चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
‘हमारी आजादी का अर्थ केवल अंगरेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है, जब लोग परस्पर घुल-मिल कर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जायेंगे.’ यह वाक्य भगत सिंह के एक लेख के सबसे आखिर यानी निष्कर्ष रूप में आता है.
राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार और छह माह के लिए जमानत पर रिहा जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने इंडिया टुडे काॅन्क्लेव में जब कहा कि ‘यदि सरकार अंगरेज बनना चाहती है, तो हम भगत सिंह, भगत सिंह के सिपाही बनने को तैयार हैं’, तो अमर शहीद भगत सिंह का ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ और ‘दिमागी गुलामी से आजादी’ की अपेक्षा से भरा यह वाक्य बेसाख्ता याद आया.
यह तो स्पष्ट है कि हम 21वीं सदी के राजनीतिक रूप से संप्रभु, सामाजिक रूप से राष्ट्रीय इतिहास के किसी भी कालखंड से ज्यादा उदार और आर्थिक रूप से ज्यादा ताकतवर मुल्क के वासी हैं. अंगरेजों के अत्याचार की आज कहानियां भर शेष हैं, तो फिर पीएचडी छात्र यानी एक खूब पढ़े-लिखे युवक कन्हैया को एकबारगी आज की सरकार के भीतर अंगरेजी सरकार और अपने भीतर भगत सिंह के अक्स देखने की नौबत क्योंकर आन पहुंची? प्रेमचंद के शब्दों में कहें, तो क्या कन्हैया परखना चाहता है कि गद्दी पर ‘गोविंद’ के भेष में कोई ‘जॉन’ ही तो नहीं बैठा?
एक तात्कालिक संदर्भ तो स्वयं कन्हैया के साथ हुई घटना का हो सकता है.
आखिर, कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी राजद्रोह के कानून के मुताबिक हुई और यह कानून अंगरेजी जमाने का है, लेकिन कन्हैया के सोच का एक गहरा संदर्भ भी है. कन्हैया कोई निराली बात नहीं कह रहे हैं. वे वही कह रहे हैं, जो स्वाधीनता-संग्राम की चिंतन-धारा ने भावी भारत की धारणा गढ़ते हुए सोचा और स्वतंत्र भारत की परीक्षा के लिए कसौटी के तौर पर स्थिर किया था.
यह कसौटी थी ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ और ‘दिमागी गुलामी से आजादी’ की. और, स्वाधीनता संग्राम ने समझ के लिहाज से भारी-भरकम जान पड़ते इन दोनों अवधारणाओं को जुमलेबाजी के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया था, बल्कि इनकी परिभाषा करने की कोशिश की थी. याद करें सुभाषचंद्र बोस का 1929 का लाहौर में दिया गया भाषण. लाहौर स्टूडेंट्स काॅन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘यदि हमें विचारों के जगत में क्रांति लानी है, तो हमें सबसे पहले एक आदर्श की धारणा बनानी होगी, जो हमें पूरे जीवन प्रेरित करे. यह आदर्श स्वतंत्रता का है.
लेकिन स्वतंत्रता शब्द के बहुत से आशय हैं और हमारे देश में भी स्वतंत्रता की अवधारणा विकास की प्रक्रिया से गुजरी है. स्वतंत्रता से मेरा आशय है चहुंमुखी स्वतंत्रता यानी व्यक्ति के लिए आजादी तो समाज के लिए भी, पुरुष के लिए आजादी तो महिलाओं के लिए भी, धनिकों के लिए आजादी तो गरीबों के लिए भी, सभी लोगों और सभी वर्गों की आजादी. इस आजादी का मतलब राजनीतिक बंधन से मुक्त होना भर नहीं, बल्कि इसका आशय है धन-संपत्ति का समान वितरण, जातिप्रथा की बाधाओं, सांप्रदायिक व धार्मिक असहिष्णुता का खात्मा. यह आदर्श व्यावहारिक समझ वाले स्त्री-पुरुषों को दिवास्वप्न भले जान पड़े, लेकिन सिर्फ यही आदर्श आत्मा की भूख मिटा सकता है.’
बोस ने ठीक याद दिलाया कि हमारे देश में भी ‘स्वतंत्रता की अवधारणा विकास की प्रक्रिया से गुजरी है.’ देश की आजादी की लड़ाई की एक चुनौती ‘स्वतंत्रता’ की संकल्पना भारतीय पदों में गढ़ने की थी. इस चुनौती का मुख्य प्रश्न था कि क्या भारत को उन्हीं अर्थों और आशयों में स्वतंत्र होना है, जो अर्थ-आशय इंडिपेंडेंस या लिबर्टी शब्द से ध्वनित होते हैं?
बोस के लाहौर वाले भाषण से बहुत पहले यूरोपीय अवधारणाओं की दिमागी गुलामी से आजादी की राह टोहते हुए स्वतंत्रता की भारतीय और यूरोपीय धारणा में बिपिनचंद्र पाल ने फर्क किया. उन्होंने लिखा- ‘धर्म भारतीय उद्भावना का शब्द है, अधिकार यूरोपीय उद्भावना का और ये दो शब्द मेरे जानते भारत और यूरोप के बीच बुनियादी अंतर को स्पष्ट करते हैं. धर्म त्याग सिखाता है, अधिकार प्रतिकार जगाता है.
धर्म संश्लेषी है, अधिकार प्रतिवादी. धर्म व्यवस्थापन की आत्मा है, अधिकार क्रांति का जनक.’ बाद में 1930 के दशक में गांधी ने स्वराज शब्द की व्याख्या इसी लीक पर की.
कन्हैया जब कहते हैं कि ‘हमें भारत से नहीं भारत में आजादी चाहिए’, तो वे क्रांति की बात नहीं कर रहे होते, वे व्यवस्था (संविधान) के भीतर सबकी आजादी की सुरक्षा की बात कह रहे होते हैं. उनमें उसी भारतीयता का हुंकार है, जो बोस और पाल के स्वर में गूंजी थी.