांग्रेस की पराजय चिंताजनक स्वाभाविक ही है कि कांग्रेस की शर्मनाक पराजय पर भाजपा जश्न मनाये. एक राष्ट्रीय दल की ऐसी दुर्दशा देश के लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है. हालांकि इस राष्ट्रीय दल के पराभव के लिए खुद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ही जिम्मेदार है. कांग्रेस की लगातार पराजयों का श्रेय भाजपा को कम खुद कांग्रेस के अपने शीर्ष नेतृत्व को अधिक है. चुनावी दृष्टि से कांग्रेस समय-समय पर मजबूत और कमजोर होती रही है, पर उससे अनेक लोगों की यह उम्मीद रही है कि वह देश को एक सूत्र में जोड़े रखने वाली पार्टी है.
पहले की चुनावी पराजयों के बाद कांग्रेस उठ खड़ी भी होती रही, पर, क्या इस ताजा पराजय के बाद ऐसा हो पायेगा? खुद कांग्रेसियों, उनके समर्थकों और कट्टर भाजपा विरोधियों की सदिच्छा को छोड़ दें तो कोई व्यक्ति इस सवाल का धनात्मक जवाब नहीं दे रहा. गत लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक हार से भी कांग्रेस नेतृत्व ने कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की. सन 2014 के बाद कांग्रेस नेतृत्व के पास एक अवसरथा. वह अपनी राज्य सरकारों से कुछ ऐसे चौंकाने वाले जनहितकारी काम करवा सकती थी, जिनसे लोगों को यह लगता कि वे भाजपा सरकारों से बेहतर हैं.
पर यह नहीं हुआ. इंदिरा गांधी ने 1969-70 में अपने ऐसे ही कुछ चौंकाने वाले कामों के जरिये 1971 के लोस चुनाव में राजनीतिक विरोधियों को मात दी थी. 1969 में कांग्रेस के महा विभाजन के बाद एक तरफ इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गयी थी. दूसरी ओर कांग्रेस संगठन का अधिक हिस्सा निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली ‘संगठन कांग्रेस’ में चला गया. आज तो जब भी कांग्रेस कोई चुनाव हारती है तो कांग्रेस नेतृत्व कहता है कि वहां कांग्रेस का संगठन कमजोर था. इंदिरा ने ऐसे बहाने बनाने की जगह व्यापक जनहित में कई काम किये.
उन्होंने गरीबी हटाओ के नारे के तहत 16 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ. पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त कर दिये गये. इस तरह देश के अधिकतर गरीबों को उन्होंने यह समझा दिया कि वह गरीबों के लिए काम कर रही हैं और उनके राजनीतिक विरोधी पूंजीपतियों के प्रवक्ता हैं.
केंद्र की यूपीए सरकार भी ऐसे काम नहीं कर सकी : उल्टे कांग्रेस की राज्य सरकारों के घोटालों की खबरें आती रहीं. कांग्रेस नेतृत्व ने अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार व घोटालों के आरोपों का गत दो वर्षों से बचाव करने में ही अधिक समय जाया किया.
कई लोगों को यह भी लग रहा था कि कांग्रेस संसद के भीतर और बाहर मोदी सरकार से इसीलिए लड़ रही है क्योंकि मोदी सरकार कांग्रेस के नेताओं को इन मामलों में कोई राहत नहीं दे रही है. ऐसे में ताजा चुनाव रिजल्ट यही आना था. पर कुल मिलाकर वैसे लोग दु:खी है, जो एक सत्ताधारी राष्ट्रीय दल के खिलाफ दूसरे मजबूत राष्ट्रीय दल की उपस्थिति की जरुरत महसूस करते हैं.
अविरलता के बिना निर्मलता कहां! : नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने गंगा की सफाई पर गंभीर विचार-विमर्श के लिए उत्तर प्रदेश के संबंधित अफसरों की बैठक 20 मई को बुलाई है.उम्मीद है कि उस बैठक में कोई ठोस फैसला होगा. नमामि गंगा अभियान में लगे लोगों ने हाल के महीनों में अच्छी पहल जरूर की है. पर वे लोग भी गंगा में बढ़ते जानलेवा प्रदूषण की समस्या के मूल कारणों के निदान की दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं.एक बात उन्हें समझ लेनी चाहिए कि जब तक गंगा को अविरल नहीं बनाया जायेगा, तब तक वह निर्मल हो ही नहीं सकती.
अविरल का मतलब यह है कि हिमालय के पानी को निर्बाध रूप से गंगा सागर तक जाने दिया जाये. पर आज ऐसा नहीं है. पानी को बीच रास्ते में ही रोक कर नहरों में प्रवाहित कर दिया जाता है या अन्य कामों में इस्तेमाल किया जाता है. असलियत तो यह है कि पटना किनारे की गंगा में हिमालय के पानी का एक बूंद भी नहीं है.
और अंत में
उत्तर भारत और दक्षिण भारत की चुनावी राजनीति में क्या फर्क है? एक खबर के अनुसार तमिलनाडु के एक विधान सभा चुनाव क्षेत्र के दो अरबपति उम्मीदवारों ने औसतन पांच मतदाताओं वाले परिवारों को रिश्वत में एक-एक स्कूटर बांटे. ‘स्कूटर फॉर वोट.’ पर, उत्तर भारत में किसी उम्मीदवार ने अबतक मुफ्त में साइकिल बांटने तक की जरुरत नहीं समझी है. यहां के लोग छोटी-बड़ी नगदी से ही अभी काम चला रहे हैं.
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