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जब नहीं दिखती कहीं कोई उम्मीद, तब याद आते हैं डॉ केके सिन्हा
डॉ केके सिन्हा देश के जाने-माने न्यूराेफिजिशियन हैं. लोग कहते हैं-डॉ सिन्हा गॉड-गिफ्टेड हैं. जीनियस हैं. सुबह से रात तक मरीजाें काे देखने का वही जुनून, वही निष्ठा. व्यस्त इतने कि छह-छह माह बाद का भी नंबर बुक. जब मरीजाें के सामने काेई रास्ता नहीं दिखता, उम्मीद नहीं दिखती ताे एक नाम याद आता है-वह […]
डॉ केके सिन्हा देश के जाने-माने न्यूराेफिजिशियन हैं. लोग कहते हैं-डॉ सिन्हा गॉड-गिफ्टेड हैं. जीनियस हैं. सुबह से रात तक मरीजाें काे देखने का वही जुनून, वही निष्ठा. व्यस्त इतने कि छह-छह माह बाद का भी नंबर बुक.
जब मरीजाें के सामने काेई रास्ता नहीं दिखता, उम्मीद नहीं दिखती ताे एक नाम याद आता है-वह है डॉ केके सिन्हा का. मीडिया आैर प्रचार-प्रसार से दूर रहनेवाले डॉ सिन्हा न्यूराे के ताे मास्टर हैं ही, इतिहास आैर संगीत के भी जानकार हैं. घर में एक से एक दस्तावेज. अपने पिता के हाथ से लिखी डायरी-संस्मरण काे उन्हाेंने सहेज कर रखा है.
उनकी निजी लाइब्रेरी में मेेडिकल साइंस से लेकर इतिहास की दुर्लभ किताबें माैजूद हैं. याददाश्त बहुत तेज. पचास-साठ साल पहले की भी एक-एक तिथि ठीक से याद. धारा-प्रवाह बाेलने की कला में माहिर. देश-दुनिया की घटनाआें पर पैनी नजर.
अनुभवी हैैं, विजन है. अतिव्यस्त रहनेवाले डॉ केके सिन्हा ने अपने जीवन की यादगार घटनाआें, अनुभव के बारे में प्रभात खबर के वरिष्ठ संपादक अनुज कुमार सिन्हा से लगभग तीन घंटे की लंबी बात की. डॉ सिन्हा का विस्तृत इंटरव्यू अब तक न ताे किसी अखबार में आया है आैर न ही टेलीविजन पर. इस इंटरव्यू काे लिखते समय इस बात का ख्याल रखा गया है कि डॉ सिन्हा के बाेलने की शैली की माैलिकता बनी रहे, भाषा का प्रवाह न टूटे. इस इंटरव्यू में डॉ सिन्हा के जीवन से जुड़ी कई ऐसी जानकारियां हैं, जाे पहली बार लाेगाें के सामने आ रही हैं. पढ़िए विस्तृत बातचीत.
मनेर का एक बालक कृष्णकांत डॉ केके सिन्हा कैसे बन गया?
मेरा जन्म मनेर में हुआ था. वह बिहार में पटना जिले का इलाका है. एेतिहासिक जगह है. मेरे पिता शिक्षक थे. वहां का वातावरण देहाती था. बचपन भी उसी माहाैल में बीता. पढ़ने में हम ठीक थे. अच्छा नंबर लाते थे. जब यह तय करने का वक्त आया कि किस क्षेत्र में जाना है ताे यह निर्णय पिताजी ने ही लिया क्याेंकि वे टीचर थे, जानकार थे. अनुभवी थे.
अब ताे वे नहीं हैं. उन्हें गुजरे जमाना बीत गया. डॉ झा (डीके झा) वर्षों से मेरे साथ हैं, लेकिन ये भी उनसे नहीं मिल सके थे. इनकाे हम कुछ दिनाें पहले अपने गांव ले गये थे. इन्हें अपना वह कमरा भी दिखाया था, जहां मेरा जन्म हुआ था. उस कमरे काे हमने उसी हाल में छाेड़ दिया है, जिस हाल में वह मेरे जन्म के समय था. मेरा लगाव अभी भी उस जगह से बहुत ज्यादा है. हम हर साल हाेली में वहां जाते हैं. पांच-छह दिन वहां रहते हैं.
इसी बार नहीं जा पाये. हमारे यहां हाेली पारंपरिक तरीके से मनायी जाती है. ढाेल के साथ. पूरे गांव के लाेग आते हैं. देर रात तक चैता का कार्यक्रम चलता है. दूसरे दिन वापस चले आते हैं. यह परंपरा रही है. हमारा गांव बड़ा फेमस है. हिस्टाेरिकल जगह है. आज से नहीं, सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही. बुद्ध के समय में भी वह गांव था. एक बार गंगा पार करते वक्त बुद्ध ने कहा था-एअम मनिअरीपतनम (यह मनेर का इलाका है). वे ताे राजगृह से जुड़े थे.
उस समय ताे पाटलिपुत्र हुआ ही नहीं था. राजगृह में बार-बार आते थे. यह ताे इतिहास है उस इलाके का, अब ताे मनेर की आबादी डेढ़ लाख के आसपास है. वहां हिंदू हैं, मुसलमान हैं. हर जाति के लाेग मिल-जुल कर रहते हैंं. यह बात हाे गयी मेरे गांव के बारे में. अब बता रहा हूं कि कैसे मैंने गांव के बाद की पढ़ाई की आैर डॉक्टर बना. हमने मैट्रिक की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास की.
अच्छा नंबर लाया था. उन दिनाें पटना साइंस कॉलेज का बड़ा नाम था. लेकिन मेरे पिताजी ने किसी कारणवश मेरा नाम पटना साइंस कॉलेज में नहीं लिखाया. उन्हाेंने कहा, तुम बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ाे. एडमिशन के पहले एक बार 1944 के दिसंबर में ही पिताजी मुझे बनारस लेकर गये थे. वहां विश्वनाथ मंदिर दिखाया था. कई आैर जगह भी ले गये थे. हम बीएचयू भी गये थे. वहां जाकर मालवीय जी से बहुत प्रभावित हुए थे. उस समय वहां मेडिकल कॉलेज नहीं था, आयुर्वेदिक कॉलेज था. वहां हमने कहा-ठीक है हम यहां साइंस पढ़ेंगे.
पिताजी ने हमारा नाम बीएचयू में लिखवा दिया. दाे साल तक हम बीएचयू में पढ़े. बीएचयू के इस दाे साल ने मेरी जिंदगी बदल दी. हम अविभाजित भारत की बात कर रहे हैं. हम वहां जुलाई 1946 में गये थे. उस समय हिंदुस्तान के अलावा दुनिया के कई देशाें से छात्र पढ़ने आते थे. उस क्षेत्र के भी छात्र पढ़ने आते थे जाे आज पाकिस्तान-बांग्लादेश के अंदर आता है. बीएचयू अॉल इंडिया यूनिवर्सिटी था. वहां दस हजार विद्यार्थी आैर एक हजार शिक्षक थे. जब हम वहां पढ़ते थे, उस समय डॉ राधाकृष्णन वहां के वाइस चांसलर थे.
यही डॉ राधाकृष्णन बाद में भारत के राष्ट्रपति बने. बीएचयू के वातावरण में हमारी आंखें वास्तव में खुलीं. हम ताे देहाती वातावरण में पैदा हुए थे. कड़े माहाैल में रहे हुए थे. बीएचयू देखा ताे अवाक रह गये. हम जल्दी-जल्दी हर कुछ सीखना चाहते थे.
बीएचयू में सबसे अच्छा आपकाे क्या लगा?
वहां सब कुछ अच्छा लगा. गांधीजी काे छाेड़ कर काेई ऐसा नेता नहीं था, जिनकाे हमने वहां नहीं देखा हाे. गांधीजी काे हमने अपने गांव मनेर में देखा था. सब नेता बीएचयू आते थे. वाइस चांसलर डॉ राधाकृष्णन दाे प्रकार की ड्यूटी करते थे. वे अॉक्सफाेर्ड में आेरियेंटल फिलॉसफी के प्राेफेसर थे. गरमी के दिनाें में छह माह के लिए वे अॉक्सफाेर्ड चले जाते थे. वहां पढ़ाते थे. बाकी छह माह वे बीएचयू में रहते थे. वाइस चांलसर का काम देखते थे.
वे ट्रेडिशनल ड्रेस में रहते थे. पगड़ी पहनते थे. लंबा सा अचकन हाेता था. टाइम के बड़े पक्के थे. कॉलेज के प्राेग्राम में हम लाेग राधाकृष्णन काे बुलाते थे. वे समय पर आ जाते थे. ऐसा भी माैका आया, जब वे आते थे आैर हम लाेगाें की तैयारी पूरी नहीं हुई रहती थी. फिर भी वे गुस्सा नहीं करते थे. मुस्कुरा कर यह कहते हुए निकल जाते कि 15 मिनट में मैं आ रहा हूं. बीएचयू के उस वातावरण ने सब कुछ बदल दिया. मेरे साेचने का तरीका भी बदल दिया. दुनिया काे हम दूसरी नजर से देखने लगे.
बीएचयू के बाद की पढ़ाई आपने कहां से की?
यह भी एक अलग कहानी है. बीएचयू से आइएससी की पढ़ाई कर चुके थे. यह भी तय हाे चुका था कि हमें डॉक्टर ही बनना है. हम पटना मेडिकल कॉलेज में एडमिशन चाहते थे, लेकिन हमारा एडमिशन दरभंगा मेडिकल कॉलेज में हुआ. हमें बुरा नहीं लगा. हम पहले बैच के थे. वहां अंगरेजाें के समय से ही एडमिशन हाेता था. शुरू में एक परेशानी थी. दरभंगा मेडिकल कॉलेज के सभी छात्र दाे साल वहां पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए पटना मेडिकल कॉलेज भेज दिये जाते थे.
लेकिन हमारे बैच से परंपरा बदल गयी. पहले पटना मेडिकल कॉलेज भी मेडिकल स्कूल ही था. टेंपल मेडिकल स्कूल, जाे 1886 में बना था. 1922 में इसका नाम प्रिंस अॉफ वेल्स मेडिकल कॉलेज रखा गया था, देश की आजादी के पहले ही पटना मेडिकल कॉलेज बन चुका था. इसी समय सवाल उठा कि मेडिकल स्कूल का क्या किया जाये. उस समय लाेगाें ने सुझाव दिया कि नार्थ बिहार में मुजफ्फरपुर में एक मेडिकल स्कूल खाेला जाये. उस समय की अंगरेजी सरकार ने मुजफ्फरपुर में इसे खाेलने की तैयारी कर ली थी.
इस बीच दरभंगा के महाराजा ने कहा कि दरभंगा में आप लाेग मेडिकल स्कूल-कॉलेज क्याें नहीं खाेलते. दस लाख रुपये मैं दे दूंगा, साथ में जितनी जमीन चाहिए, मैं दूंगा. अगर सैकड़ाें एकड़ चाहिए ताे वह भी दूंगा. दरभंगा महाराज के अाश्वासन के बाद मेडिकल स्कूल काे मुजफ्फरपुर की जगह दरभंगा में खाेलने का निर्णय ले लिया गया. आजादी के पहले अंगरेजाें ने इस मेडिकल स्कूल काे अपग्रेड करने का फैसला किया था. इसलिए दरभंगा में मेडिकल स्कूल की जगह मेडिकल कॉलेज खाेला गया. मैंने 1948 में एडमिशन लिया था.
देश आजाद हाे चुका था. नयी सरकार ने निर्णय लिया कि दरभंगा से किसी का पटना ट्रांसफर नहीं हाेगा आैर उन्हें दरभंगा में ही पढ़ना हाेगा. इस प्रकार मेरी पढ़ाई वहीं हुई. हमने 1953 में एमबीबीएस की परीक्षा पास की. मेडिसिन में अॉनर्स के साथ गाेल्ड मेडल मिला.
आपकी दिनचर्या क्या है. कब उठते हैं, कब पढ़ाई करते हैं, कब से कब तक मरीज देखते हैं..
हम बहुत सवेरे जग जाते हैं. करीब-करीब चार-सवा चार बजे. उसके बाद कुछ देर तक पढ़ लेते हैं. पाैने पांच बजे हम नीचे उतरते हैं. घर के बगल के प्लॉट पर घड़ी देख कर 90 मिनट तक लगातार टहलते हैं. वहां ट्रैक बना हुआ है. टहलते भी हैं, साथ ही साथ इयरफाेन लगा कर संगीत भी सुनते रहते हैं. सवा छह बजे तक टहलते हैं. फिर गार्डेन में जा कर बैठ जाते हैं. तब तक पत्नी भी वहां आ जाती है. साथ में चाय पीते हैं. फिर दिन की तैयारी में लग जाते हैं. आठ बजे तक मरीजाें के पहले बैच काे देखना शुरू कर देते हैं.
रात में जाे मरीज बच गये थे, उसकाे पहले देखते हैं. साढ़े नाै बजे तक मरीजाें काे देखने के बाद घर लाैटते हैं, नहाते हैं. नाश्ता करते हैं. फिर क्लिनिक चले जाते हैं मरीज काे देखने. साढ़े ग्यारह बजे से दाे बजे तक मरीज देखते हैं. फिर लंच के लिए आते हैं. लंच करते-करते टीवी पर न्यूज भी सुनते रहते हैं. थाेड़ा आराम भी करते हैं. म्यूजिक भी सुनते रहते हैं.
कभी-कभी म्यूजिक सुनते-सुनते नींद भी आ जाती है. साढ़े तीन या पाैने चार बजे उठ कर फिर मरीज काे देखने के लिए जाते हैं. मरीजाें काे नंबर खुद देते हैं. नंबर के लिए भी बहुत भीड़ हाे जाती है. देखिए न, अभी ही नवंबर तक का नंबर लग गया है. नंबर देने के समय मरीजाें के कागज काे देखते हैं. अगर लगता है कि इमरजेंसी केस है, ताे उसकाे पहले का नंबर देते हैं. इसके बाद फिर मरीजाें काे देखने में लग जाता हूं.
छह-साढ़े छह बजे खाना खाने के लिए आ जाते हैं. इसके बाद फिर जाते हैं मरीज देखने. दिन भर मरीज काे देखते-देखते थक जाते हैं. इसलिए खाना खाने के बाद पहले शरीर काे ताैलते हैं कि अब कितने मरीज काे आज देख पायेंगे. उतना ही देखते हैं. बाकी काे दूसरे दिन बुलाते हैं. अब फिर घर लाैटते हैं. ड्राइंगरूम में लेट जाते हैं. लेटे-लेटे म्यूजिक सुनते हैं. सिर्फ क्लासिकल म्यूजिक. इससे बड़ी राहत मिलती है, थकान दूर हाेती है. म्यूजिक ही मेरे लिए रिलैक्सिंग का सबसे बड़ा साधन है. देखिए, मेरे पास कैसेट्स, सीडी भरे पड़े हैं.
आैर भी संगीत के सीडी हैं लेकिन मैं क्लासिकल ही पसंद करता हूं. यही वह समय हाेता है जब हम दाेस्ताें से फाेन पर बात भी कर लेते हैं. पत्नी आैर परिवार के अन्य लाेगाें से बात करने का यही थाेड़ा माैका मिलता है.
इतना काम करते हैं. कहां से ताकत या प्रेरणा मिलती है?
हमारा माइंड बड़ा फाेकस्ड है. हम देहाती वातावरण में पले हैं, बढ़े हैं. उसका फायदा मिलता है. बचपन में हमारी ट्रेनिंग जबरदस्त हुई है, इसलिए इतनी मेहनत कर लेते हैं. संगीत से बहुत ताकत मिलती है.
आपके परिवार में काैन-काैन हैं आैर अाप अपने परिवार काे कितना समय दे पाते हैं?
मेरे परिवार में मेरी पत्नी हैं. एक बेटा, बहू, एक पाेती आैर एक पाेता हैं. पाेती बड़ी है. उसकी शादी हाे चुकी है. पाेता अभी पढ़ाई कर रहा है. मेरी तीन बेटियां हैं. तीनाें की शादी हाे चुकी है. बड़ी बेटी आैर दामाद रांची में ही रहते हैं. अन्य दाे बेटियां अपने पति आैर बच्चाें के साथ विदेश (अमेरिका आैर कनाडा) में रहती हैं. मेरा बेटा व्यवसाय के क्षेत्र में है. परिवार काे ताे बहुत कम समय दे पाते हैं. सुबह में टहलने के बाद जब हम गार्डेन में बैठते हैं, पत्नी भी वहां आ जाती हैं. हम दाेनाें करीब 30 से 40 मिनट वहां साथ बैठते हैं. वह पूरा अखबार पढ़ जाती हैं . मुझे जेनरल न्यूज के साथ-साथ टाेले-मुहल्ले की पूरी खबरें भी उन्हीं से मिल जाती हैं.
आप अपनी इच्छा से डॉक्टर बने या माता-पिता की इच्छा थी?
शुरू से हमारी भी इच्छा थी कि हम डॉक्टर बनते ताे अच्छा रहता. परिवार के लाेग भी चाहते थे कि हम डॉक्टर बनें. लेकिन डॉक्टरी में घुसना इतना आसान काम नहीं था. बड़ा टफ काम था. सिर्फ फर्स्ट डिविजनर ही डॉक्टरी में घुस सकते थे. हमने कहा- ठीक है भैया, देखा जायेगा. अपने पास विकल्प भी था. एग्रीकल्चर में जा सकते हैं, जेनरल साइंस में जा सकते हैं. भाग्यवश मेरे अंक भी अच्छे आये.
रांची कब आये? रांची आने के पहले कहां-कहां रहे?
जुलाई 1962 में रांची आ गये थे. एमबीबीएस पूरा किया था 1953 में. फिर एक साल तक हाउस-सर्जनशिप की. तुरंत नाैकरी मिल गयी. सिविल असिस्टेंट सर्जन का पद मिला था. पाेस्टिंग हुई थी माेतिहारी के देहात में. छह महीने तक देहात में पड़े रहे. गंडक नदी के ठीक किनारे. उसके बाद सदर अस्पताल माेतिहारी में पाेस्टिंग हाे गयी. हमारी रुचि मेडिसिन में थी इसलिए सिविल सर्जन ने हमकाे सदर अस्पताल के मेडिकल वार्ड में काम करने का जिम्मा सौंपा.
हम ताे मेडिकल कॉलेज में जाना चाहते थे. इसलिए आवेदन भरते रहते थे. नंबर अच्छा आया था, इसलिए हर जगह चुन लिया जाता था. हमने डीएमसीएच में एनाटाेमी में डिमाेंस्ट्रेटर के पद के लिए भी अप्लाइ किया था. वहां हमारा चयन हाे गया. तब डॉ एनएल मित्रा एचआेडी थे, जाे बाद में प्राचार्य भी बने. गरमी की छुट्टी हाे गयी थी. छात्र सब घर चले गये थे. मेरे पास सीखने का पूरा माैका था. हम म्यूजियम में जा कर घंटाें एनाटाेमी का अध्ययन करते रहते थे. आप जानते हैं कि एनाटाेमी वही लाेग पढ़ना चाहते हैं, जाे सर्जन बनना चाहते हैं. मेरा अॉनर्स मेडिसिन में था. यह तय कर चुके थे कि हमकाे मेडिसिन लाइन में ही जाना है.
फिर भी हम एनाटाेमी काे मजबूत करना चाहते थे. एनाटाेमी हर व्यक्ति काे जानना चाहिए. ऐसे आरंभ में मेडिकल में दाे साल तक एनाटाेमी की पढ़ाई हाेती है लेकिन बाद में लाेग भूल जाते हैं. हमारे लिए अच्छा माैका था आैर हमने चार-पांच माह तक सिर्फ एनाटाेमी पढ़ा आैर पढ़ाया. इस बीच हमने बायाे-केमिस्ट्री के डेमाेंस्ट्रेटर पद के लिए भी आवेदन कर दिया. वहां भी मेरा चयन हाे गया. हमने एनाटाेमी छाेड़ कर बायाे-केमिस्ट्री में डेमाेंस्ट्रेटर के पद पर ज्वाइन कर लिया. यह मेडिकल साइंस आैर मेडिसिन के काफी करीब है. बायाे-केमिस्ट्री में कुछ काम-धाम नहीं था, इसलिए यह काम करते-करते हमने जनरल मेडिसीन में एमडी कर लिया. हम राेज राउंड में जाते थे. प्राे शीतल प्रसाद सिन्हा हमारे प्राेफेसर हुआ करते थे.
आप पढ़ाई के लिए इंगलैंड कैसे चले गये, वहां का अनुभव?
डीएमसीएच में मेडिसिन में रेसिडेंट के पद पर हम काम करते थे. इंगलैंड जाने की हमारी इच्छा हुई. छुट्टी का आवेदन दिया, वह स्वीकृत हाे गया. फरवरी 1958 में इंगलैंड चले गये. एडिनबर्ग में हमारा एडमिशन हुआ.
वहां पाेस्ट ग्रेजुएट काेर्सेज चलते थे. मेरे लिए एडवांटेज की बात यह थी कि जिनकी किताबें हम पढ़ा करते थे, वही लाेग सामने पढ़ानेवाले लाेगाें में हाेते थे. सभी फेमस लाेग थे. इनमें प्राेफेसर स्टानले डेविडसन आैर डॉ डाेनाल्ड हंटर भी थे. पहली बार अजीब लगा. इन्हीं की हम किताब पढ़ते थे आैर ये लाेग हमें सीधे पढ़ा रहे हैं. कई बार ताे विश्वास ही नहीं हाेता था. काेर्स तीन माह चला. इसके बाद कहीं न कहीं दूसरे अस्पताल में जाना ही था.
इसके पहले इम्तिहान भी देना था. हमने कहा कि अभी इम्तिहान नहीं देंगे. जब आैर मैच्याेर हाे जायेंगे, तब देंगे. बड़ा कठिन काेर्स था. साै लाेग परीक्षा देते थे, सिर्फ पांच-छह लाेग ही पास हाे पाते थे. इंडियन छात्राें का रिजल्ट ताे आैर कम हाेता था. सिर्फ चार प्रतिशत पास करते थे. हमने तय कर लिया था कि अभी एक्जाम नहीं देंगे, बाद में देंगे. इस बीच हमने नाैकरी के लिए वहां आवेदन करना शुरू कर दिया. नाैकरी भी मिल गयी.
इंगलैंड में वेस्टर्न काेस्ट में हल नामक शहर है. अब ताे वह यूनिवर्सिटी भी है आैर मेडिकल कॉलेज भी खुल चुका है. वेस्टर्न जेनरल हाॅस्पिटल में मुझे जूनियर हाउस अॉफिसर की नाैकरी मिल गयी. एक साल तक हम वहां रहे. हमने वहां बहुत कुछ सीखा क्याेंकि जितने भी हमारे कंसलटेंट थे, सब पढ़ानेवाले-बतानेवाले थे. साल भर वहां रहने के बाद न्यूराेलॉजी में हमारा इंटरेस्ट जागा. न्यूराेलॉजी में मेडिकल न्यूराेलॉजी बड़ा टफ माना जाता है.
मेरे साथ एडवांटेज यह था कि वेस्टर्न जनरल हाॅस्पिटल में एक बड़े शहर लीड्स से सप्ताह में दाे दिन प्राेेफेसर न्यूराेलॉजी आैर कंसल्टेंट न्यूराेलॉजी वहां आते थे. हम उन्हें असिस्ट करते थे. उन्हाेंने कहा था कि आपकाे न्यूराेलॉजी में इंटरेस्ट है, इसलिए आप ही मरीजाें की फाइल काे देखिए. फाइल देखते-देखते न्यूराेलॉजी में मेरी रुचि आैर बढ़ गयी थी लेकिन वहां न्यूराेलॉजी में काेई जगह खाली मिलती नहीं थी. मैंने साेचा कि क्याें न न्यूराेसर्जरी में चले जायें.
हमने आवेदन किया. न्यू कैसल के पास न्यूराे सर्जरी में जूनियर हाउस अॉफिसर की नाैकरी भी मिल गयी. इंगलैंड में रहते हुए एक साल हाे गया था. तब साेचा कि क्याें नहीं अब एमआरसीपी का एग्जाम दे दिया जाये. हमने परीक्षा दी आैर पास हाे गये. अब हमें मेडिसीन में वापस लाैटना था लेकिन न्यूराेसर्जरी में भी रुचि बढ़ गयी थी. हमने आवेदन करना जारी रखा. इंगलैंड वेस्टर्न काेस्ट में ब्राइटन एक जगह है, वहां से थाेड़ी दूर संत फ्रांसिस हॉस्पिटल परिसर स्थित हर्स्टवुड पार्क हॉस्पिटल में रजिस्ट्रार के पद पर मेरा सेलेक्शन हाे गया.
उस अस्पताल का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ न्यूराेलॉजी का था. मेरी ड्यूटी वहां न्यूराे सर्जरी आैर न्यूराेलाॅजी दाेनाें की थी. वहां हमने न्यूराे सर्जरी करना शुरू कर दिया था. इसी क्रम में हम ब्राइटन स्थित ब्राइटन जनरल हॉस्पिटल आैर रॉयल ससेक्स हॉस्पिटल के न्यूराेलॉजी आेपीडी का भी काम देखने लगे थे. छह माह हमने देखा भी था. वहीं पर हमने सर्जरी भी शुरू कर दी, खाेपड़ी खाेलना भी शुरू कर दिया, स्पाइनल कॉर्ड का काम भी शुरू कर दिया.
इस बीच हमारे कंसल्टेंट बीमार पड़ गये. उन्हें हार्ट-अटैक आ गया था. हमें मरीजाें काे देखने के लिए अब लंबा समय मिल गया. काेई भी मरीज काे दूसरे अस्पताल में रेफर नहीं करते थे. लंदन से सप्ताह में एक दिन एक न्यूराेसर्जन आते थे. वे भारत में रह चुके थे. वे गाइड करते थे. मरीजाें काे हम ही देखते थे. जितने भी कॉल आते थे, हमारे नाम से ही आते थे.
हम ही अॉपरेशन करते थे. कभी-कभी 50-50 मील दूर भी हम डब्बा-डुब्बी लेकर इलाज के लिए चले जाते थे. सहायता के लिए नर्स भी हाेती थी. आॅपरेशन कर सुबह तक लाैट आता था. बहुत बड़ा अॉपरेशन ताेनहीं लेकिन बहुत सारे अॉपरेशन करता था. हेड ट्रॉमा का अॉपरेशन ज्यादा किया.
आप इंगलैंड में थे. भारत लाैटने की याेजना कैसे बनी?
घर से दबाव आने लगा. बहुत दिन हाे गया, अब घर लाैटाे. पिताजी की चिट्ठी आती थी कि बहानेबाजी मत कराे आैर लाैट आआे. यह बात है जनवरी-फरवरी 1962 की. नाैकरी ताे मेरी यहां भी थी ही. हम भारत लाैट आये. उसी समय गाेवा की मुक्ति की लड़ाई भी भड़की थी.
लाैटने पर छह महीना तक ताे हम पटना मेडिकल कॉलेज में पाेस्टेड रहे, क्याेंकि डॉ मधुसूदन दास हमकाे बहुत मानने लगे थे. हमने उन्हें प्रैक्टिकल कर दिखा दिया था कि हम कैराेटिड एंजियाेग्राम करते हैं. उन्हाेंने पहले कभी देखा नहीं था. उस समय एक मंत्री थे, जिनका नाम हम भूल रहे हैं. उन्हें डॉ मधुसूदन दास ने कहा भी था कि यह लड़का बड़ा तेज है, हम इसे रखना चाहते हैं. आप काेई ऐसा प्रबंध कर दें कि ये किसी तरह पटना मेडिकल कॉलेज में रह जाये. इस पर मंत्री जी ने कहा था- इस डॉक्टर काे कहिए कि थाेड़ा धीरज रखे.
हमकाे धीरज ताे था नहीं, हमकाे ताे नाैकरी चाहिए थी. हम ताे सरकारी नाैकरी में थे ही. इसी बीच राजेंद्र मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन डिपार्टमेंट में जगह खाली हाे गयी थी. पाेस्ट था ट्यूटर इन मेडिसिन. हमने बगैर डॉ मधुसूदन दास से पूछे-पाछे बिना चुपके से अावेदन कर दिया. हमारा सेलेक्शन भी हाे गया. हम जुलाई 1962 में राजेंद्र मेडिकल कॉलेज आ गये. उसी समय से मेडिसिन विभाग में घुस गये.
ताे इसके बाद अाप अमेरिका कैसे चले गये?
1964 में हमकाे फिर विदेश जाने का माैका आया, अमेरिका जाने का. डेढ़ साल वहां रहे. यूनिवर्सिटी टीचिंग हॉस्पिटल, शिकागाे में रहे. बहुत ही बढ़िया अस्पताल. अमेरिका के बहुत अच्छे अस्पतालाें में इसकी गिनती हाेती थी.
आपने भारत में पढ़ाई की, इंगलैंड-अमेरिका में भी पढ़े. तीनाें की पढ़ाई आैर माहाैल में क्या फर्क लगा आपकाे?
बहुत जबरदस्त. भारत की पढ़ाई भी अच्छी थी. टीचर लाेग पढ़ाते थे. लेकिन वह क्वालिटी नहीं थी. इंगलैंड में माैका बहुत है लेकिन सीखना आपकाे है. काेई दबाव डाल कर आपकाे नहीं पढ़ायेगा. अगर काेर्सेज लेना है ताे पढ़ा देंगे सवेरे से शाम तक लेकिन अगर काेर्सेज नहीं लेना है, आप वर्क कर रहे हैं ताे अपने सीखना है.
अमेरिका में यह कहते हुए आपकाे गला पकड़ कर पढ़ा देंगे कि यू हैव टू लर्न दिस. आपसे सवाल इतना पूछा जायेगा कि अापकाे शर्म लगेगी आैर आप रात भर जग कर उस टॉपिक काे पढ़ेंगे. थाेड़े समय में भी अमेरिकन लाेग गर्दन दबा-दबा कर पढ़ा लेते हैं. ब्रिटेन अलग है. वहां परंपरा का बहुत वैल्यू हाेता है, जैसे- कैसे रहना है, कैसे बात करनी है.
लेकिन अमेरिका में एेसा नहीं हाेता. बड़ा ताज्जुब हुआ जब एक बार क्लिनिकल मीटिंग चल रही थी. केस प्रेजेंटेशन हाे रहा था. उसमें प्राेफेसर थे, असिस्टेंट प्राेफेसर थे, सीनियर रेजिडेंट थे, तीन-चार मेडिकल के छात्र भी हाेते थे. पूरा कमरा भरा हुआ था. एक जूनियर रेजिडेंट केस प्रेजेंट कर रहा था. प्राेफेसर सिगार पीते थे. वे उठ कर सिगार की राख फेंकने गये. तब तक उनकी कुरसी पर एक मेडिकल छात्र जा कर बैठ गया. कैसे हिम्मत की उसने, जबकि वह मेडिकल स्टूडेंट है. लेकिन जब प्राेफेसर आये ताे उन्हें बुरा नहीं लगा. वे उस जगह पर बैठ गये जहां कुरसी खाली थी. यह इंगलैंड में नहीं हाेता था, हिंदुस्तान में ताे हाे ही नहीं सकता.
यही अंतर है अमेरिका आैर अन्य जगहाें में. एक आैर घटना सुनाते हैं. हमारे एक प्राेफेसर थे डॉ बैरन. हमलाेग काे खाने के समय उसकी कीमत देनी हाेती थी. हम दाेनाें खाने के समय साथ ही पहुंचते थे. हम लाेग पैसा देकर प्लेट में खाना लेकर आकर बैठ जाते थे. प्राेफेसर बैरन भी साथ थे. इसी बीच वहां काम करनेवाला एक नीग्राे स्वीपर जॉन आया आैर कहने लगा- आे बैरन, कैन आइ ज्वाइन यू?
हमने साेचा कि ये ताे स्वीपर है लेकिन प्राे बैरन ने कहा- आे कम अॉन जॉन. इसके बाद वह भी वहां बैठ गया आैर हमलाेग के साथ बातचीत में शामिल हाे गया. हमलाेग के साथ हा-हा, ही-ही करने लगा. साेचिए, बैरन हमारे प्राेफेसर, हम चीफ रेजिडेंट आैर वह स्वीपर, लेकिन तीनाें एक साथ बैठ कर खाना खाते हुए बात कर रहे थे.
यह जबरदस्त चेंज वहां हमने देखा. यह सिर्फ अमेरिका में ही संभव है. हिंदुस्तान ताे क्या, वर्ल्ड के किसी काेेने में यह नहीं हाे सकता. इंगलैंड की ताे चर्चा ही मत करिए. वहां ताे डॉक्टर के साथ डॉक्टर ही बैठता था. अमेरिका की इस घटना के बाद ही हम समझ गये कि अमेरिका क्याें इतना महान है. हमारी आंखें वहां खुल गयीं. अमेरिका में आैर भी फर्क है. पढ़ाने का तरीका भी अलग है.
लाइब्रेरी 12 बजे रात तक खुली रहती है. हम वहां कम समय ही रह पाये लेकिन सीखा बहुत कुछ. वर्ल्ड फेमस लाेगाें के साथ-साथ काम करने का माैका मिला. वहां जाे मीटिंग हाेती थी, उसमें इंटरनेशनल स्तर के लाेग आते थे. ये वे लाेग हाेते थे जिनकी हम किताबें पढ़ते थे. लेकिन वे दिखाते भी नहीं थे कि वे बड़े लाेग हैं, महान हैं. वे कहते थे- वी आर कॉमन मैन. हमारे मन में यह बात उठती कि यह आदमी इतना बड़ा है, इतना महान है आैर हमसे इस तरह से बात कर रहा है.
अमेरिका से कब लाैटे?
1965 में अमेरिका से हम लाैट आये. यहां पर हमारी नाैकरी ताे थी ही. लेकिन अमेरिका में रहने के दाैरान जाे एक्सपाेजर मिला था, उसने हमकाे बहुत बदल दिया.
अमेरिका के माहाैल में काम करने के बाद यहां मन लगा?
बिल्कुल, वे लाेग ताे कहते थे- व्हाइ डाेंट यू स्टे हियर? लेकिन हमारा मन नहीं लगता था. हमारी मिसेज साथ नहीं गयी थी. बच्चे साथ नहीं गये थे. कमी ताे खलती ही थी. सब चिट्ठी लिखते-रहते थे चले आइए, चले आइए. अमेरिका में भी वहां के लाेग हमकाे नाैकरी देना चाहते थे. मेरे पास यहां ताे पहले से नाैकरी थी ही.
जिस समय आप रांची आये थे, उस समय की रांची के बारे में कुछ बताइए?
रांची काेई फेमस जगह नहीं थी. प्रैक्टिस के लिहाज से ताे इसे बिल्कुल रेगिस्तान माना जाता था. छाेटी जगह थी. पहली बार हम मेडिकल स्टुडेंट बन कर ट्रेनिंग में आये थे. तब मेंटल हॉस्पिटल में ट्रेनिंग हाेती थी. उस समय रांची की आबादी 72 हजार थी. यह ताे गरमी के दिनाें की राजधानी थी. पटना से हाइकाेर्ट आैर सेक्रेटेरिएट रांची चला आता था. कुछ अंगरेज अफसर भी चले आते थे. एजी यानी एकाउंटेंट जनरल अॉफिस यहां पर था. इसके अलावा यहां कुछ नहीं था. नथिंग-नथिंग-नथिंग. जब हम लाेग सेकेंड टाइम रांची आये, तब रांची शहर कुछ बड़ा हाे चुका था. लेकिन यहां जाे अस्पताल बना था, वह शहर से इतना दूर था कि लाेग आते ही नहीं थे. अस्पताल ताे बाद में बना, पहले कॉलेज बन गया था. जब यह अस्पताल नहीं था, ताे हम लाेग काे ढाई साल तक पढ़ाई के लिए रांची सदर अस्पताल जाना पड़ता था. फिरायालाल चाैक के पास था.
अभी भी वहीं पर है, पर अब ताे नयी बिल्डिंग बन गयी है. उस समय लाल रंग की बिल्डिंग हाेती थी. जितनी भी नर्सेंज थीं, वे सब बेल्जियन थीं. उनकी प्रमुख थी मदर आेडिल. उनका कल्चर अलग था. यूराेपियन वातावरण आैर मरीजाें के देखने का तरीका अलग था. मदर आेडिल बहुत ही कड़ी थी. मेरे वार्ड में जाे सिस्टर थी, वह बहुत लंबी थी. मेरे काम में वही सबसे ज्यादा सहयाेग करती थी. एक बार की घटना बता रहा हूं. हम आउटडाेर के इंचार्ज थे. एक मरीज काे वार्ड में ले जाना था. हमने उस मरीज काे भरती किया था.
लेकिन वहां ट्रॉली नहीं थी. लेट हाे रहा था. दस मिनट लेट हाे गया था. इस बीच सिस्टर आ गयी. उन्हाेंने कहा- क्या परेशानी है. उन्हें बताया गया कि ट्रॉली नहीं है. सिस्टर ने पूछा- पेशेंट कहां है. बगैर समय गंवाये सिस्टर दाेनाें हाथ से पेशेंट काे उठा कर सीधे वार्ड में चली गयी. जाे बेड खाली था, उस पर रख दिया. ये सिर्फ वही लाेग कर सकते हैं, काेई हिंदुस्तानी नहीं कर सकता. ये सब सीखने की चीज थी. छाेटी-छाेटी चीजें.
ढाई साल तक मेडिकल कॉलेज वहीं रहा. जब मेडिकल कॉलेज की नयी बिल्डिंग आ गयी ताे हम लाेग ट्रांसफर हाेकर यहीं पर शिफ्ट हाे गये. 1965 में जाे पहला बैच पास हुआ, उसकी ट्रेनिंग ताे सदर अस्पताल में हुई लेकिन परीक्षा यहां पर हुई थी. उस समय से यहीं पर रह गये.
आपने अारएमसीएच कब आैर क्याें छाेड़ दिया?
1971 तक हम प्राेफेशनली धीरे-धीरे आगे बढ़ गये थे. प्रैक्टिस भी अच्छी हाे गयी थी. पैसा भी हाे गया था. उसी समय यह मकान बनाया था. पहले हम मेडिकल कॉलेज की कॉलाेनी में रहते थे. क्वार्टर नंबर 67. वहां एक झाेंपड़ीनुमा क्लिनिक बनाया था, अभी भी वहां उसी तरह है. किसी ने उसे ताेड़ा नहीं है. इस बीच वहां आठ साल रहने के बाद हमने यहां (बरियातू में) मकान बना लिया. 4 दिसंबर 1971 से यहां चले आये. उस समय से अभी तक यहीं पर हैं.
जहां तक आरएमसीएच छाेड़ने की बात है, हमकाे थाेड़ा झगड़ा हाे गया था उस समय के हेल्थ मिनिस्टर श्री बिंदेश्वरी दुबे से. वे अपने आप काे दबंग मानते थे. हमारे पास ज्यादा मरीज आते थे, उन सभी काे देखने के बाद ही हम आरएमसीएच आ पाते थे. लेट ही पहुंचते थे. यह हमारी गलती थी लेकिन काेई चारा भी नहीं था. दुबेजी काे मालूम हुआ कि डॉक्टर ताे लेट आता है. हम भी इस बात काे स्वीकार करते ही थे कि हम लेट आते हैं. मंत्रीजी एक दिन अचानक राउंड में हमारे वार्ड में पहुंच गये. तब तक हम वहां नहीं पहुंचे थे.
11 बज गया था. मंत्री ने हमसे एक्सप्लानेशन पूछ दिया. हमने माफी भी मांगी आैर कहा कि सर, माफ कर दीजिए. लेकिन उन्हाेंने माफ नहीं किया. कहने लगे कि पाेस्ट काे नन-प्रैक्टिसिंग कर देना चाहिए. भागलपुर काे छाेड़ कर पटना, दरभंगा आैर रांची काे नन-प्रैक्टिसिंग करने की तैयारी हाेने लगी. अगर हम प्रैक्टिस नहीं करते ताे हमारा काराेबार चल ही नहीं सकता था. दाे हजार रुपया ताे स्टाफ काे रखने में हमारा खर्च हाेता था. आरएमसीएच में हमारी सैलेरी भी उस समय बहुत कम थी. सिर्फ 1600 रुपये वेतन में मिलते थे. जगन्नाथ मिश्र इसके खिलाफ थे, लेकिन वे दब्बू किस्म के चीफ मिनिस्टर थे. उन लाेगाें से दब जाते थे जाे उनसे दबंग हाेकर बाेलते थे.
इस बीच इमरजेंसी में कुछ ऐसी घटना घटी कि अस्पताल काे नन-प्रैक्टिसिंग करने का निर्णय कुछ समय के लिए टाल दिया गया. 1976 में इसका फिर से रिव्यू हुआ. कैबिनेट की बैठक में चर्चा हुई.
बिंदेश्वरी दुबे ने कहा कि इस पाेस्ट काे नन-प्रैक्टिसिंग ताे हाेना ही है. उन्हाेंने कहा-चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार. उन्हाेंने कहा कि इसकाे ताे हम आज करके ही रहेंगे, नहीं ताे हम आज ही रिजाइन कर देंगे. दुबेजी काे ज्यादा चिढ़ हमसे ही थी. उन्हाेंने आरएमसीएच काे नन-प्रैक्टिसिंग अस्पताल घाेषित कर दिया. हम छह दिनाें तक साेचते रहे, इंतजार करते रहे. साेचा कि रिजाइन करें या नहीं. छठा दिन हम प्रिंसिपल अॉफिस गये आैर डायरेक्टर के नाम लिखा अपना इस्तीफा हेड क्लर्क काे दे दिया.
ब्रह्मेश्वर बाबू हमारे प्राेफेसर थे, उनकाे इस्तीफा नहीं सौंपा क्याेंकि वे इस्तीफा फाड़ कर फेंक देते. प्रिंसिपल काे भी नहीं सौंपा. इस्तीफा दिया आैर सीधे चल दिया आरएमसीएच से. दाे माह बाद इस्तीफा स्वीकार भी कर लिया गया. दिस इज द स्टाेरी.
आप जब पढ़ते थे, उस समय शिक्षक आैर छात्राें के बीच के संबंध कैसे हाेते थे आैर अभी कैसा है?
अभी का ताे हम बहुत ज्यादा नहीं बता सकते. डॉ झा से पूछिए, वे ज्यादा बेहतर बता पायेंगे. मेरे समय में ज्यादा लड़के देहाती वातावरण से आते थे. पढ़े-लिखे लड़के भी हाेते थे, हाेशियार भी हाेते थे. देहात से आये लड़के भाेजपुरी, मगही जाे भी जानते थे, उसी में बात करते थे. लंठई भी करते थे लेकिन हमलाेग काे सब सहना पड़ता था. एक घटना सुनिए.
एक बंगाली सज्जन मेडिकल की किताब बेचते थे. एक बार उसने मुझे कहा- सर,देखिए न, जाे लड़के किताब खरीदने आते हैं, गाली देकर बात करते हैं. जाे पढ़े-लिखे हैं, वे ताे दादा कह कर किताब मांगते हैं लेकिन बाकी ताे गाली देकर किताब मांगते हैं. हमकाे ताे किताब बेचना है, इसलिए सब सहना पड़ता है. अब वह सब बदल गया है. अब के लड़के-लड़कियां बहुत कल्चर्ड हैं. बहुत पढ़े-लिखे लाेग आ गये हैं. उनका बैकग्राउंड भी काफी अच्छा है. 40 साल में यह चेंज हाे गया है.
इलाज महंगा हाे गया है. क्या व्यवस्था हाे कि इलाज सस्ता हाे सके?
इसे अब राेका नहीं जा सकता. आप इसे राेक नहीं सकते. महंगा हाेते ही चला जायेगा. सब चीजें महंगी हाे गयी हैं. जिन मशीनाें से जांच हाेती हैं, वे महंगी मिलती हैं. सारे सामान महंगे हैं. जब अमेरिका इसे नहीं राेक सकता, यूराेप नहीं राेक सकता ताे आप कैसे राेकेंगे.
आप कई देशाें में गये. उन देशाें में गरीबाें के इलाज की क्या व्यवस्था है?
उन देशाें में ताे सभी इंश्याेर्ड हैं. अमेरिका में 20 फीसदी आबादी काे इंश्याेरेंस नहीं मिलता था, उनमें ज्यादातर काले लाेग थे. आेबामा ने कानून बना कर लगभग सभी काे इंश्याेर्ड कर दिया. अगर काेई इंश्याेर्ड नहीं है ताे उसका पैसा सरकार भरती है. अन्य लाेगाें के इलाज का पैसा इंश्याेरेंस कंपनी देती है.
40-50 साल पहले काैन-काैन-सी ऐसी मामूली बीमारियां थीं जिनका उन दिनाें इलाज संभव नहीं था?
ब्रेन से जुड़ी जितनी भी बीमारियां थीं, उनका इलाज पहले कठिन था. पांच-छह दवाइयां थीं जिनका इस्तेमाल हमलाेग मिर्गी के इलाज के लिए करते थे. अब हमलाेग सिर्फ मिर्गी में 60 से अधिक दवाइयाें का इस्तेमाल करते हैं. अगर आपकाे अनुभव है ताे आप जरूरत के हिसाब से दवा लिखते रहिए. पहले अधिक से अधिक पांच-छह एंटीबायाेटिक बाजार में थे. अब जाकर देखिए, सैकड़ाें एंटीबायाेटिक बाजार में आ गये हैं. पहले टेस्ट बहुत कम थे. हम लाेग अपने क्लिनिकल सेंस से पहचानते थे कि क्या है, कैसा है.
आपकाे क्लिनिकल सेंस डेवलप करना पड़ता था. यह हमारी आदत अभी भी पड़ी हुई है. अब टेस्ट इतना हाे गया है कि आप सीधे डायग्नाेसिस पर पहुंच जाते हैं, भले ही टेस्ट महंगा हाे. यह अब ऐसे ही रहेगा. इससे नीचे नहीं उतरनेवाला.
हर दिन रिसर्च हाे रहा है. अापके क्षेत्र में क्या बदलाव हुआ है?
खास कर हमारा डिपार्टमेंट यानी न्यूराेसाइंस में ताे पिछले 20-25 साल में चमत्कार हाे गया है. टाेटल रिवाेल्यूशन हाे गया है. ब्रेन के अंदर दाे चीजाें काे ही समझते थे. एक स्ट्रक्चर आैर दूसरा फंक्शन. सबसे बड़ा उसका फंक्शन माइंड है जाे मनुष्याें काे मिला हुआ है, मेमाेरी है जाे मनुष्याें काे मिला हुआ है. जानवराें काे छाेटा-थाेड़ा मिला हुआ है. वह सब मिस्टिरियस है. अब सब जान गये हैं कि मेमाेरी का मतलब क्या है. सब नेटवर्क है. हर ब्रेन काे 100 बिलियन सेल्स मिले हुए हैं. पैदा हाेते ही 100 बिलियन सेल्स मिलता है. हर सेल का एवरेज कनेक्शन जाे मैच्याेर्ड हाे जाता है, वह दस हजार है. किसी-किसी काे ताे पांच-पांच लाख कनेक्शन हाेते हैं. 10-10 लाख कनेक्शन वाले भी हैं. ये ब्रिलिएंट हाेते हैं. इसे आप डेवलप भी कर सकते हैं. 25 साल की उम्र के बाद हर दिन 25 हजार सेल्स मरते हैं लेकिन पता नहीं चलता क्याेंकि जाे बचा रहता है, वह नये-नये कनेक्शन करते रहता है.
40-50 साल बाद मेडिकल साइंस काे आप कहां देखते हैं?
आैर आगे. बहुत आगे. आैर चमत्कार हाेता रहेगा. अभी जिसका इलाज संभव नहीं है, उन सभी का इलाज संभव हाे जायेगा. सभी बीमारी का.
किस बीमारी काे आप मानते हैं कि अभी तक लाइलाज है?
कैंसर के बहुत-से केस ऐसे हैं जाे लाइलाज हैं. वायरल बीमारियाें के भी बहुत से मरीज ऐसे हैं, जिनका इलाज अभी संभव नहीं है. लेकिन आज नहीं ताे कल, लाेग कैंसर आैर वायरस पर नियंत्रण पा लेंगे.
लगता है कि भविष्य में मेडिकल साइंस माैत पर काबू पा लेगा?
माैत पर काबू पाने की बात ताे नहीं कह सकते हैं लेकिन मेडिकल साइंस आयु बढ़ा सकता है. 20 साल पहले की बात है, इंगलैंड में पचास ऐसे लाेग थे जिनकी आैसत आयु साै वर्ष थी. अब वहां पांच हजार से ज्यादा हैं, जाे साै साल से ज्यादा के हैं.
मरीज डॉक्टर में भगवान का रूप देखता है. डॉक्टर किस रूप में मरीज काे देखते हैं?
यह अनपढ़ लाेग ही करते हैं.
बेवकूफ ही करते हैं. अमेरिका में काेई भगवान नहीं साेचता. यह हिंदुस्तानी ही हैं जाे हर बात में हाथ जाेड़ लेते हैं. पूजा कर लेते हैं, क्याेंकि हम जानते ही नहीं हैं. अज्ञानी हैं. चारा भी नहीं है. साधन भी नहीं है. इसलिए भगवान के आगे हाथ जाेड़ लेते हैं. हम भगवान में विश्वास नहीं करते हैं. लेकिन काेई फर्क नहीं पड़ता. हम डॉक्टर हैं. समाज ने हमें जिम्मेवारी दी है. इसकाे देखना है, बचाना है. जाे मरीज हम लाेग के पास आते हैं, उनकी मदद करनी है. ठीक करना ताे बहुत बड़ी बात है. हां, हमकाे जितनी मदद हाे सकेगी, हम मेडिकली मदद करेंगे.
इतने अनुभव हाेने के बाद भी आप राेज अध्ययन करते हैं, अपने काे अपडेट करते हैं. अन्य चिकित्सक भी ऐसा कर पाते हैं?
अन्य डॉक्टराें के बारे में हम कुछ नहीं कह सकते. लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि राेज अध्ययन अनिवार्य है, अपडेट रहना अनिवार्य है. जाे भी नॉलेज आपके पास है, वह राेज पुराना पड़ जाता है. दस दिनाें पहले अाप जाे पढ़े थे, सीखे थे, दस दिन में उसमें काफी रिसर्च हाे जाते हैं, नयी-नयी जानकारियां आ जाती हैं. बिना अपडेट किये काम नहीं चलनेवाला. रेगुलर पढ़ाई अनिवार्य है. चाहे आप कंप्यूटर रखिए या जर्नल पढ़िए. हम ताे कंप्यूटर ट्रेंड हैं नहीं लेकिन जर्नल ट्रेंड जरूर हैं. राेज उलट-पलट कर देखते रहता हूं, सीखते रहता हूं कि दुनिया में क्या नया हाे रहा है.
मेडिकल के पेशे काे सेवा का पेशा माना जाता रहा है. क्या अब भी ऐसा है या इसमें पैसा घुस गया है?
हिंदुस्तान जैसी जगहाें पर इस पेशा काे सेवा माना ही जायेगा. ऐसे भी यह एक प्रकार का सर्विस ही है लेकिन सर्विस विथ ए कॉस्ट. यू चार्ज समथिंग फॉर इट. फ्री में ताे करते नहीं हैं. अब धीरे-धीरे मन में यह बात घुस रही है कि यह भी एक प्रकार का प्राेफेशन है, जैसे लॉ एक प्रकार का प्राेफेशन है. लेकिन हिंदुस्तानी वातावरण में सेवा बहुत दिनाें तक चलेगी.
पहले शिक्षकाें की तरह डॉक्टराें की बहुत प्रतिष्ठा थी. क्या अब भी है या इसमें कमी आयी है?
यह डिपेंड करता है कि डॉक्टर काैन है. लाेगाें की प्रतिष्ठा अभी भी है आैर नहीं भी है.
जब काेई क्रिटिकल केस आपके पास आता है ताे कभी आपकाे लगता है कि मामला आपके हाथ में नहीं है? ऊपर वाले के हाथ में है.
कई बार ऐसा लगता है. हमकाे लगता है कि इसके पास इतना पैसा नहीं है कि कहीं आैर जा सकता है. हमकाे ही यह जिम्मेवारी दी गयी है. हम बेहतर से बेहतर इलाज करने का प्रयास करते हैं.
काेई ऐसा केस याद है जब आप निराश हाे गये हाें लेकिन इलाज के बाद चमत्कार दिखा?
साल भर में एक-दाे ऐसे केस आते रहते हैं. एक घटना याद है. एक गरीब मां-बाप बेहाेश बच्चे काे लेकर आया था. बिल्कुल बेहाेश. हमकाे लगा कि हम उसे बचा सकते हैं. तीन माह तक बेहाेश ही रहा. हम उसका इलाज करते रहे. तीन माह बाद जब वह आया ताे हंसते-खेलते आया. हम खुश थे. बच्चे के पिता से कहा कि जान ताे बच गयी लेकिन दवा जिंदगी भर खानी पड़ेगी.
आप भी कभी निराश हाेते हैं?
बहुत.
समाज ने एक केके सिन्हा काे देखा. क्या आप दूसरा केके सिन्हा देख पा रहे हैं?
हम उतना बड़ा अपने आपकाे नहीं मानते. आपने मुझे बहुत बड़ा बना दिया. हम उतने बड़े नहीं है. थाेड़ा नीचे आइए. आइएम वनली ए ह्यूमन. हमारे पास नॉलेज का एक छाेटा-सा फंड है. जाे है, उसे राेज अपडेट करने का प्रयास करते हैं आैर उसी के अनुसार हम ट्रीटमेंट करते हैं. हम चाहते हैं कि मरीज का कम खर्चा में काम चल जाये. लेकिन ऐसा हाेनेवाला नहीं है. दुनिया तेजी से बढ़ रही है. न्यूराेसाइंस में 20 साल में रिवाेल्यूशन हाे चुका है.
सबसे बड़ी उपलब्धि आप किसे मानते हैं?
डॉ वाडिया काे फादर अॉफ इंडियन न्यूराेलॉजी कहा जाता है. हाल ही में उनका निधन हुआ है. उनकी किताब में तीन चैप्टर (लेख) मेरे आैर डॉ वाडिया के लिखे हुए हैं. इसे हम अपना सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन मानते हैं. इसके अलावा भी कई आैर हैं.
सबसे ज्यादा संतुष्टि आपकाे किस काम में मिलती है?
कई कामाें में. हम साेचते रहते हैं कि हमसे काेई बुरा काम न हाे जाये. हम उस एरिया में जाना ही नहीं चाहते जहां हमारी बदनामी हाे. हम कभी किसी से पैसा नहीं ऐंठते. किसी काे ठगने या बेवकूफ बनाने का हमारा स्वभाव नहीं रहा है. जहां तक संतुष्टि की बात है, किसी काे सहयाेग कर हम याद नहीं रखते, भूल जाते हैं. दे दिया ताे दे दिया, मदद कर दी ताे कर दी, याद क्या करना. ढिंढाेरा क्या पीटना. किसी काे पढ़ने में सहयाेग किया ताे फिर उसकी चर्चा भी नहीं करता.
आपकाे संगीत का बहुत शाैक है. यह कब से है आैर किस प्रकार के गाने आप सुनते हैं?
संगीत का शाैक ताे बचपन से है. हमारे पिताजी काे संगीत में काेई रुचि नहीं थी. चाचा काे थी. एक राेचक घटना बता रहा हूं. हमारे पास एक हारमाेनियम कैसे आया था. मेरे गांव के एक रैयत ने मेरे चाचा से पैसा उधार लिया था. वापस नहीं कर पा रहा था. उस रैयत का बेटा कमाने के लिए बर्मा चला गया था. रंगून से लाैटते वक्त वह अपने साथ एक हारमाेनियम खरीद कर लाया था. मेरे चाचा ने रैयत पर पैसे के लिए दबाव डाला. रैयत ने भाेजपुरी में कहा- हमरा ताे पैसा-वैसा नइखे. इ हरमाेनियमा ले जाइं. इसके बाद मेरे चाचा हारमाेनियम लेकर चले आये. लेकिन उनकाे संगीत में इंटरेेस्ट पहले से था. पिताजी धार्मिक आदमी थे. लिखावट शानदार. लिख दिया ताे लगता था कि टाइप किया हुआ हाे.
संगीत का सेहत पर काेई असर पड़ता है?
जबरदस्त पड़ता है. माइंड पर पड़ता है. माइंड ही क्याें, पूरे शरीर पर भी पड़ता है.
एक आम आदमी काे संगीत के माध्यम से सेहत बनाये रखने के लिए क्या करना चाहिए?
राेज संगीत सुनना चाहिए, अपने मन का, अपनी पसंद का संगीत. जाे आप लाइक करते हैं. हम ताे शास्त्रीय संगीत पसंद करते हैं, उसे उस समय भी सुनते हैं जब हम राेज 90 मिनट वॉक करते हैं.
आपने कई किताबें लिखी हैं, लेख लिखे हैं, मेडिकल के छात्र उसे पढ़ते हैं, कुछ बतायेंगे?
एक जमाना था जब हम खूब लिखते थे. एक-दाे आपकाे दिखा देंगे. लेकिन अब हिस्ट्री पर भी लिखता हूं. वह एरिया भी हमकाे बड़ा इंटरेस्टिंग लगता है. हमने लेख भी लिखा है कि मुगल सम्राट अकबर काे काैन सी बीमारी थी. अकबर काे अक्षर नहीं पहचानने की बीमारी थी. वह जिंदगी भर चार अक्षर अ, क, ब आैर र ही पहचान पाया. अकबर काे एक स्नायु राेग था, जिसे कांजेनाइटल डिसलेक्सिया था. इसलिए वह काेशिश करने के बावजूद पढ़ नहीं पाया. हमने एक दूसरा लेख भी लिखा कि अकबर के दरबार में तंबाकू कैसे लाया गया था. हमने लेख लिखा कि राजा राम माेहन राय की माैत किस बीमारी से हुई थी.
इतिहास में आपकी गहरी रुचि है. काैन हैं आपके नायक?
एक हाें तब न! एक नहीं हैं, अनेक हैं. अनेक लाेग ऐसे हैं जिन्हाेंने हमें प्रेरित किया.
मेडिकल की भाषा बहुत कठिन हाेती है. लाेग समझ नहीं पाते…
लाेगाें काे सरल भाषा में समझाया जा सकता है. आप सिर्फ डॉक्टर नहीं हैं. समझाने की कला भी आपकाे आनी चाहिए. आप चाहें ताे नर्व सेल की तसवीर बनाकर आम लाेगाें काे समझा सकते हैं. लाेग समझेंगे.
चाहे बच्चे हाें, युवा हाें या बुजुर्ग, कैसे वे स्वस्थ रह सकते हैं?
बचपन से ही सीखना हाेगा कि कैसे स्वस्थ रहा जाये. कैसे दीर्घायु हाें. इसके लिए फाेकस्ड रहना हाेगा. ज्यादा लाेग लापरवाह हाेते हैं. किसी काे सिगरेट पीने की आदत हो, किसी काे कुछ नशा की चीजें खाने की आदत हो, किसी काे ज्यादा खाना खाने की आदत हाे, काेई माेटा हाे गया हाे, किसी काे डायबिटीज हाे गया हाे, ताे चेत जाना चाहिए. यह पूरे देश में महामारी की तरह फैल रहा है. आंध्र के कुछ क्षेत्राें में 40 प्रतिशत तक वयस्काें काे डायबिटीज है. ठीक है डायबिटीज हाे गया ताे हाे गया. अब चाैकस ताे रहें. खाना पर नियंत्रण रखें. देखिए, हम भिखारी की तरह खाना खाते हैं.
बच्चे फास्ट फूड की आेर भागते हैं, इसका सेहत पर क्या असर पड़ता है?
फास्ट फूड दीजिए लेकिन पहले से सतर्क करते रहिए. बच्चे हैं ताे फास्ट फूड मांगेंगे ही, खायेंगे ही. बच्चे नहीं खायेंगे ताे काैन खायेगा फास्ट फूड, काहे के लिए बना है फास्ट फूड. हां, हम नहीं खा सकते फास्ट फूड. अगर खायेंगे ताे महीना में थाेड़ा सा. चख लेंगे. आपकी उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, आप डेंजर जाेन में जाते हैं, आपकाे सतर्क हाे जाना चाहिए. आप जाे भी खा रहे हैं, वह आपके शरीर में जा रहा है, वेट बढ़ायेगा, काेलेस्ट्राल काे बढ़ायेगा. सुगर काे अप-डाउन करता रहेगा. हमारा कुक जाे भी बना कर लाता है, हम छांट लेते हैं. कैलाेरी भी गिन लेते हैं, फिर खाते हैं. जैसे हम सतर्क हैं, सभी काे हाेना हाेगा.
लाइफ है क्या? इसे आप किस रूप में देखते हैं?
लाइफ मिस्टिरियस चीज है. हम भगवान में भराेसा नहीं करते हैं लेकिन लाइफ में करते हैं. लाइफ बायाेलॉजिकल चीज है. कई ऐसी बीमारियां हैं जाे सिर्फ प्राेटीन की गड़बड़ी से हाेती हैं. एक में प्राेटीन सीधा-साधा है, एक में टेढ़ा-मेढ़ा. वायरस नहीं है वह, लेकिन उसके कारण बीमारी हाे गयी. ऐसी खतरनाक बीमारी, जिसके कारण जान भी जा सकती है. ये सारी मिस्टिरियस चीजें हैं जिसे हम राेज ही सीख रहे हैं.
शरीर में वह क्या है, जिसे आत्मा कहते हैं आैर जिसके निकल जाने से सब कुछ स्थिर हाे जाता है, डेड हाे जाता है.
इसकाे बॉयलॉजी में लाइफ कहते हैं. लाइफ के कारण ही ताे बॉयलॉजी है. लाेहा, साेना, चांदी में लाइफ नहीं है लेकिन बायाेलॉजिकल जितने भी सब्जेक्ट हैं चाहे वह सिंगल सेल हाे, डबल सेल हाे, बैक्टीरिया हाे, माेलेक्यूल्स हैं, सब में लाइफ है.
आपने लंबी दुनिया देखी है. आनेवाले दिनाें में कैसा भारत आप देख रहे हैं, आपका अनुभव क्या कहता है?
साै साल में धर्म का अर्थ ही बदल जायेगा. बहुत सी बकवास की चीजें खत्म हाे जायेंगी. आनेवाली पीढ़ी का अपना एजेंडा हाेगा, उनकी प्राथमिकताएं अलग हाेंगी. मनुष्य काे माइंड मिला हुआ है, बकरी या अन्य किसी जानवर काे सिर्फ सरवाइवल के लिए माइंड मिला है. मनुष्याें काे थिंकिंग के लिए मिला है. माइंड बहुत बड़ी चीज है.
बीएचयू की काेई घटना, जाे आपकाे याद है?
हमने जुलाई में एडमिशन लिया था. मालवीय जी का डेथ हुआ था पांच नवंबर 1946 काे. मालवीयजी का जब डेथ हाे रहा था ताे सभी छात्र, शिक्षक लाइन लगा कर दर्शन कर रहे थे. हम भी वहां पर थे. वह दृश्य हमकाे आज भी याद है.
आपके आदर्श काैन रहे हैं?
महात्मा गांधी. डॉ आंबेडकर भी, जिन्हाेंने संविधान बनाया. इन लाेगाें का जीवन वैसा है जिन्हें बहुत कठिनाई हुई. इन्हाेंने सब कुछ सहा. देश-समाज काे जाे दिया, वह सब अच्छा ही दिया. कुछ भी गलत नहीं किया. जवाहरलाल नेहरू में कुछ कमियां थीं. हिंदुस्तान का बंटवारा नहीं हाेता, अगर नेहरू प्रधानमंत्री बनने की इच्छा नहीं रखते.
आपकाे जीवन में कभी किसी राजनीतिज्ञ ने परेशान किया?
इस पर हम ध्यान ही नहीं देते. साेचते हैं कि दुनिया में घटना ताे हर किसी के साथ घटते रहती है. अगर मेरे साथ कुछ हाेता भी है ताे आधा घंटा में सब कुछ भुला देते हैं.
कभी राजनीति में जाने का मूड किया?
एक बार काेडरमा से चुनाव लड़ने का माैका आया था. उसी में डॉ सीपी ठाकुर काे पटना से टिकट मिला था. हम नहीं गये राजनीति में. हमकाे कहा गया, जाइए, काेडरमा से आपकाे टिकट मिला. हमकाे ताे उस दिन रात में नींद ही नहीं आयी. हमने कह दिया- हमकाे नहीं चुनाव लड़ना. सीपी ठाकुर काे पटना से आैर हमकाे काेडरमा से अॉफर मिला था. हमने कहा- हम डॉक्टर हैं आैर डॉक्टर ही रहेंगे. जिसकाे जहां जाना है जाये. राजनीति में घुस कर आप डॉक्टर ताे नहीं ही रहेंगे. हम डॉक्टरी छाेड़ना ही नहीं चाहते थे.
अगर आपसे झारखंड काे डेवलप करने का सुझाव मांगा जाये ताे क्या कहेंगे?
झारखंड तुरंत ताे डेवलप स्टेट नहीं बन सकता है. यहां समस्याएं जबरदस्त हैं. समय लगेगा. हमारे यहां जाे एडमिनिस्ट्रेटिव अॉफिसर हैं, उनमें थाेड़ी ऐंठ ज्यादा आ जाती है. बिना माने मतलब के. आप सेल्फलेस सर्विस कीजिए. आप ब्रिलिएंट हैं आैर अापकाे दिया गया है पावर. इस पावर का मिसयूुज मत कीजिए. ऐंठ मत दिखाइए. काम कीजिए. इस राज्य के 90 फीसदी राजनीतिज्ञाें में काेई गुण नहीं है. रघुवर दास सीधे आैर सरल मुख्यमंत्री हैं. उन्हें कई सलाहकार भी मिले हुए हैं. ये सलाहकार कई किस्म के हैं. अगर सीनियर आइएएस अफसराें काे ऐंठ आ गयी ताे ये बहुत कुछ नहीं कर पायेंगे. अगर ऐंठ नहीं आयी आैर वैसे ही सलाह देते रहे, काम करते रहे जैसे आइएएस बनने के तुरंत बाद किया करते थे, ताे यहां काम हाेगा. हां, यहां अच्छे आइएएस अफसर भी हैं. इनकी संख्या बहुत कम है, लगभग 20 प्रतिशत. बाकी ताे वैसे ही हैं. इन्हीं अच्छे अफसराें के बल पर राज्य चल रहा है.
विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीजें क्या हाेनी चाहिए?
ईमानदारी नंबर वन. फिर काम करने की क्षमता. दूसरे देश के लाेग हमसे क्याें आगे बढ़ गये. अफ्रीका से सत्तर हजार वर्ष पहले मनुष्य निकले. दुनिया में कई जगहाें पर चले गये. आइस एज उस समय नहीं था. छिछला पानी था. ट्रैवल करते-करते रेड इंडियन अमेरिकी महाद्वीप तक चले गये. अंगरेज भी इसी प्रकार यूराेप चले गये. अंगरेज लाेग आम ताैर पर तेज हाेते हैं. अंगरेजाें के 16 जीन साधारण लाेगाें से अलग है. वे नाेबेल प्राइज-विनर भी ज्यादा हैं. उनका चेहरा भी अलग हाेता है, कल्चर भी अलग. लेकिन हैं ताे वे मनुष्य ही.
एक पिता के दाे बेटे, एक पढ़ने में काफी तेज, जीनियस आैर दूसरा बिल्कुल कमजाेर. ब्रेन में काैन-सा ऐसा पार्ट है जिसके कारण यह अंतर आता है?
एक नहीं, अनेक कारण हैं. कुछ ताे साेशल है, इनवायरमेंटल है आैर कुछ ताे जेनेटिकली ही डिफरेंट है. मैटेरियल ही डिफरेंट है. एक साेने का बना हुआ है आैर दूसरा पीतल का.
एक बच्चा बचपन से कमजाेर है ताे क्या मेहनत कर वह बहुत तेज बन सकता है?
वह नाेबेल प्राइज विनर ताे नहीं बन सकता है. मेहनत से बेहतर हाे जायेगा. पहले से अच्छा करेगा. उतना तक ताे हाे सकता है लेकिन वह जीनियस नहीं हाे सकता. अगर वह बुद्धिहीन है ताे कुछ नहीं हाे सकता.
जीवन में धन का कितना महत्व है?
धन का बहुत महत्व है. बिना धन के आगे बढ़ा नहीं जा सकता. लेकिन सवाल है धन कैसा. अपना धन या कलेक्टिव धन. कलेक्टिव धन का बहुत ज्यादा महत्व है. जैसे आेबामा हैं, उनके पास पावर है लेकिन उनके पॉकेट में अपना पैसा ज्यादा नहीं है पर अमेरिका धनी देश है. अाेबामा उस पावर काे या कलेक्टिव पैसे का उपयाेग कर सकते हैं, एेसा धन चाहिए.
परिवार टूट रहा है. काैन सी ताकत है जाे परिवार, समाज काे बचा सकती हैै?
एक ताे पापुलेशन कंट्राेल नाम की काेई चीज ही नहीं है भारत में. जिस समय हमारा एडमिशन 1946 में बीएचयू में हुआ था, उस समय भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान को मिला कर कुल अाबादी थी 33 कराेड़, आज 133 कराेड़ ताे सिर्फ भारत की है. पाकिस्तान, बांग्लादेश की अलग. एक लाल तिकाेन चला था. अब इस पर काेई ध्यान ही नहीं देता. परिवार काे एक रखा जा सकता है बता कर, शिक्षा देकर. यह बता कर कि क्याें तुम्हें छाेटा परिवार चाहिए. लाेगाें काे यह बताना हाेगा कि पांच-सात बच्चाें काे सिर्फ जन्म देने से कुछ नहीं हाेगा. उनकी परवरिश ठीक ढंग से नहीं हाे सकती. क्वालिटी एजुकेशन संभव नहीं हाेगा. यह बात वैसे लाेगाें के दिमाग में घुसानी हाेगी.
सबसे बड़ा संकट समाज के सामने क्या देखते हैं?
एक ताे सबसे बड़ा संकट आबादी का बढ़ना है. सरकार भी ध्यान नहीं देती. पता नहीं माेदीजी का ध्यान इस आेर क्याें नहीं जाता! हम मानते हैं कि भारत में जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें माेदीजी जैसे कम हुए. एक आैर संकट है नेचर से खिलवाड़ करने की आदत. प्रकृति ने जाे कुछ दिया है- पेड़, जंगल, पहाड़, नदी, उसे नष्ट नहीं करना चाहिए. हां, जहां जरूरत है, वहां जरूर ताेड़ें, खाेदें. विकास के लिए यह आवश्यक है भी, लेकिन यह सब बेहतरी के लिए हाे. क्या करेंगे 10 कराेड़, 20 कराेड़, 100 कराेड़ कमा कर. पैसे के लिए नेचर के साथ मजाक किया. किसी काे ठग लिया. आपने नेशन के बारे में, ह्यूमैनिज्म के बारे में नहीं साेचा. प्रकृति के बारे में साेचा ही नहीं, सिर्फ अपने बारे में साेचा, इसलिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद करें.
लाेगाें के चेहरे पर खुशी कैसे रहेगी?
एक ताे खुश रहनेवाली पर्सनालिटी ही हाेती है. दूसरा है फालतू बाेझ माथे पर नहीं लेना. बाेझ काे हटाइए. बाेझ ताे आप खरीद रहे हैं. पांच-सात बच्चे पैदा कर ताे लेते हैं, कहां से उनके खाने-पीने, इलाज, पढ़ाई का खर्च लाआेगे? एक बीमार हुआ, डॉक्टर के पास ले गये, वहां से लाैटे ही हैं कि दूसरा बीमार पड़ गया. ऐसे में कैसे काेई खुशहाल रहेगा. उस बेचारी मां का जीवन क्या रहेगा. यह बात लाेगाें काे समझनी हाेगी.
एक मनुष्य काे अपने जीवन में क्या-क्या काम करना चाहिए?
मेरा मानना है कि सबसे बड़ा धर्म है मनुष्यता. किसी काे मदद पहुंचाना सबसे बड़ा धर्म है. आदमी काे ह्यूमेनिज्म पर ही ध्यान देना चाहिए, कुछ आैर पर नहीं. हमारी यही सलाह है कि ह्यूमेनिज्म पर विश्वास कीजिए. सभी समस्याओं का समाधान यही है. प्रकृति ने मनुष्याें काे माइंड दिया है. गाय-बैल काे नहीं दिया है. इसलिए इसका उपयाेग साेच-समझकर करना चाहिए. बेहतर है मनुष्य फालतू चीज पर दिमाग नहीं लगा कर ह्यूमेनिज्म पर भराेसा करे आैर सृजनात्मक काम में लगा रहे. जहां तक संभव हाे, दूसराें का भला करते रहें. यही जीवन का सार है.
बीएचयू के इस दाे साल ने मेरी जिंदगी बदल दी. हम अविभाजित भारत की बात कर रहे हैं. हम वहां जुलाई 1946 में गये थे. उस समय हिंदुस्तान के अलावा दुनिया के कई देशाें से छात्र पढ़ने आते थे. उस क्षेत्र के भी छात्र पढ़ने आते थे जाे आज पाकिस्तान-बांग्लादेश के अंदर आता है. बीएचयू अॉल इंडिया यूनिवर्सिटी था. वहां दस हजार विद्यार्थी आैर एक हजार शिक्षक थे. जब हम वहां पढ़ते थे, उस समय डॉ राधाकृष्णन वहां के वाइस चांसलर थे. यही डॉ राधाकृष्णन बाद में भारत के राष्ट्रपति बने. बीएचयू के वातावरण में हमारी आंखें वास्तव में खुली.
भारत की पढ़ाई भी अच्छी थी. टीचर लाेग पढ़ाते थे. लेकिन वह क्वालिटी नहीं थी. इंगलैंड में माैका बहुत है लेकिन सीखना आपकाे है. काेई दबाव डाल कर आपकाे नहीं पढ़ायेगा. अगर काेर्सेज लेना है ताे पढ़ा देंगे सवेरे से शाम तक, लेकिन अगर काेर्सेज नहीं लेना है, आप वर्क कर रहे हैं ताे अपने सीखना है. अमेरिका में यह कहते हुए आपकाे गला पकड़ कर पढ़ा देंगे कि यू हैव टू लर्न दिस. आपसे सवाल इतना पूछा जायेगा कि अापकाे शर्म लगेगी आैर आप रात भर जग कर उस टॉपिक काे पढ़ेंगे. थाेड़े समय में भी अमेरिकन लाेग गर्दन दबा-दबा कर पढ़ा लेते हैं. ब्रिटेन अलग है. वहां परंपरा का बहुत वैल्यू हाेता है, जैसे- कैसे रहना है, कैसे बात करनी है. लेकिन अमेरिका में एेसा नहीं हाेता.
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