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आसमान छूने की आशा

(महेंद्र सिंह धौनी के संदर्भ में) -हरिवंश- महेंद्र सिंह धौनी का चयन भारतीय क्रिकेट टीम में हो चुका था. पर स्टार क्रिकेटर के रूप में उनका उदय होना बाकी था. उन्हीं दिनों झारखंड से प्रकाशित अखबार ‘प्रभात खबर’ ने झारखंड राज्य के युवा खिलाड़ियों के सम्मान के लिए एक समारोह रखा था. अखबार द्वारा प्राय. […]

(महेंद्र सिंह धौनी के संदर्भ में)

-हरिवंश-

महेंद्र सिंह धौनी का चयन भारतीय क्रिकेट टीम में हो चुका था. पर स्टार क्रिकेटर के रूप में उनका उदय होना बाकी था. उन्हीं दिनों झारखंड से प्रकाशित अखबार ‘प्रभात खबर’ ने झारखंड राज्य के युवा खिलाड़ियों के सम्मान के लिए एक समारोह रखा था. अखबार द्वारा प्राय. ऐसे अवसर आयोजित किये जानेवाले समारोहों में से यह एक समारोह था.

हालांकि रांची, अंगरेजों के जमाने में बिहार का ‘समर कैपिटल’ (ग्रीष्मकालीन राजधानी) था, अब झारखंड राज्य की राजधानी है. पर यहां बढ़िया और बड़े सभा हाल या सभागार (आडिटोरियम) नहीं है. रांची के सबसे अच्छे और बड़े हॉल में यह सम्मान समारोह था. लगभग 600 से 700 के बीच लोग इस हाल में ‘एकोमोडेट’ हो सकते थे. पर बच्चों, युवक-युवतियों की इतनी भारी भीड़ उमड़ी कि समारोह का संचालन मुश्किल हो गया. किसी तरह महेंद्र सिंह धौनी हाल में घुस सके और पुलिस संरक्षण में उन्हें निकालना पड़ा. अब पाकिस्तान में धूम मचाने के बाद स्टार क्रिकेटर हो गये. महेंद्र सिंह धौनी खुद अपने शहर में आसानी से ‘मूव’ नहीं कर सकते. सिर्फ यह सुन कर कि धौनी फलां कार्यक्रम में आ सकते हैं, युवा भीड़ उमड़ जाती है. अब कई कार्यक्रमों में पूर्व घोषणा किये बिना धौनी आते हैं.

धौनी की सफलता ने ‘धौनी क्रेज’ का माहौल बना दिया है. सिर्फ रांची या जमशेदपुर ही नहीं, बल्कि झारखंड के सुदूर छोटे नगरों-कस्बों में भी. महानगरों की तरह यहां भी फैन पैदा हो गये हैं.

‘धौनी क्रेज’ एक ‘फिनामिना’ है. महज एक क्रिकेटर की सफलता के पीछे युवकों का यह उन्माद नहीं है. धौनी की सफलता में युवक-युवतियां कई प्रेरक प्रसंग पाते हैं. मामूली शहर का एक लड़का भी अपनी धुन और लगन से ‘स्टार’ बन सकता है. धौनी के मां-बाप अत्यंत सामान्य परिवार से आते हैं. उनके पिता ‘मेकन’ भारत सरकार के (पब्लिक अंडरटेकिंग है) में मामूली पद पर कार्यरत हैं.

धौनी की सफलता ने यह धारणा भी ध्वस्त किया है कि बड़े और विशिष्ट परिवारों, समृद्ध परिवारों, अमीर घरानों और अंगरेजी बोलनेवाले परिवारों के ही ‘सफलता’ पर एकाधिकार हैं. इसलिए जो युवा, धौनी के आगे-पीछे उमड़ते हैं, उसे नायकों की तरह पूजते हैं, वे कहीं-न-कहीं इस बदलती दुनिया में अपनी सफलता, ‘हम होंगे कामयाब’ की मन.स्थिति में होते हैं. उनमें नया आत्मविश्वास झलकता है कि छोटी जगह, मामूली पृष्ठभूमि, अंगरेजीपरस्त माहौल-परिवार से न आने, दूर-दूर तक किसी नाते-रिश्तेदार के प्रभावी न होने के बावजूद इस ग्लोबल दुनिया में कोई शिखर छू सकता है.

यह कुछ करने का आत्मविश्वास, सफल होने का मंसूबा, सपना पालने और साकार करने की युवा मन.स्थिति है, जो ‘धौनी’ की सफलता में अपना प्रतिबिंब देखती है और उसके स्वागत में उमड़ती है. यह प्रक्रिया तो रांची जैसे शहरों में दशकों पहले शुरू हो गयी थी, जब बच्चों पर क्रिकेट सीखने का धुन सवार हो गया था. शहरों-गांवों-कस्बों में बाकायदा क्रिकेट प्रशिक्षण के केंद्र खुल गये हैं. जहां अभिभावक अपने छोटे-छोटे बच्चों को नियमित भेजते-पहुंचाते हैं. धौनी भी रांची शहर की ऐसी युवा टीमों में खेलते-खेलते ही ‘हीरो’ बन गये. अब इसका असर यह पड़ा है कि महिलाएं ही अपने बच्चों को क्रिकेट सिखानेवाले केंद्रों पर पहुंचाती हैं. आज से सात-आठ साल पहले जिन दिनों धौनी खेल रहे थे और प्रशिक्षित हो रहे थे, उन्हीं दिनों रांची, जमशेदपुर, धनबाद वगैरह के युवा फिल्म, नाटक, टीवी, वगैरह नये-नये क्षेत्रों में भी जा रहे थे.

विश्व सुंदरी रही और अब फिल्म नायिका ‘प्रियंका चोपड़ा’ के जमशेदपुर से जुड़ाव रहने का भी जबरदस्त असर युवा मानस पर पड़ा है. अब फैशन, सौंदर्य प्रतियोगिताएं, माडलिंग वगैरह क्षेत्र, जो पहले अनुदार दृष्टि से देखे जाते थे, अब युवाओं के आकर्षण और कैरियर के केंद्र हैं. एयरहोस्टेस में रांची वगैरह से चयनित लड़कियों की सफलता और एयरहोस्टेस के लिए खुले प्रशिक्षण केंद्रों ने युवतियों को आसमान छूने की प्रेरणा दी है. जो छोटे शहर पहले विजन और माइंडसेट में फ्यूडल, अनुदार और आधुनिक नहीं माने जाते थे, उन शहरों पर जैसे आधुनिकता ने हमला कर दिया है. इसकी शुरुआत 1991 के बाद तेज हुई. रांची, जमशेदपुर और बोकारो के कई स्कूलों से भारी संख्या में विद्यार्थी आइआइटी, आइआइएम, इंजीनियरिग, वगैरह में चुने जाने लगे. एक-एक स्कूल से कई दर्जन विद्यार्थी देश के सेंटर ऑफ एक्सलेंस में पहुंचने लगे. इसी दौर में तब रांची में प्रकाशित ‘प्रभात खबर’ ने नया प्रयोग किया. खबरों का फोकस-केंद्र राजनेताओं-विशिष्टजनों से हटा कर युवक-युवतियों की सफलता पर फोकस किया. 1992-93 से सीबीएसइ/आइसीएससी/ आइआइटी/ इंजीनियरिंग/ मेडिकल वगैरह में सफल हुए या हिंदुस्तान स्तर पर प्रतिभा का सिक्का

जमाये सफल बच्चों को प्रमुख खबरों के रूप में छापना शुरू किया. उनकी तस्वीरों के साथ. उन्हीं दिनों बिहार में स्कूली व्यवस्था चौपट होने लगी थी. अपहरण की आहट मिलने लगी थी. उधर दक्षिण बिहार (तब झारखंड नहीं बना था) के खास तौर से रांची और बोकारो के कुछ स्कूल देश स्तर पर अपने विद्यार्थियों की सफलता के कारण पहचान बना चुके थे. उत्तर बिहार, बंगाल, छत्तीसगढ़ से आकर लड़के रांची/ बोकारो के स्कूलों में दाखिला लेते. किराये का घर ले कर आइआइटी, मेडिकल या अन्य क्षेत्रों में जाने की तैयारी में लगते. रांची और बोकारो ‘मिनी कोटा’ की तरह होते गये. उल्लेखनीय है कि आइआइटी की तैयारी करने के कारण कोटा चर्चित हआ है. बैड़े पैमाने पर अध्यापकों ने कोचिंग स्कूल खोले. रांची-बोकारो में छात्रों की इतनी भीड़ बढ़ी कि आइआइटी करने के इच्छुक छात्र कई जगह उन संस्थानों में प्रशिक्षण लेते, जहां अध्यापक माइक लगा कर कोचिंग करते थे. गया के एक मुसहर बस्ती से कई दर्जन बच्चों को आइआइटी भिजवाया, एक प्रतिबद्ध कोचिंग चलानेवालों के समूह ने. जो मुसहर बच्चे चूहा पकड़ते थे, उन समुदायों से आइआइटी में पढ़े-लिखे बच्चे लाखों की तनख्वाह के दायरे में पहंच गये. इन सबका असर युवक-युवतियों पर पड़ा.

हमारी पीढ़ी (1980-1990 के दशक) में कैरियर तय करने में परिवार, अध्यापक या गार्जियन की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी. उदारीकरण के बाद के दौर में अब बच्चे स्वयं कैरियर चयन करते हैं. आसमान छूने की तमन्ना इन युवा दिलों में हैं. और यह सब हो रहा है, सरकार के बगैर. खराब गवर्नेस के बावजूद. सरकारी शिक्षा संस्थानों के बेकार-अनुपयोगी हो जाने के बावजूद. खराब कानून-व्यवस्था रहते हए. नक्सली लोगों की सामानांतर व्यवस्था कायम रहने के बावजूद. घोर भ्रष्टाचार, राजनेताओं-अफसरों की निगेटिव भूमिका रहते हए. समाज में कोई ‘रोल माडल’ नहीं है, फिर भी युवा होटल प्रबंधन, इंजीनियरिंग से लेकर अनेक नये-नये क्षेत्रों में कदम रख रहे हैं. ‘धौनी’ एक विद्या (क्रिकेट) में एक सफलता का नाम है. अनेक क्षेत्रों में छोटे शहरों-कस्बों के बच्चे शिखर छू रहे हैं, उन जगहों पर दस्तक दे रहे हैं, जो पहले प्रिविलेज्ड वर्ग के पास थीं.

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