वित्त मंत्रालय ने वित्त वर्ष 2015-16 के लिए कर्मचारी भविष्य निधि (इपीएफ) पर 8.7 फीसदी ब्याज दर का निर्धारण किया है, जबकि भविष्य निधि संगठन (इपीएफओ) ने 8.8 फीसदी की सिफारिश की थी. वित्त वर्ष 2013-14 और 2014-15 में यह दर 8.75 फीसदी थी.
वित्त मंत्रालय के फैसले को इपीएफओ की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करार देते हुए श्रमिक संगठनों ने इसके विरोध का निर्णय लिया है. उनका कहना है कि चूंकि इस निधि में सरकार सहयोग नहीं देती है, इसलिए उसे दखल का अधिकार भी नहीं है. इससे पहले सरकार को भारी विरोध के कारण लोक भविष्य निधि (पीपीएफ) की निकासी पर कर लगाने और इपीएफ की निकासी में उम्र की शर्त जोड़ने के अपने फैसले को वापस लेना पड़ा था.
वित्त प्रबंधन में सुधार के तर्क के साथ सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष में विभिन्न बचत योजनाओं की ब्याज दरों में कटौती की है. ताजा फैसला भी उसी कड़ी में है. लेकिन ऐसे कड़े फैसलों के लिए लोगों का भरोसा जीतना जरूरी होता है. ऐसे सुधारों को पहले उच्च आय वर्ग और कॉरपोरेट सेक्टर की ओर लक्षित होना चाहिए, क्योंकि निम्न और मध्यम वर्ग घटती आय और बढ़ते खर्च से पहले से परेशान है. यह तर्क दिया जा सकता है कि यह कमी बहुत मामूली है और बैंकों द्वारा दिये जानेवाले कर्ज के ब्याज में कमी का फायदा लोगों को ही मिल रहा है, लेकिन मूल बात नीतियों के प्रति कर्मचारियों और श्रमिक संगठनों को विश्वास में लेने की है.
इस फैसले को पीएफ से जुड़े हाल के दो फैसलों के साथ जोड़ कर देखा जाना स्वाभाविक है. यदि आर्थिक नीतियां समग्र रूप से कर्मचारियों को लाभान्वित करतीं, तो इस फैसले का विरोध नहीं होता. जब धनकुबेरों पर बकाया मोटे कर्ज की वसूली नहीं हो पा रही है, तब छोटी बचतों पर सरकारी रवैये का समर्थन मुश्किल है.
यह भी जरूरी है कि पीएफ का प्रबंधन पूंजी बाजार के अनुकूल बनाने की कोशिश की जाये. अनेक विशेषज्ञों की राय है कि इपीएफ के निवेश से होनेवाली आय नियमित रूप से घोषित हो और उसके हिसाब से ब्याज का निर्धारण हो. ऐसी पहलों के लिए सरकार और श्रमिक संगठनों को खुले मन से विचार करना चाहिए.