समाजवाद और वंचितों की राजनीति का दावा करनेवाले मुलायम सिंह यादव ने अपने परिवार के 21वें सदस्य की राजनीति में इंट्री करा दी है. अपनी छोटी बहू को प्रत्याशी बना कर उन्होंने साबित किया है कि पार्टी टिकट और पदों पर उनके परिवार का ही पहला हक है.
हालांकि यह बीमारी अब किसी एक दल या प्रदेश तक सीमित नहीं है. संसद से लेकर पंचायतों तक में राजनीतिक परिवारों के बढ़ते वर्चस्व के चलते जहां लोकतंत्र में समान अवसर की अवधारणा को आघात पहुंच रहा है, वहीं समर्पित कार्यकर्ताओं के आगे बढ़ने की राह सीमित हो रही है. राजनीति पर हावी होते परिवारवाद के खतरों पर एक नजर आज के ‘इन डेप्थ’ में.
प्रकाश कुमार रे
लो कतांत्रिक राजनीति सिद्धांततः अवसरों की समानता और योग्यता के प्रोत्साहन पर टिकी होती है. जिन शासन-व्यवस्थाओं में इन तत्वों को व्यवहार में लाया गया है, वे अन्यों की तुलना में बेहतर हैं.
उदाहरण के लिए दक्षिण एशिया और यूरोप की राजनीति में भेद को देखा जा सकता है. वर्ष 2011 में अपनी चर्चित पुस्तक ‘इंडिया : ए पोर्ट्रेट’ में राजनीतिशास्त्री पैट्रिक फ्रेंच ने पिछली लोकसभा के बारे में बताया था कि उसके 28.6 फीसदी सदस्य वंशानुगत थे और 16 फीसदी व्यावसायिक या अन्य जुड़ावों के जरिये सांसद बने थे.
तीस वर्ष से कम उम्र के सभी और 40 वर्ष उम्र तक के 65 फीसदी सांसद पारिवारिक प्रतिनिधि थे. महिला सदस्यों में लगभग 70 फीसदी राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से थीं. मौजूदा लोकसभा में स्थिति में बदलाव नहीं आया है. ‘द हिंदू’ के एक विश्लेषण के अनुसार वर्तमान 545 निर्वाचित लोकसभा सदस्यों में कम-से-कम 130 राजनीतिक परिवारों से हैं. न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्री कंचन चंद्रा के अध्ययन के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिपरिषद में 26 फीसदी मंत्री वंशानुगत हैं.
भारतीय राजनीति में परिवारवाद की चर्चा होती है, तो आम तौर पर गांधी परिवार का नाम लिया जाता है.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव के परिवार से एक और सदस्य के राजनीति में आने से एक बार फिर यह बहस गर्म है. परंतु सच्चाई यही है कि लोकतंत्र के निचले स्तर यानी पंचायत और नगरपालिकाओं से लेकर संसद तक देश का कोई ऐसा हिस्सा नहीं है जहां परिवारों का वर्चस्व राजनीति में नहीं हैं. कश्मीर से कन्याकुमारी तक अगर भारत किसी मामले में एकताबद्ध है, तो शायद ऐसा सिर्फ इसी संदर्भ में है. वाम दलों और बसपा को अलग रख दें, तो इससे कोई राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल अछूता नहीं है.
परिवारवाद की आलोचना के विरुद्ध यह तर्क दिया जाता है कि राजनीतिक परिवारों के लोग सक्रिय राजनीति में हैं और उन्हें जनता द्वारा ही निर्वाचित किया जाता है. लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि इससे हमारा लोकतंत्र न सिर्फ कमजोर होता है, बल्कि भ्रष्टाचार और शासकीय लापरवाही जैसी समस्याएं भी अपनी जड़े जमाती हैं.
परिवारों के वर्चस्व से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन होता है, क्योंकि सक्रियता और योग्यता के आधार पर चुनाव लड़ने या राजनीति करनेवाले लोग परिवारों की संगठित क्षमता, धनबल, जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों जैसे तत्वों का मुकाबला नहीं कर पाते. इस लिहाज से यह समस्या लोकतांत्रिक आदर्शों और मूल्यों के लिए भी घातक है. हमारे संविधान के द्वारा एक ही समानता प्रदत्त की गयी है और वह है राजनीतिक समानता. आर्थिक और सामाजिक समानता वे लक्ष्य हैं जिन्हें हमें लोकतांत्रिक संस्थाओं के द्वारा हासिल करना है. लेकिन परिवारवाद जैसी बाधाएं राजनीतिक समानता के अधिकार को भी सीमित करती हैं.
स्वतंत्रता के करीब सात दशकों के बाद भी देश गरीबी, पिछड़ेपन, अशिक्षा, महामारियों जैसी मुश्किलों से ग्रस्त है.
निश्चित रूप से यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व की भयावह असफलता है. राजनीतिक दल एक-दूसरे के माथे पर आरोपों का ठीकरा फोड़ कर अपनी जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकते हैं. लोकतंत्र में जनता का फैसला सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, पर उसे अक्सर फैसला ले पाने का समुचित अवसर भी नहीं मिल पाता है. ऐसे में परिवारवाद जैसी समस्या का समाधान दीर्घकालिक प्रयासों के द्वारा ही किया जा सकता है, और इसके लिए सबसे जरूरी है कि इसे एक गंभीर समस्या के रूप में चिह्नित किया जाये.
स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू (पूर्व प्रधानमंत्री)
– स्वर्गीय विजय लक्ष्मी पंडित (बहन, पूर्व सांसद एवं पूर्व राज्यपाल) – स्वर्गीय इंदिरा गांधी (पुत्री, पूर्व प्रधानमंत्री)
– स्वर्गीय फिरोज गांधी (दामाद, पूर्व सांसद)
– स्वर्गीय राजीव गांधी (नाती, पूर्व प्रधानमंत्री)
– स्वर्गीय संजय गांधी (नाती, पूर्व सांसद)
– सोनिया गांधी (स्वर्गीय राजीव गांधी की पत्नी, सांसद, कांग्रेस अध्यक्ष)
– राहुल गांधी (स्वर्गीय राजीव गांधी के पुत्र, सांसद)
– मेनका गांधी (स्वर्गीय संजय गांधी की पत्नी, केंद्रीय मंत्री)
– वरुण गांधी (स्वर्गीय संजय गांधी के पुत्र, सांसद)
– अन्य पारिवारिक सदस्य- स्वर्गीय ब्रज कुमार नेहरू (पूर्व राज्यपाल), स्वर्गीय अरुण नेहरू (पूर्व केंद्रीय मंत्री), स्वर्गीय उमा नेहरू (पूर्व सांसद)
राजनीति की गली-गली में बाप-बेटों की जोड़ी!
शंभूनाथ शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार
अपने छोटे बेटे की पत्नी अपर्णा बिष्ट यादव को लखनऊ कैंट विधानसभा क्षेत्र से टिकट देकर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने साबित किया है कि उनके लिए परिवार ही समाज है. यह पहली बार हुआ है, जब किसी राजनेता का पूरा परिवार कथित समाजवादी राजनीति में है. सिर्फ राजनीति में ही नहीं, बल्कि लाभ के पद पर भी. 29 पदों पर मुलायम वंशज काबिज हैं और सब-के-सब समाजवादी पार्टी के टिकट पर. इटावा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, बदायूं आदि में सिवाय मुलायम परिवार के और कोई भी राजनेता किसी भी पद पर चुनाव जीतना तो दूर, चुनाव लड़ने की भी नहीं सोच सकता.
ये वही मुलायम सिंह हैं, जो समाजवादी पार्टी के जनक हैं और स्वयं को डॉक्टर राम मनोहर लोहिया का अनुयायी बताते नहीं थकते. लेकिन आज उनके लिए समाज और समाजवाद का अर्थ परिवार तथा परिवारवाद का पोषण है.
मुलायम सिंह के परिवार प्रेम का ही नतीजा है कि उत्तर प्रदेश की सपा की सरकार कुछ करना भी चाहे, तो वह परिवार की भेंट चढ़ जाता है. परिवार चाहे जितना कहने को अपना हो, मगर हर-एक के अपने-अपने अहम् होते हैं और अपने-अपने स्वार्थ, जिसे भुगतना पड़ता है मुलायम सिंह के बेटे और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को.
हालांकि, परिवार के प्रति यह मोह सिर्फ सपा तक सीमित नहीं है. कांग्रेस और भाजपा भी इससे अछूती नहीं रही हैं. कांग्रेस पर तो खैर पांच दशक पहले से यह आरोप लगता रहा है, पर भाजपा को एक सिद्धांतवादी और संगठन के प्रति दृढ़ आस्था रखनेवाली पार्टी समझा जाता था, लेकिन वहां भी अब नेता के बाद नेतापुत्र गद्दीनशीन होने लगे हैं. पार्टी के कई नेता पुत्र इस वक्त लोकसभा में हैं.
इस मामले में कुछ क्षेत्रीय दलों का हाल तो और बुरा है. राजद सुप्रीमो लालू यादव ने तो ऐसी वंश परंपरा शुरू की थी कि अपने बाद उन्होंने पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया था और वह भी तब, जबकि राबड़ी देवी राजनीति का क ख ग तक नहीं जानती थीं. अब उनका एक बेटा बिहार का डिप्टी सीएम है, तो दूसरा भी सूबे में मंत्री है.
लालू प्रसाद ने खुलेआम कहा था कि अपनी विरासत तो अपने बेटी-बेटे को ही दी जाती है, गैरों को नहीं. उधर, महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के बाद उनके बेटे और भतीजे में किस कदर घमासान मचा, यह किसी से छिपा नहीं है. तमिलनाडु में करुणानिधि के बेटे एक-दूसरे को देखना तक नहीं चाहते और वह भी एक ही पार्टी द्रमुक में रहते हुए. हरियाणा में देवीलाल की चौथी पीढ़ी राजनीति में है. लोकसभा सदस्य दुष्यंत चौटाला देवीलाल के पड़पोते हैं. पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का भी यही हाल है, बेटा-बेटी-बहू सब राजनीति में हैं. यहां तक कि बेटे का साला भी.
कुल मिलाकर भारतीय राजनीति में परिवारवाद ऐसा हावी हो चुका है कि जिस किसी गली में जायें, बाप-बेटों की जोड़ी प्रमुख पदों पर काबिज मिल जायेगी. ऐसा लगता है कि स्वच्छ और निस्पृह राजनीति के दिन अब हवा हुए और लोकतंत्र का मतलब परिवार तंत्र बन गया है.
राजनीतिक घराने
मुलायम सिंह यादव (उत्तर प्रदेश, पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व कैबिनेट मंत्री)
– अखिलेश यादव (पुत्र, मुख्यमंत्री)
– डिंपल यादव (बहू, सांसद)
– प्रेमलता यादव (भाभी, पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष)
– अंशुल यादव (भतीजा, जिला पंचायत अध्यक्ष)
– शिवपाल सिंह यादव (भाई, मंत्री, उत्तर प्रदेश)
– सरला यादव (भाभी, जिला सहकारी बैंक प्रतिनिधि)
– आदित्य यादव (भतीजा, अध्यक्ष- प्रादेशिक को-ऑपरेटिव फेडरेशन)
– अपर्णा यादव (बहू, प्रत्याशी)
– तेज प्रताप यादव (पोता, सांसद)
– धर्मेंद्र यादव (भतीजा,सांसद)
– अक्षय यादव (भतीजा, सांसद)
– अंकुर यादव (भतीजा, पूर्व अध्यक्ष, राज्य को-ऑपरेटिव फेडरेशन)
– अरविंद यादव (भतीजा, ब्लॉक प्रमुख)
एम करुणानिधि
(तमिलनाडु, पूर्व मुख्यमंत्री)
– एम के मुत्थु (पुत्र, राजनेता)
– एम के अलागिरी (पुत्र, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
– एम के स्टालिन (पुत्र, द्रमुक के कार्यवाहक प्रमुख)
– कनिमोझी (पुत्री, सांसद)
– स्वर्गीय मुरासोली मारन (भतीजा, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
– दयानिधि मारन (पौत्र, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
स्वर्गीय शेख अब्दुल्ला (जम्मू-कश्मीर, पूर्व मुख्यमंत्री)
– स्वर्गीय बेगम अकबर जहां अब्दुला (पत्नी, पूर्व सांसद)
– फारूख अब्दुल्ला (पुत्र, पूर्व मुख्यमंत्री)
– उमर अब्दुल्ला (पुत्र, पूर्व मुख्यमंत्री)
लालू प्रसाद यादव (बिहार, पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
– राबड़ी देवी (पत्नी, पूर्व मुख्यमंत्री)
– तेजस्वी यादव (पुत्र, उप मुख्यमंत्री)
– तेज प्रताप यादव (पुत्र, कैिबनेट मंत्री)
– मीसा भारती (पुत्री, सक्रिय राजनीति)
अन्य रिश्तेदार- राबड़ी देवी के भाई- साधु यादव (पूर्व सांसद) एवं सुभाष यादव (पूर्व सांसद)
प्रकाश सिंह बादल (पंजाब, मुख्यमंत्री)
– सुखबीर सिंह बादल (पुत्र, उप मुख्यमंत्री)
– हरसिमरत कौर (बहू, केंद्रीय मंत्री)
अन्य संबंधी- गुरदास सिंह बादल (पूर्व सांसद) एवं मनप्रीत सिंह बादल (पूर्व कैिबनेट मंत्री)
सिंधिया परिवार
– स्वर्गीय विजया राजे सिंधिया (पूर्व सांसद)
– स्वर्गीय माधवराव सिंधिया (पुत्र, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
– वसुंधराराजे सिंधिया (पुत्री, मुख्यमंत्री, राजस्थान)
– यशोधराराजे सिंधिया (पुत्री, काबीना मंत्री, मध्य प्रदेश)
– ज्योतिरादित्य सिंधिया (पौत्र, सांसद, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
– दुष्यंत सिंह (नाती, सांसद)
स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद (जम्मू-कश्मीर, पूर्व मुख्यमंत्री)
– महबूबा मुफ्ती (पुत्री, पूर्व सांसद एवं भावी मुख्यमंत्री)
– तसद्दुक हुसैन (पुत्र, सक्रिय राजनीति)
पटियाला परिवार (पंजाब)
– महारानी महताब कौर (पूर्व सांसद)
– कैप्टन अमरिंदर सिंह (पुत्र, पूर्व मुख्यमंत्री, सांसद)
– परनीत कौर (बहू, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
– रणिंदर सिंह (पौत्र, सक्रिय राजनीति में)
रमन सिंह (छत्तीसगढ़, मुख्यमंत्री)
– अभिषेक सिंह (पुत्र, सांसद)
के चंद्रशेखर राव
(तेलंगाना, मुख्यमंत्री)
– केटी रामाराव (पुत्र, राज्य में कैिबनेट मंत्री)
– के कविता (पुत्री, सांसद)
– टी हरीश राव (भतीजा, राज्य में कैिबनेट मंत्री)
शिबू सोरेन (झारखंड)
पूर्व मुख्यमंत्री, सांसद
– हेमंत सोरेन (पुत्र, पूर्व मुख्यमंत्री)
– स्वर्गीय दुर्गा सोरेन (पुत्र)
– सीता सोरेन (बहू, विधायक)
स्वर्गीय एनटी रामाराव
(आंध्र प्रदेश, पूर्व मुख्यमंत्री)
– लक्ष्मी पार्वती (पत्नी, पूर्व पार्टी प्रमुख)
– एन चंद्रबाबू नायडू (दामाद, मुख्यमंत्री)
– एन हरिकृष्णा (पुत्र, पूर्व सांसद)
– एन बालाकृष्णा (पुत्र, विधायक)
– दग्गुबती पुरंदेश्वरी (पुत्री, पूर्व केंद्रीय मंत्री)
– डी वेंकटेश्वरा राव (दामाद, पूर्व सांसद एवं मंत्री)
स्वर्गीय वाइएस राजशेखर रेड्डी (आंध्र प्रदेश, पूर्व मुख्यमंत्री)
– वाइएस विजयम्मा (पत्नी, पूर्व विधायक) – वाइएस जगनमोहन रेड्डी (पुत्र, पूर्व सांसद) – वाइएस विवेकानंद रेड्डी (भाई, पूर्व मंत्री)
– वाइएस शर्मिला (पुत्री, सक्रिय राजनीति)
स्व पंडित रविशंकर शुक्ला (मध्यप्रदेश, पूर्व मुख्यमंत्री)
– स्वर्गीय श्यामाचरण शुक्ल (पुत्र, पूर्व मुख्यमंत्री)
– स्वर्गीय विद्याचरण शुक्ल (पुत्र, केंद्रीय मंत्री) – अमितेश शुक्ला (पौत्र, पूर्व मंत्री, छत्तीसगढ़)