बंदे के परम मित्र ‘गुरु’ उस दिन गहरे अवसाद में मिले. हम बोझ हैं इस दुनिया पर. दफ्तर में सुपरसीड हो गया. जूनियर कप्तान हो गये. वह मंत्री जी का साला जो ठहरा. काश हमारी भी पत्नी भी पहलवान की बेटी न होकर किसी मंत्री-संतरी की बेटी होती! हमेशा पड़ोसी की तारीफ करती फिरती है. कितने अच्छे हैं हमारे पड़ोसी? रोज शाम को देर से आते हैं, मगर झोला भर के सब्जी-भाजी के साथ आते हैं और वह भी बहुत सस्ती.
अब यह बात कैसे समझायें पत्नी को कि वह कमीना पड़ोसी रोजाना ऑफिस से बहुत जल्दी निकलता है. बाजार में इधर-उधर आंखें सेंकता फिरता है. कई बार पिट भी चुका है. सब्जी तो वह अपनी बीवी को खुश करने के लिए लाता है. आधे दाम बता कर मोहल्ले भर के पतियों के भाव खराब करता है. गुरु इस बीच तीन प्याली चाय सुड़क चुके हैं. प्लेट भर पकौड़ी भी उड़ा चुके हैं. गुरु की इच्छा ‘मोर’ की है. मगर बंदे की मेमसाब गुरु को रागिया समझती हैं. बेझिझक एलान कर देती हैं. बेसन खत्म हो चुका है और गैस भी बस खत्म जानिए.
लेकिन, गुरु परेशान नहीं होते. हमने कहा था न. अब तो पड़ोसी भी धिक्कारने लगे. फिर वह एलान करते हैं कि कल सवेरे वाली गाड़ी समक्ष कूद कर परलोक वास्ते ‘इंस्टेंट’ कूच करेंगे. दर्जन भर मित्रों की फर्जी सूची बनायी कि इनसे उधारी वसूलनी है. किसी से दस हजार और किसी से एक लाख. जब तक बीवी को मृतक आश्रित कोटे से नौकरी न मिले, तब तक खाने-पीने का कुछ इंतजाम तो होना ही चाहिए. साइकिल, लैपटॉप, कार सब बेचना है. किताबें भी चालीस परसेंट डिस्काउंट पर उस पढ़ाकू चतुर्वेदी को दे देना है. किसी को भी फ्री नहीं देना है. तीन हजार का सड़ा स्कूटर दस हजार में बंदे के नाम कर दिया. बंदे ने ऐतराज किया, तो गुरु बोले- मेरे पीछे तू ही तो मुख्य सहारा बनेगा. हमारी पत्नी तेरी भाभी है पगले.
बंदा समझ गया गुरु बहुत गहरे डिप्रेशन में चला गया है. कहीं पागल हो गया, तो सचमुच कइयों को जीते जी मरवा डालेगा. किसी तरह समझाया-बुझाया और उनकी पत्नी के हवाले किया. और ताकीद कर दी कि मजबूत ताले-चाबी में रखें.
गुरु की पत्नी साक्षात चंडी माता हैं. लेकिन, बंदे की बहुत इज्जत करती हैं. आप ही एक पढ़े-लिखे और समझदार हैं. इनके बाकी सारे दोस्त तो निक्कमे हैं. फिर उन्होंने इसरार किया. नाश्ता तैयार है. आप भी कर लें. गरमा-गर्म गोभी के मक्खन से चुपड़े पराठे. झक सफेद दही के साथ.
बंदे का मन ललचा गया. गुरु के साथ बैठ गया. बंदे ने गुरु को ललकारा. आखिरी बार पराठे घसीट ले बेटा. क्योंकि, वहां नरक में तो तुझे ऐसे पराठे मिलेंगे नहीं. गुरु के सर से डिप्रेशन का भूत उतरना शुरू हो गया. सच यार, पत्नी खाना बहुत ही अच्छा बनाती है. हम दोनों में कितना भी मनमुटाव क्यों न हो, लेकिन अन्न का अपमान नहीं. इस खानदानी परंपरा का निर्वाह हम दोनों बड़ी तबीयत से करते हैं.
कुछ दिन बाद गुरु बहुत मस्त मिले. दिल की बात उगल दी. यह डिप्रेशन तो एक नौटंकी है. इसी बहाने बीवी के हाथ के बने मक्खन से चुपड़े गोभी के पराठे मिल जाते हैं, झक सफेद दही के साथ. यार, परिवार और दुनियावी मोह-माया में हम इतना डूबे हुए हैं कि मरने की फुरसत ही किसे है!
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
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