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शोर में बुजुर्गों की सिसकियां

ह्वीलचेयर पर बैठी 90 वर्षीया मां और उनको 7-रेसकोर्स वाले अपने सरकारी आवास के बगीचे के फूल-पत्तियों से भेंट कराते प्रधानमंत्री! कोई तसवीर अखबार या इंटरनेट के पन्ने पर प्रकाशित होकर आंखों के रास्ते सीधे दिल में उतर जाये और मन को मानवीय अच्छाई के प्रति आश्वस्त करे- ऐसा विरले ही होता है. मां के […]

ह्वीलचेयर पर बैठी 90 वर्षीया मां और उनको 7-रेसकोर्स वाले अपने सरकारी आवास के बगीचे के फूल-पत्तियों से भेंट कराते प्रधानमंत्री! कोई तसवीर अखबार या इंटरनेट के पन्ने पर प्रकाशित होकर आंखों के रास्ते सीधे दिल में उतर जाये और मन को मानवीय अच्छाई के प्रति आश्वस्त करे- ऐसा विरले ही होता है. मां के आगे विनयवत खड़े प्रधानमंत्री की तसवीर कुछ ऐसी ही थी.
तसवीर ने मन को सकून दिया कि चलो इसी बहाने सही, सवा अरब लोगों के यंगिस्तान कहलाते इस देश में 10 करोड़ से ज्यादा की संख्या में मौजूद बुजुर्ग आबादी के सवाल को एक पहचान और आवाज तो मिली अन्यथा सालाना बजट-भाषण हो, सत्रों में जोर पकड़ने वाली संसद की बहसें या फिर मीडिया की सरगर्म सुर्खियां- बुजुर्गों का हाल-अहवाल अपनी तल्ख सच्चाइयों के साथ कहीं भी दर्ज नहीं होता.


प्रधानमंत्री की मां गुजरात के बडनगर कस्बे के अपने घर लौट गयी हैं. प्रधानमंत्री ने ट्विट किया है कि ‘काफी लंबे समय के बाद मां के साथ अच्छा वक्त बिताया’. लेकिन देश के ज्यादातर बुजुर्गों की सच्चाई कुछ अलग है. सांख्यिकी और क्रियान्वयन मंत्रालय की हाल की रिपोर्ट बताती है कि देश के ज्यादातर बुजुर्गों का समय बदहाली में गुजर रहा है और इस बदहाली के कई पहलुओं में से एक यह है कि उन्हें अपने रोजमर्रा का खर्च निकालने के लिए कोई ना कोई काम करना पड़ता है, जबकि बुढ़ापे की उम्र आराम और देखभाल खोजती है.


सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक लगभग सात करोड़ तीस लाख यानी देश की 71 फीसद बुजुर्ग आबादी गांवों में रहती है, जबकि तकरीबन साढ़े तीन करोड़ बुजुर्ग (कुल का 29 प्रतिशत) शहरी हैं. गंवई भारत में 66.4 प्रतिशत बुजुर्ग पुरुष और 28.4 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं अपना खर्च निकालने के लिए औने-पौने भुगतान पर कोई ना कोई काम करने को मजबूर हैं. शहरी बुजुर्गों की भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही है. शहरों में रोजमर्रा का खर्च निकालने के लिए काम करने को मजबूर बुजुर्ग पुरुषों की संख्या 46.1 प्रतिशत है, तो बुजुर्ग महिलाओं की 11.3 प्रतिशत. बुजुर्गों को गंवई या शहरी इलाके में किस तरह का काम हासिल होता होगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि शहरी इलाकों में 30.3 प्रतिशत बुजुर्गों की शिक्षा माध्यमिक स्तर या इससे आगे तक हुई है जबकि जबकि गंवई भारत में ऐसे बुजुर्गों की तादाद केवल 7.1 प्रतिशत है. बुढ़ापे में काम करने की मजबूरी के बावजूद ज्यादातर बुजुर्ग इतनी रकम नहीं जुटा पाते कि अपना भरण-पोषण खुद कर सकें. पांच साल पहले आयी नेशनल सैंपल सर्वे की एक रिपोर्ट में दर्ज था कि देश के 65 फीसद बुजुर्ग रोजमर्रा के खर्च के लिए दूसरों पर निर्भर हैं. बुजुर्गों के सशक्तीकरण के लिए सक्रिय नागरिक संगठन हेल्पेज इंडिया की एक रिपोर्ट (2014) में कहा गया है कि दुर्व्यवहार के शिकार 46 फीसद बुजुर्ग आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर होने को अपने साथ होनेवाले बुरे बरताव की प्रमुख वजह मानते हैं.


शर्मनाक तथ्य यह है कि जहां एक तरफ देश में बुजुर्ग आबादी बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ बुजुर्ग के लिए दी जानेवाली सरकारी मदद का दायरा सिकुड़ रहा है. बुजुर्गों की मदद के लिए चलाये जा रहे इंटीग्रेडेट प्रोग्राम फॉर ओल्डर पर्संस के प्रयासों के दायरे में बीते तीन सालों में कमी आयी है. 2012-13 में इस कार्यक्रम के तहत केंद्र सरकार ने 296 स्वयंसेवी संगठनों की 496 परियोजनाओं को मदद दी और लाभार्थियों की संख्या 30,775 रही, जबकि 2014-15 में केवल 248 स्वयंसेवी संस्थाओं की 341 परियोजनाओं को मदद मिली और लाभार्थियों की संख्या 40 फीसद कम होकर 18225 रह गयी.

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय 1992 से यह कार्यक्रम चला रहा है. कार्यक्रम के अंतर्गत स्वयंसेवी संगठनों, पंचायती-राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों के हाथ मजबूत किये जाते हैं, ताकि वे बुजुर्गों को आश्रय, भोजन, चिकित्सा सुविधा मुहैया करायें. जहां तक वृद्धावस्था पेंशन का सवाल है, यूएन के एक हालिया (2015) आकलन के मुताबिक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के तहत बीते सालों में पेंशन पानेवाले बुजुर्गों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन इस योजना पर सरकार अब भी अपने सार्वजनिक खर्चे का एक प्रतिशत से भी कम खर्च करती है. केंद्र सरकार या राज्य सरकार के कर्मचारी रह चुके पेंशनयाफ्ता बुजुर्गों की तुलना में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना पर खर्च की जानेवाली रकम आधी से भी कम है. सवाल यह कि यंगिस्तान और आर्थिक-वृद्धि के शोर में बुजुर्ग आबादी की बदहाली की सिसकियां आखिर कौन सुनेगा?

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज

chandanjnu1@gmail.com

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