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भारतीय चुनावों की विसंगतियां

एक सौ तीस करोड़ नागरिकों के हमारे देश में त्रि-स्तरीय लोकतंत्र की बुनियाद है- स्वतंत्र, ईमानदार एवं नियमित चुनाव. स्वतंत्र- इसलिए कि चुनाव आयोग एक बेहद शक्तिशाली संवैधानिक निकाय है, ईमानदार-चूंकि अब बूथ लूटना लगभग असंभव है और इवीएम के आने से धोखाधड़ी पर काफी अंकुश लगा है और नियमित- संसद और राज्य विधानसभा चुनावों […]

एक सौ तीस करोड़ नागरिकों के हमारे देश में त्रि-स्तरीय लोकतंत्र की बुनियाद है- स्वतंत्र, ईमानदार एवं नियमित चुनाव. स्वतंत्र- इसलिए कि चुनाव आयोग एक बेहद शक्तिशाली संवैधानिक निकाय है, ईमानदार-चूंकि अब बूथ लूटना लगभग असंभव है और इवीएम के आने से धोखाधड़ी पर काफी अंकुश लगा है और नियमित- संसद और राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान हम इसका अनुभव करते ही हैं. भारत का आम चुनाव विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक कार्यवाही है, जिसका अध्ययन करने दुनिया भर के लोग आते हैं. हमारी यही छवि हमें पाकिस्तान और चीन जैसे देशों से अलग करती है. लेकिन तीन ऐसी संस्थागत विसंगतियां हैं, जो आज भी हमारी व्यवस्था को चुनौती देती हैं. आइये देखें, किन सुधारों से और बेहतर हो सकती है हमारी चुनाव व्यवस्था.

नंबर एक – लोकतांत्रिक चुनाव का मूल मंत्र होता है ‘एक व्यक्ति – एक मत – एक मूल्य.’ एक व्यक्ति-एक मत यानी हर नागरिक को एक समान नियमों के तहत मताधिकार प्राप्त होगा. ऐसा संविधान ने वयस्क मताधिकार से सुनिश्चित किया है. हां, मतदाता सूची की गड़बड़ियों से कभी-कभी लोग मतदान से वंचित रह जाते हैं, लेकिन पिछले दस वर्षों में चुनाव आयोग ने इसे बहुत हद तक सुधार दिया है. लेकिन एक हिस्सा छूट गया है -‘एक मत – एक मूल्य.’ यह चिंताजनक है कि राष्ट्रीय चुनावों में (लोकसभा चुनाव) हर नागरिक के मत का एक मूल्य नहीं होता. यही है परिसीमन की कहानी.

परिसीमन (डीलिमिटेशन) यानी निर्वाचन क्षेत्रों का अचूक भौतिक रेखांकन, जो इस सूत्र से तय होता है कि प्रत्येक राज्य को लोकसभा में आवंटित सीटों की संख्या और उसकी जनसंख्या का अनुपात देश भर के लिए लगभग बराबर रहे. यह कार्य परिसीमन आयोग करता है, जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती. वर्ष 1956 में प्रथम परिसीमन आयोग ने लोकसभा सीटें 494 और कुल राज्य विधानसभा सीटें 3,102 तय की थीं. द्वितीय आयोग ने 1967 में यह संख्या क्रमश: 520 और 3,563 कर दी. अंतिम बार तीसरे परिसीमन आयोग ने 1976 में इसे बढ़ा कर 542 (बाद में 543) और 4,033 कर दिया.

एक बड़ी समस्या यह थी कि कुछ राज्यों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही थी. दूसरी ओर, कुछ अन्य राज्य (मसलन दक्षिणी राज्य) परिवार नियोजन कार्यक्रमों को सुचारु ढंग से लागू कर रहे थे. राजनीतिक संतुलन बना रहे और केवल कुछ राज्य लोकसभा में बहुसंख्यक न बन जाएं, इसलिए तय किया गया कि 543 (दो सीटें आंग्ल भारतीयों के लिए अतिरिक्त) की यह संख्या, जो 1971 जनगणना से निर्धारित की गयी थी, फ्रीज कर दी जायेगी, और अगली बार ये संख्या 2026 (यानी 1976 के पचास साल बाद) के बाद की पहली जनगणना, अर्थात् 2031 के आधार पर बदली जायेगी. जरा सोचिए, राज्यों की जनसंख्याओं में कितना भारी अंतर आ चुका है और 2031 तक उत्तर भारत के भारी आबादी के राज्यों के नागरिकों के मतों का मूल्य सापेक्षतः कितना कम हो चुका होगा. राज्यवार भी हर राज्य विधानसभा की सीटों की संख्या 1971 की जनसंख्या से फ्रीज कर दी गयी है.

यहां दो बातें समझ लें- पहली यह कि स्थानीय स्व-शासन निकाय (शहरी व ग्रामीण) इसी वजह से महत्वपूर्ण हो गये हैं. दूसरी यह कि संविधान के 87वें संशोधन (2003) से अनुसूचित जाति/ जनजाति सीटों में परिवर्तन और क्षेत्रों की सीमाओं का पुनः रेखांकन 2001 जनगणना के हिसाब से 2008 में चौथे परिसीमन आयोग ने कर दिया (जो 2009 के आम चुनावों में लागू भी हो गया). आज 543 में एससी सीटें 84 और एसटी 47 हैं. यह चुनाव व्यवस्था की सबसे बड़ी विसंगति है.

नंबर दो- पंचायती राज जैसी शानदार और विशाल प्रणाली की सबसे बड़ी अव्यवस्था. 73वें और 74वें संविधान संशोधनों (1992 और 1993) से स्थानीय स्व-शासन लागू हुआ. आज देश भर में ढाई लाख ग्रामीण पंचायतें और कई हजार शहरी निकाय हैं. इनमें तीस लाख से अधिक प्रतिनिधि चुन कर आते हैं. चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों को केंद्र सरकार ने मान लिया है और 2015 से 2020 तक कुल ढाई लाख करोड़ रुपये इन स्थानीय इकाइयों को दिये जायेंगे. समस्या यह है कि इन निकायों को जो संवैधानिक शक्तियां दी गयी हैं, उनको लागू कराने का काम राज्यों सरकारों का है, जिसमें अक्सर सरकारेंें विफल हो जाती हैं. संविधान के अनुसार, निकायों के चुनाव राज्य चुनाव आयोगों की निगरानी में होंगे. सबसे बड़ी दिक्कत है- राज्य चुनाव आयोगों का शक्तिहीन होना, चुनाव आयुक्तों का पद-स्तर कम होना और परिसीमन समय पर न होना. एक ओर विधानसभा और लोकसभा में आबादी के हिसाब से बहुत कम प्रतिनिधि पहुंच रहे हैं और दूसरी ओर, कई राज्य पंचायत और शहरी निकाय चुनाव ढंग से नहीं करवा पाते हैं.आज नागरिक ये मांग कर सकते हैं कि हमारी खून-पसीने की कमाई, जो आवंटन के रूप में इन निकायों को दी जाती है, उसका सही ढंग से उपयोग हो. यदि ईमानदार चुनाव नियमित नहीं होंगे, तो इस व्यवस्था की मूल भावना ही नष्ट हो जायेगी. अतः हर राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष राज्य चुनाव आयोग का गठन होना चाहिए.

नंबर तीन- धन और बाहुबल का बेहिसाब प्रयोग. यद्यपि समय के साथ चुनाव आयोग ने कड़ाई से इसे नियंत्रित करने का प्रयास किया है, लेकिन आज भी गुंडे-बदमाशों और काले धन की मदद से हर स्तर पर मतदाताओं को प्रभावित किया जाता है. क्या राज्य-फंडिंग से यह समस्या रुक पायेगी? क्या पार्टियों के अकाउंट ऑडिट होने पर यह रुकेगा? क्या आरटीआइ से समस्या कम हो सकेगी? सबसे डरावनी बात है पंच-सरपंच चुनावों तक में धन-बल का प्रयोग बढ़ते जाना. तो क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि व्यापक चुनाव सुधार और कड़े दंडात्मक प्रावधान लागू किये जायें. यदि पंचायती राज भी बीमारियों के शिकार बन गये तो पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का क्या होगा?

जिस प्रकार हमारा आकार और युवा वर्ग की संख्या बढ़ रही है, हमें देश की इन मूल व्यवस्थाओं को जड़ से सुधारना होगा. यह काम केवल आयोगों और प्रतिनिधियों का नहीं है – जागरूक नागरिक यदि ये सवाल लगातार करेंगें तो व्यवस्था सुधारने में गति जरूर आयेगी. आइये, हर स्तर पर इन मुद्दों को जीवंत रखें.
संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
sm@ptuniverse.com

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