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फिल्‍म रिव्‍यू: सपनों का उड़ान देती एक मां की कहानी…

II अनुप्रिया अनंत II फिल्‍म: निल बट्टे सन्नाटा कलाकार: स्वरा भास्कर, पंकज त्रिपाठी, रिया शुक्‍ला और रत्‍ना पाठक शाह निर्देशक : अश्विनी अय्यर तिवारी रेटिंग: 4.5 स्टार एक माँ कभी सपना देखना नहीं छोड़ती. माँ तो बस माँ होती है. इसी संवेदना को खूबसूरती से पिरो कर निर्देशक ने ‘निल बट्टे सन्नाटा’ बनाई है. फ़िल्म […]

II अनुप्रिया अनंत II

फिल्‍म: निल बट्टे सन्नाटा

कलाकार: स्वरा भास्कर, पंकज त्रिपाठी, रिया शुक्‍ला और रत्‍ना पाठक शाह

निर्देशक : अश्विनी अय्यर तिवारी

रेटिंग: 4.5 स्टार

एक माँ कभी सपना देखना नहीं छोड़ती. माँ तो बस माँ होती है. इसी संवेदना को खूबसूरती से पिरो कर निर्देशक ने ‘निल बट्टे सन्नाटा’ बनाई है. फ़िल्म के शीर्षक से इस बात का अनुमान लगाया जाना गलत होगा कि यह फ़िल्म गणित विषय के इर्द गिर्द है. गणित विषय को सिर्फ बैकड्रॉप के रूप में इस्तेमाल किया गया है. यह फ़िल्म एक माँ और बेटी की रिश्ते की कहानी है.

सपने की कहानी है. माँ हमेशा चाहती हैं कि उनकी बिटिया कभी भी उसकी तरह बाई न बने. वह दिन रात मेहनत कर रही कि अपनी बिटिया को किसी तरह गणित विषय की कोचिंग लगा सके. उसने कोई अनोखा सपना नहीं देखा है. वह बस चाहती है कि उसकी बिटिया उसकी तरह दसवीं फेल न हो जाये. वह जिंदगी में बेहतरीन दिन देखे. ऐसे में उसे एक राह मिलती है. वह जहाँ खुद काम करती हैं. वहां की डॉक्टर दीदी उसे राय देती है कि उसे भी अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू करनी चाहिए और इसी उम्मीद के साथ वह बेटी के स्कूल में भी दाखिला लेती है.

बेटी जिद्दी है. वह साफतौर पर मान बैठी है कि बाई की बेटी बाइ ही बनेगी. क्योंकि इंजीनयर का बेटा इंजीनयर होता है और डॉक्टर का डॉक्टर तो उस अनुसार बाइ की बेटी तो बाई ही होगी. सो इतना पढ़ लिख कर क्या करना है. लेकिन माँ फिर भी अपनी उम्मीद नहीं छोड़ती. इसी क्रम में उन्हें स्कूल के प्रिंसिपल, डॉक्टर दीदी और एक पढ़ाकू बच्चे का साथ मिलता है, जो उम्र को बाधा नहीं बनने देते और चंदा यानि एक माँ की उम्मीद को टूटने नहीं देती.

निर्देशक ने चंदा के बहाने उठा तबके की भी कहानी कहने की कोशिश की है, जो यह मान बैठते हैं कि गरीब की किस्मत में ही रोना लिखा है. चन्दा किस्मत को तो कोसती है. लेकिन कभी मेहनत करने से पीछे नहीं हटती. वह इस बात से वाकिफ है कि बेटी की पढाई में खर्च होंगे. सो अभी से तैयारी जरुरी है. स्वरा भास्कर ने कहानी को, किरदार को बखूबी जिया है और उन्हें साथ मिला है पंकज त्रिपाठी और रत्ना पाठक शाह जैसे कलाकारों का.

इस फ़िल्म की सबसे खास बात यह है कि जबरन इमोशनल ड्रामा गढ़ने की कोशिश नहीं की गयी. भाषणबाजी का भी सिलसिला नहीं चला. फ़िल्म के अंत में आईपीयस ऑफिसर की परीक्षा में उत्र्तीण अपेक्षा से जब आखिरी सवाल पूछे जाते हैं कि आखिर कार वह क्यों यह बनना चाहती तो किसी दौर में जिसे सपना देखना ही नहीं आता था. उसका जवाब होता है कि क्योंकि मैं बाई नहीं बनना चाहती थी. निर्देशिका ने इन बातों का पूरा ख्याल रखा है कि उन्होंने इसे भावनात्मक रूप दिया है.

आप सपने देखेंगे तभी गरीब नहीं रहेंगे. इस उद्देश्य को कहानी में सही तरीके से पिरोया गया है. निर्देशक की यह पहली फ़िल्म है. लेकिन पहली ही फ़िल्म में उन्होंने दक्षता दर्शायी है. फ़िल्म का विषय, निर्देशन, परफॉर्मेंस बेहद उम्दा है. हर लिहाज़ से यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए. ऐसी फिल्मों को सपोर्ट की जरुरत है तभी ऐसी कहानियां आगे भी बनेगी. अंत में स्वरा ने साबित कर दिया है कि सिर्फ ग्लैमर्स किरदार ही खास नहीं होते, फिलम् में उनका लहजा भी उनके किरदार को और खास बनाता है.

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