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विश्लेषण : धर्म निजी अकीदत का विषय है अथवा सार्वजनिक प्रचार और दूसरे पर लादने का रिवाज? के विक्रम राव सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक स्थानों जैसे सड़क, फुटपाथ आदि पर अवैध धार्मिक स्थलों के निर्माण पर गहरी नाराजगी जताते हुए 19 अप्रैल को कहा था कि यह भगवान का सम्मान नहीं, बल्कि अपमान है. सड़क […]

विश्लेषण : धर्म निजी अकीदत का विषय है अथवा सार्वजनिक प्रचार और दूसरे पर लादने का रिवाज?
के विक्रम राव
सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक स्थानों जैसे सड़क, फुटपाथ आदि पर अवैध धार्मिक स्थलों के निर्माण पर गहरी नाराजगी जताते हुए 19 अप्रैल को कहा था कि यह भगवान का सम्मान नहीं, बल्कि अपमान है. सड़क लोगों के चलने के लिए होती है. कोर्ट ने राज्य सरकारों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि उन्हें इस तरह के अवैध निर्माण हटाने चाहिए. पढ़िए एक टिप्पणी.
पंद्रह वर्ष बाद फिर एक बार सर्वोच्च न्यायालय ने अकीदा और आस्था का भूमाफिया और धंधेबाजों द्वारा दोहन समाप्त करने का आदेश दिया. पिछला आदेश जनवरी 2000 में दिया था, पर सरकारों ने कागजी बनाये रखा. गत माह चांदनी चौक के गुरुद्वारों के पास प्याऊ को फिर से बना कर कथित आस्थावानों ने अदालत के आदेश को रद्दी करार दिया. अत: गत सप्ताह का आदेश क्या कारगर हो पायेगा. यह देखना दिलचस्प होगा. इसी परिवेश में अहमदाबाद का उदाहरण है.
नगरपालिका के अध्यक्ष थे सरदार वल्लभभाई झवेरदास पटेल जो आजाद भारत में प्रथम उप प्रधानमंत्री हुए. उन्हीं वर्षों में इलाहाबाद नगर पालिका के अध्यक्ष होते थे जवाहरलाल नेहरू. तब राजनीति में लोग स्थानीय संस्थाओं से होकर ऊपर उठते थे. बाद में लोग आसमान से उतर कर सीधे प्रधानमंत्री बनते रहे.
सरदार पटेल ने अहमदाबाद मेें फुटपाथों और चौराहों पर के मंदिरों को अपने सामने तुड़वाया. सड़कें चौड़ी करवायीं. हालांकि सरदार पटेल पर आरोप था कि वे घोर हिंदूवादी हैं. उन्होंने सोमनाथ के ध्वस्त मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आलोचना की थी कि यह प्रतिक्रियावादी प्रवृति है. सरदार पटेल का जवाब था कि पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर सदैव स्वाधीन भारत की राष्ट्रीय सार्वभौमिकता का प्रतीक रहा है. मगर बिना हिचक सरदार पटेल ने अहमदाबाद में फुटपाथी मंदिरों का सफाया करा दिया था. हालांकि, सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा करनेवाले नेता के ये अनुयायी राज्य के तमाम नगरों और कस्बों के सार्वजनिक स्थलों से धार्मिक अतिक्रमण हटाने का कदम सत्ता में रहकर भी उठा नहीं पाये.
मसलन नौ साल पूर्व उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाजपा समर्थित सरकार ने ‘सार्वजनिक धार्मिक भवनों और स्थलों का विनियमन विधेयक, 2000’ पारित किया. इसके उद्देश्य और कारण थे कि किसी भवन या स्थल का सार्वजनिक धार्मिक उपयोग और उस पर निर्माण कार्य को लोक-व्यवस्था में विनियमित किया जाये.
यह कानून एक आवश्यक और अनूठा कदम था, मगर विपक्षी दलों ने वोट की लालसा से इस महत्वपूर्ण विधेयक का विरोध किया. उसे सतही तौर पर लिया. उसके सर्वांगीण पक्षों पर गौर करना चाहिए. बात पुरानी है किंतु नागरिक विकास की दृष्टि से अहम है. लखनऊ तब नयी नवेली राजधानी बनने वाली थी. सरकार प्रयाग से अवध केंद्र में आ रही थी. उस दौर की यह बात है. अमीनाबाद पार्क, (जो तब सार्वजनिक उद्यान था) में पवनसुत हनुमान का मंदिर प्रस्तावित हुआ. मंदिर समर्थक लोग कानून के अनुसार चले. नगर निगम ने 18 मई 1910 को प्रस्ताव संख्या 30 द्वारा निर्णय किया कि अमीनाबाद पार्क के घासयुक्त (लॉन) भूभाग से दक्षिण पूर्वी कोने को अलग किया जाता है. ताकि मंदिर तथा पुजारी का आवास हो सके.
तब म्युनिसिपल चेयरमैन थे आइसीएस अधिकारी उपायुक्त मिस्टर टीएएच वेये, जिन्होंने सभा की अध्यक्षता की थी. मंदिर के प्रस्ताव के समर्थकों में थे खान साहब नवाब गुलाम हुसैन खां. एक सदी पूर्व अवध इतिहास का साक्षी रहा यह अमीनाबाद पार्क देश के विभाजन पर पाकिस्तान से आये शरणर्थियों के कब्जे में चला गया. हरियाली की जगह टीन, गुम्मे और सीमेंट छा गये. शहर की अस्मिता मिट गयी. मंदिर बना था सार्वजनिक अनुमति से, मगर बाद में दुकानें बन गयीं निजी लाभ हेतु.
इसी सिलसिले में आगे चल कर सड़क के किनारे वाली पटरियों पर खोमचेवालों तथा धार्मिक फेरी वालों ने अड्डा जमा लिया. न नगर पालिका से कोई अनुमति ली, न कोई किराया अदा किया. अमीनाबाद का हनुमान मंदिर पवित्र है, कानूनी है, धर्मसम्मत है, वेद-विधान के अनुसार है.
बाकी तमाम फुटपाथी मंदिर और मजार संदेह पैदा करते हैं कि वे उपासना हेतु बने हैं अथवा कोई अन्य मकसद है. यूं किसी भी धर्मस्थल और उपासना गृह के निर्माण तथा स्थापना में विशिष्ट धार्मिक पद्धति होती है. प्रतिमा तो मात्र पाषाण होती है जब तक उसमें विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठान न किया जाए. भारत के कई नगरियों में सरकारी जमीन पर बने मंदिर हिंदू धर्म की दृष्टि से उपासना स्थल कदापि नहीं कहे जा सकते हैं. कई धर्मगुरुओं, विशेषकर जगद्गुरु शंकराचार्य ने इस बात को जोर देकर बताया है. लखनऊ में नालों को पाटकर शिवालय बनाये गये हैं, जहां पुजारीजी का मुफ्त का मकान, चरस गांजे का व्यापार, चढ़ावे का माल अलग, अर्थात कुल मिला कर बिना पूंजी लगाये लाभ ही लाभ है.
अचंभे की बात यह है कि सरकारी जमीन पर ये अवैध धार्मिक निर्माण हो तो लोग मूकदर्शक बन जाते हैं, मगर किसी की निजी संपत्ति पर कोई कोशिश होती है तो मारपीट द्वारा मंदिर निर्माता खदेड़ दिये जाते हैं. एक जिले में एक कारसेवक भाजपा विधायक ने ऐसा ही किया, जब उसकी चहारदीवारी से लगी सड़क के कोने में कुछ लोगों ने कैलाशपति भोले शंकर का मंदिर स्थापित करना चाहा. पुलिसिया कार्रवाई हुई. भोले शंकर का मंदिर ध्वस्त कर दिया गया.
यहां मुद्दा यह है कि जो धर्मप्राण, ईश्वरभक्त महान आत्माएं मंदिर बनाने का संकल्प उठाते है, वे चंदा जमाकर अथवा अपनी निजी संपत्ति लगाकर जमीन खरीद कर अपनी आकांक्षा पूरी क्यों नहीं करते? आखिर संत नीब कौली बाबा के कई शिष्यों ने गोमती तट पर भव्य हनुमान तथा शिव मंदिर निर्मित किये हैं, जहां कुछ देर बैठ कर ध्यान करने मात्र से दुनियावी व्यथाएं, घरेलू चिंताएं, मानसिक तनाव दूर हो जाते हैं. उस स्थल पर अनिर्वचनीय आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति होती है.
इसलामी जमात को भी अब जागरूक होना चाहिए ऐसे मजहब के नाम पर सौदागरी करनेवालों से, जो फुटपाथ पर मजार के नाम पर कब्जा करेंगे. ऐशबाग की पाक कब्रगाह की जमीन पर काबिज होकर दुकाने खोलेंगे. मुनाफा कमायेंगे. उस रकम को बैंक में जमाकर उसके सूद से तिजारत बढ़ायेंगे. कुराने पाक में कहा गया है कि रिबा (ब्याज) हराम है, फिर भी इन मुसलमानों को खौफ नहीं होता.
उनके समानांतर उदाहरण मिलता है हरिद्वार से जहां विश्व हिंदू परिषद के नेता ने नगर पालिका अध्यक्ष होने पर एक होटल को गंगातटीय तीर्थ स्थली में मांस परोसने का लाइसेंस दे डाला था. मगर सूद पर धंधा करने वाले ये सौदागर कह सकते हैं कि अरब राष्ट्रों के चालीस तथा विश्व भर के साठ इसलामी बैंक सवा सौ अरब डाॅलर का व्यापार करते हैं, जिस पर करोड़ों डाॅलर का ब्याज आता है.
धंधे के मुनाफे से अकीदत का रिश्ता कैसा?
सार्वजनिक स्थल पर कोई धर्म के नाम पर ध्वनि प्रदूषण फैलाये तो वह दंडनीय अपराध होगा. इस विषय पर कलकत्ता उच्च न्यायालय का स्पष्ट निर्णय आ चुका है. लखनऊ में आये दिन भगवती जागरण और लाउडस्पीकरों द्वारा अजान होने से बहस का यह मुद्दा उठता है कि धर्म एक निजी अकीदत और आस्था का विषय है अथवा सार्वजनिक प्रचार और दूसरे पर लादने का रिवाज? हर राज्य शासन को इस मुद्दे पर भी विधेयक लाना चाहिए, ताकि नागरिक के शांत वातावरण वाले मूलाधिकारों की रक्षा हो सके. सुबह टहलते समय यदि किसी को छड़ी हवा में घुमाने का शौक है, तो दूसरे हमसफर को उससे अपनी नाक और सिर बचाने की अधिकार भी है.
धर्म पर भी यह नियम लागू होता है. दूसरी त्रुटि इस विधेयक में यह थी कि पूर्व प्रभावी अर्थात अनुदर्शी नहीं है. यह आवश्यक है. इस बात की जांच होनी चाहिए कि राज्य के सार्वजनिक भूखंडों पर ये मंदिर तथा मजार कब, किसकी अनुमति से और कैसे बने? फुटपाथ आदि नागरिक के हैं, न कि हिंदू या मुसलमान उपासकों के. आमजन की जमीन को पूजा स्थल बनाकर उसके चढ़ावे से मुनाफा कमाने हेतु उपयोग करना वर्जित होना चाहिए.
राजनेतागण वोट शक्ति से आतंकित रह कर कोई वीरोचित निर्णय नहीं ले सकते. शासनतंत्र और नौकरशाही की रीढ़ ही नहीं होती. अत: एकमात्र न्यायपालिका पर ही आस्था टिकती है कि वही नागरिकों का परित्राण कर सकती है. उच्चतम न्यायालय से ही यह अपेक्षा होगी कि फुटपाथ तथा सार्वजनिक स्थलों पर से इन धार्मिक अतिक्रमणों को हटाये. सरकारी तथा सार्वजनिक जमीन को व्यक्तिगत लाभ हेतु धर्म विशेष के लिए उपयोग करना सेक्युलर लोकतंत्र की आवधारणा के प्रतिकूल है.
न्यायालय को राज्य सरकार, प्रबुद्ध नागरिकों तथा संबंधित व्यक्तियों को जनहित में सुनना चाहिए ताकि धर्म के आवरण में मुनाफाखोरी बंद हो. दक्षिण भारत के चारों राज्यों में तीर्थस्थलों पर राज्य का नियंत्रण है. उत्तर भारत में राज्य शासन उन सबको अपने दायित्व में ले लेता तो उनका संचालन सुधर जाता. इन तीर्थस्थलों की आय से निर्धन सेवा के लिए संसाधन भी जमा हो जाते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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