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न सत्ता है, न कोई सुनवाई
पानी पर मार है. हर तरह त्राहिमाम है. कहां तो नदियों को जोड़ कर सारे देश को लबालब करने की बात थी और कहां ट्रेन से बोगियां भर-भर पर पानी पहुंचाने की नौबत आ गयी. दशकों की गलत और अदूरदर्शी नीतियों का विद्रूप उजागर हो गया है. लेकिन वक्त अब भी हाथ से नहीं निकला […]
पानी पर मार है. हर तरह त्राहिमाम है. कहां तो नदियों को जोड़ कर सारे देश को लबालब करने की बात थी और कहां ट्रेन से बोगियां भर-भर पर पानी पहुंचाने की नौबत आ गयी. दशकों की गलत और अदूरदर्शी नीतियों का विद्रूप उजागर हो गया है. लेकिन वक्त अब भी हाथ से नहीं निकला है. प्रकृति एक बार फिर खुल कर मेहरबान होने जा रही है. मौसम विभाग ने बताया है कि दो साल के सूखे के बाद इस साल माॅनसून की बारिश औसत से 106 प्रतिशत ज्यादा रह सकती है.
बस चंद महीनों की बात है. जून-जुलाई से देश में हर तरफ पानी का सुकून होगा. जब से अच्छे माॅनसून की खबर आयी है, तब से ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी कंपनियों के चेहरे खिल गये हैं. साबुन-शैंपू से लेकर ट्रैक्टर तक बनानेवाली कंपनियों के शेयर दनादन चढ़ने लगे हैं. किसानों के चेहरे भी सरकारी विज्ञापनों में चमकने लगे हैं. लेकिन नगरों-महानगरों में ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है’ के भ्रम में जी रहे लोग नहीं जानते कि किसानों के चेहरों से उदासी की राख अभी उतरी नहीं है. सालों पहले एक गरीब किसान की कही बात आज भी याद आती है कि भैया, अपना दुख या मैं जानता हूं या भगवान जानता है.
यह एक कड़वा सच है. भले ही संसद और विधानसभाओं में चुन कर आये तीन-चौथाई से ज्यादा जनप्रतिनिधि गांवों से ताल्लुक रखते हैं. लेकिन खेती-किसानी और गांवों का मायूसी दूर करने का कोई कारगर उपाय उनके पास नहीं है. आसमानी ताकतों से यकीनन कृषि को बचाया नहीं जा सकता. बहुत हुआ तो कृषि बीमा योजना लायी जा सकती है, जिसे हमारी केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि फसल बीमा योजना के रूप में बहुत मजबूती से पेश भी किया है. सिंचाई के अधूरे कामों को भी शिद्दत से पूरा किया जा रहा है. लेकिन सोचिये कि भारत की उस आत्मनिर्भर कृषि व्यवस्था का क्या हुआ, जो शासन की परवाह किये बगैर सदियों तक फलती-फूलती रही?
केंद्र सरकार ने इधर ‘ग्रामोदय से भारत उदय’ का बड़ा अभियान घोषित किया है, जिस पर राज्य सरकारों ने अमल भी शुरू कर दिया है. इस अभियान का लक्ष्य ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाना है. पंचायतों से कहा गया है कि वे बाकायदा ग्राम संसद बुला कर 2016-17 के साथ ही अगले पांच सालों की विकास योजना तैयार करें. लेकिन यहां एक मूलभूत सवाल पर विचार करने की जरूरत है. क्या ग्राम सभाओं को टैक्स लगाने का कोई अधिकार कभी मिलेगा?
आखिर कब तक यह व्यवस्था चलती रहेगी कि ग्राम प्रधान का काम बस कागजों पर दस्तखत करने का है और गांव का हर फैसला अंततः जिला कलेक्टर की मर्जी पर निर्भर रहेगा? गांवों की वित्तीय स्वायत्तता को सुनश्चित किये बगैर उनसे योजनाएं बनवाने का कोई सार्थक परिणाम नहीं मिल सकता. गौरतलब है कि एक अध्ययन के मुताबिक औसतन दो हजार आबादी का गांव हर साल लगभग तीन करोड़ रुपये सरकार को परोक्ष टैक्स के रूप में देता है. क्या इस टैक्स पर उसका कोई हक कभी बनेगा या किसानों को हमेशा यह कह कर सरकारों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जायेगा कि किसान तो कोई इनकम टैक्स देता नहीं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाबा साहब आंबेडकर की 125 जयंती पर एक बड़ी पहल ‘राष्ट्रीय कृषि बाजार’ योजना के रूप में घोषित की है. इसमें पूरा इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म पेश किया जायेगा और इसकी मदद से किसान अपनी फसल देश में कहीं भी बेच सकते हैं. यह मूलतः दस साल पुरानी योजना है. लक्ष्य था कि राष्ट्रीय स्तर चुने गये 585 कृषि बाजारों में से 250 को वित्त वर्ष 2015-16 तक साझा राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म से जोड़ दिया जायेगा. लेकिन 31 मार्च 2016 तक केवल आठ राज्यों के 21 बाजारों को ही इस प्लेटफॉर्म से जोड़ा जा सका है. इस तरह कृषि सुधारों का यह बेहद महत्वपूर्ण कार्यक्रम लक्ष्य से लगभग 92 प्रतिशत पीछे है. प्रधानमंत्री मोदी ने दस सालों के अधूरे काम को पांच महीने में पूरा करने का वादा किया है.
राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना की अपनी विसंगतियां हैं. मसलन, बहुत ही कम किसान मंडियों में अपनी फसल बेचते हैं. मान लीजिए कि झारखंड के किसान ने पंजाब के किसी व्यापारी को फसल बेचने का फैसला लिया तो माल को लाने-ले जाने का खर्च कौन उठायेगा? इस समय आढ़तियों से लेकर स्थानीय व्यापारियों तक ने किसानों के साथ पहले से सौदेबाजी कर रखी होती है. वे किसानों को कर्ज तक देते हैं. कैसे उनसे बच कर कोई किसान राष्ट्रीय इ-प्लेटफॉर्म का सहारा ले पायेगा? लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि यह एक बेहद उपयोगी और जानदार योजना है जिसे अंजाम तक पहुंचाया ही जाना चाहिए.
दरअसल, बाजार ही किसानों की समस्या का स्थाई समाधान पेश कर सकता है. सरकारी सब्सिडी से लेकर कर्जमाफी तो बस समस्या को टालने का काम करती है. हमें गौर करना चाहिए कि किसानों के पास मूलतः दो ही चीजें होती हैं. एक, उसकी फसल और दूसरी, उसकी जमीन. आजादी के लगभग सात दशक बाद भी ऐसी स्थिति क्यों है कि इन दोनों ही चीजों के दाम तय करने का अधिकार किसान को नहीं है. हर उत्पादक या मालिक अपनी चीज का दाम खुद तय करता है. लेकिन फसल से लेकर जमीन तक का दाम किसान नहीं, सरकार, बिल्डर या व्यापारी तय करते हैं. जब तक किसानों को बाजार की ताकत नहीं दी जायेगी, तब तक उनकी समस्याओं का समाधान नहीं निकल सकता.
बाजार से ही अभिन्न रूप से जुड़ा लोकतंत्र का मसला है. गांव में तालाब होगा, स्कूल होगा या सड़क कहां से कहां जायेगी, ऐसे तमाम फैसले करने का अंतिम हक ग्रामसभा को होना चाहिए. कलेक्टर को ग्रामसभा के फैसले पर दस्तखत करने से ज्यादा का हक नहीं होना चाहिए. आखिर वह हमारा नौकर है, अंगरेजों के जमाने का कोई साहब नहीं! गांवों और किसानों को अपनी किस्मत का मालिक बनाना पड़ेगा. तब देखिये कि सरकारी नीतियों के चलते भूजल का जो स्तर सैकड़ों फुट नीचे चला गया है, वह कैसे 40-50 फुट तक ऊपर आ जाता है. इतिहास गवाह है कि रेगिस्तानी राजस्थान के गांव तक पानी का भरपूर इंतजाम करते रहे हैं.
अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काॅम
anil.raghu@gmail.com
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