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पति की मौत के बाद पिता बन की बच्चों की परवरिश

अररिया : पुरुषों का संरक्षण समाप्त होते ही महिलाओं के समक्ष तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी हो जाती है. ऐसे में अगर परिवार की अकेली महिला के ऊपर अपने बच्चों के लालन पालन का दायित्व भी हो तो फिर उनके समक्ष मानो मुसीबतों का पहाड़ खड़ा हो जाता है. फिर इन चुनौतियों से निपटने के […]

अररिया : पुरुषों का संरक्षण समाप्त होते ही महिलाओं के समक्ष तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी हो जाती है. ऐसे में अगर परिवार की अकेली महिला के ऊपर अपने बच्चों के लालन पालन का दायित्व भी हो तो फिर उनके समक्ष मानो मुसीबतों का पहाड़ खड़ा हो जाता है. फिर इन चुनौतियों से निपटने के लिये महिलाओं को उस अदम्य साहस व कुर्बानी दिखाने की जरूरत होती है. जिसके लिये मां आमतौर पर जानी जाती है.

शहर के वार्ड संख्या 15 निवासी जाह्नवी देवी भी मां के इसी ममता मयी साहस व कुर्बानी की मिशाल हैं. पेशे से शिक्षिका जाह्नवी महज 14 वर्ष की थी. जब उनका हाथ बैरगाछी के एक होनहार नौजवान के हाथ में सौंपा गया था. जाह्नवी कहती है हंसता खेलता उनका परिवार था. शादी के बाद जाह्नवी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. शादी के आठ साल तक दो बेटे व दो बेटियों का उनका परिवार संपूर्णता हासिल कर चुका था.

इसके बाद मानो जहान्वी के खुशहाल परिवार को किसी की बुरी नजर लग गयी. शादी के दस साल बाद ही वर्ष 1986 में एक सड़क दुर्घटना में जाह्नवी के पति की मौत हो गयी. अभी जहान्वी घर गृहस्थी के तौर तरीके समझ भी नहीं सकी थी. कि पति का साथ हमेशा हमेशा के लिये छूट चुका था. पति की मौत के बाद जहान्वी पर अपने चार छोटे छोटे बच्चों के लालन पालन का दायित्व था. पति के मौत के महज छह साल बाद 1991 में अचानक 14 वर्षीय बडा बेटा गुडडु भी एक हादसे का शिकार हो गया. इसके बाद तो मानो जहान्वी पर दुखों का पहाड़ टूट गया.

इस दुख से उबर पाती कि परिवार को 1992 के भीषण दंगे का शिकार होना पड़ा. दंगे की वजह से जाह्नवी अररिया बैरगाछी स्थित अपने घर जमीन जायदाद को छोड़ तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ अररिया आ पहुंची. वर्ष 1991 में जाह्नवी के शिक्षिका के तौर पर बहाल होने पर उनके शोकाकुल परिवार को बडा सहारा मिला. इसके बाद से जाह्नवी अपनी पिछली जिदगी को मुड़ कर देखना मुनासिब नहीं समझा. उन्होंने अपनी पूरी ताकत बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने में झोंक डाली. यही वजह है कि है आज जाह्नवी की बड़ी बेटी रूबी छत्तीषगढ़ के एक बीएड कॉलेज की प्रोफेसर है,

तो छोटी बेटी का चयन भी शिक्षिका के रूप में हो चुका है. और सबसे छोटे बेटे अमरेंद्र कुमार भी बंगलौर से बीएड की पढाई पूरी कर किसी मल्टीनेशनल कंपनी के ओहदेदार पद पर काबिज हैं. अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए जहान्वी की आंखें नम हो जाती है. उनके शब्दों में कहें तो तमाम मुश्किलों को दरकिनार करते हुए मैं अपने बच्चों के खातिर अपनी आहूति देकर खुद को कामयाब और खुश किस्मत महसूस करती हूं.

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