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बेटियां अक्खज होती हैं, उनको भी कोई शीशा-बक्से में भरती कराता है?

पुष्यमित्र pushyamitra@prabhatkhabar.in पटना : पिछले हफ्ते वैशाली के सदर अस्पताल स्थित स्पेशल न्यूबोर्न केयर यूनिट में जब यह संवाददाता पहुंचा, तो वहां उसे नौ बच्चे भरती मिले. इनमें से लड़की एक ही थी. यूनिट की इंचार्ज नर्स सुनीता कुमारी ने बताया कि यह हमेशा की कहानी है. यहां लड़कियां कम ही आती हैं. 12 सीटों […]

पुष्यमित्र
pushyamitra@prabhatkhabar.in
पटना : पिछले हफ्ते वैशाली के सदर अस्पताल स्थित स्पेशल न्यूबोर्न केयर यूनिट में जब यह संवाददाता पहुंचा, तो वहां उसे नौ बच्चे भरती मिले. इनमें से लड़की एक ही थी. यूनिट की इंचार्ज नर्स सुनीता कुमारी ने बताया कि यह हमेशा की कहानी है. यहां लड़कियां कम ही आती हैं. 12 सीटों वाले इस अत्याधुनिक स्पेशल न्यूबोर्न केयरयूनिट (एसएनसीयू) में कई दफा 20-22 बच्चे तक एडमिट रहते हैं.
ऐसे में एक बेड पर दो बच्चों को साथ रखना पड़ता है. मगर तब भी लड़कियों की संख्या पांच-छह से अधिक नहीं होती. उनकी सीट के आगे चार्ट बना कर आंकड़े प्रस्तुत किये गये हैं. उन आंकड़ों के मुताबिक एक अक्तूबर, 2015 से लेकर 15 जनवरी, 2016 के बीच इस यूनिट में कुल 367 बच्चे एडमिट हुए, जिनमें 235 लड़के थे और लड़कियां महज 132.
आखिर ऐसा क्यों है? क्या नवजात (जन्म से 28 दिन तक की उम्र) लड़कियां अधिक स्वस्थ होती हैं?
एसएनसीयू के बिल्कुल पड़ोस में स्थित मेटरनिटी वार्ड की ऑन ड्यूटी महिला चिकित्सक ने बताया कि ऐसी कोई बात नहीं है. अक्सर हमलोग ही जन्म के बाद बच्चों को एसएनसीयू के लिए रेफर करते हैं. खास तौर पर जो बच्चे जन्म के बाद तत्काल रोते नहीं हैं या जिन्हें सांस लेने में परेशानी होती है या वजन कम होता है, उन्हें हम हर हाल में वहां भेज देते हैं और इनमें लड़के भी होते हैं और लड़कियां भी. अमूमन दोनों में एक जैसी परेशानी होती है.
तो क्या, सदर अस्पताल, वैशाली के मेटरनिटी वार्ड से रेफर होनेवाले लड़के तो एसएनसीयू पहुंच जाते हैं और लड़कियां बिल्कुल पड़ोस में स्थित एसएनसीयू तक पहुंच नहीं पातीं? मां-बाप भगवान पर भरोसा करते हुए उन्हें लेकर घर चले जाते हैं. एसएनसीयू, वैशाली के ज्यादातर स्टाफ यही मानते हैं. वे कहते हैं, हालांकि यहां इलाज कराने में उनका एक भी पैसा खर्च नहीं होता, मगर एक हफ्ते से लेकर 15 दिन तक उन्हें ठहरना पड़ता है. इसमें परेशानी भी है और पैसे भी खर्च होते हैं. ऐसे में बेटों के लिए तो परिजन यह परेशानी उठाने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन बेटियों के मामले में ढिलाई बरतने लगते हैं.
यह बात वैशाली के एसएनसीयू कैंपस में नजर दौड़ाने पर भी समझ में आती है. वहां सामने बने शेड में कई परिजन जमीन पर लेटे रहते हैं. कई बेंचों पर ऊंघते मिलते हैं. इस हालत में 15 दिनों का वक्त काटना तकलीफदेह तो होता ही होगा, मगर बच्चों के प्रति प्रेम ही उन्हें यह सब करने के लिए प्रेरित करता है. एक ऐसे ही पिता कहते हैं, बच्चा भरती है, तो परेशानी झेलनी ही पड़ती है.
उनसे यह पूछने पर कि क्या अगर बेटी होती, तो भी वे इतनी परेशानी झेलने को तैयार हो जाते? वे हां तो कहते हैं, मगर उनकी बातों में उत्साह नजर नहीं आता. पड़ोस में बैठी एक बूढ़ी कह बैठती हैं, बेटी सब त अक्खज होइ छै… यानी बेटियां तो अक्षय होती हैं, इतनी आसानी से थोड़े मरती हैं… और उनकी एक लाइन नवजात बच्चियों के प्रति समाज के सोच को उजागर कर देती है.
हालांकि, वहां एक ऐसी माता भी मिलती हैं, सोनपुर की गुड़िया देवी. उनकी बिटिया यहां भरती है. वह कहती हैं, तीन बेटों पर बेटी हुई है. मान-मनौव्वल वाली है. घर में सब बेटी-बेटी करते थे, अब जाकर हुई है. इसको तो बचाना ही पड़ेगा. मगर यह आम सोच नहीं है. तभी यहां लड़कियां इतनी कम पहुंचती हैं.
क्या है न्यूबोर्न केयर यूनिट
हमलोग आम बोलचाल की भाषा में कहते हैं कि जन्म के बाद बच्चे को परेशानी थी, इसलिए डॉक्टर ने उसे बक्से में रखवा दिया है. तो वही बक्सावाला सेंटर ही दरअसल न्यूबोर्न केयर यूनिट है. एसएनसीयू जैसे अत्याधुनिक इकाई की शुरुआत के बारे में डॉ हुबे अली ने बताया कि बिहार में आज भी एक हजार नवजात शिशुओं में से 28 जन्म लेने के महज 28 दिनों के अंदर मर जाते हैं.
उसकी कई वजहें होती हैं, जैसे सांस लेने में परेशानी या जन्म के तत्काल बाद नहीं रोना आदि. इन्हीं बच्चों का जीवन सुरक्षित करने के लिए सदर अस्पतालों में एसएनसीयू की स्थापना की गयी है. साथ ही साथ रेफरल अस्पतालों में एनबीएसयू (न्यूबोर्न स्पेशल यूनिट) और हर डिलीवरी प्लाइंट पर न्यूबोर्न केयर सेंटर की स्थापना हुई है. डॉक्टर भी थोड़ी-सी परेशानी रहने पर भी बच्चों के इन यूनिट में भेज देते हैं. यहां जन्म से 28 दिन तक के बच्चों का मुफ्त में इलाज होता है. गांव की आशा द्वारा भी यहां बच्चों को भरती कराया जा सकता है.
महज 36% लड़कियां होती हैं भरती
यूनिसेफ की एक स्टडी बताती है कि पूरे राज्य में एसएनसीयू की यही हालत है. उनके आंकड़ों के मुताबिक पिछले छह माह के दौरान राज्य भर के एसएनसीयू में भरती बच्चों में 64 फीसदी लड़के थे और लड़कियां महज 36 फीसदी. यानी लड़कों से करीब आधी. यूनिसेफ, पटना के हेल्थ ऑफिसर डॉ सैदय हुबे अली, जिनकी देख-रेख में यह स्टडी हुई है, कहते हैं, ये आंकड़े बताते हैं कि समाज में अब भी बेटे और बेटियों को लेकर भेदभाव किया जा रहा है.
लोग जरा-सी परेशानी से बचने के लिए अपनी बेटियों का जीवन खतरे में डाल देते हैं. वे कहते हैं, कई जिलों के एसएनसीयू की स्थिति काफी बेहतर है, इसलिए वहां प्राइवेट अस्पतालों के बच्चे भी एडमिट होते हैं. वैशाली में पिछले आठ सालों में, जब से यह यूनिट स्थापित हुआ है, सदर अस्पताल से रेफर 4023 बच्चे एडमिट हुए हैं, जबकि बाहर से आनेवाले बच्चों की संख्या 4370 है. ऐसा दूसरे अस्पतालों के मामले में भी है. मगर अफसोस यह है कि इनमें लड़कियों की संख्या काफी कम है. सिर्फ 32 फीसदी. ऐसे में हमारा यह मिशन अधूरा है.
डॉ अली बताते हैं, यह सोचना भी गलत है कि लड़कियां ज्यादा स्वस्थ होती हैं. उन्हें न्यूबोर्न केयर की जरूरत नहीं पड़ती है. क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि बिहार में एक साल के अंदर प्रति एक हजार शिशुओं में से 40 की मौत हो जाती है और इनमें लड़कियों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है, प्रति एक हजार में 43. इसलिए संकटग्रस्त लड़कियों को न्यूबोर्न केयर यूनिट तक लाये बिना यह मिशन पूरा नहीं हो सकता है.
इंसेंटिव देने पर भी हो रहा विचार
ये आंकड़े हमारे लिए सुखद नहीं हैं. हम कोशिश कर रहे हैं कि लोगों में जागरूकता लायी जाये, ताकि वे बेटों के साथ-साथ नवजात बेटियों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हों और आवश्यक होने पर या डॉक्टर द्वारा सलाह दिये जाने पर उन्हें एसएनसीयू में अवश्य भरती कराएं. फिलहाल पूर्णिया और गया जिलों में यूनिसेफ के सहयोग से हम एक योजना शुरू कर रहे हैं. इसके तहत नवजात बालिका को आवश्यक होने पर एसएनसीयू में भरती कराने पर दो सौ रुपये का इंसेंटिव दिया जायेगा. आगे कुछ और योजनाएं लागू की जा सकती हैं.
डॉ सुरेंद्र चौधरी, राज्य कार्यक्रम पदाधिकारी, शिशु स्वास्थ्य, स्टेट हेल्थ सोसाइटी, बिहार

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