अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में जैसी गरमी देखने को मिल रही है, वह अभूतपूर्व है. आज से पहले भी उम्मीदवारों के बीच जोरदार बहसें होती रही हैं, पर डेमोक्रेटिक अौर रिपब्लिकन पार्टियों के प्रत्याशियों के चुनाववाले पहले चरण में ही घमसान दिख रहा है. ऐसा होने की सबसे बड़ी वजह खरबपति डोनाल्ड ट्रंप का मैदान में आकर गजब ढाना है. हालांकि, हिलेरी क्लिंटन का राजनीतिक जीवन भी कम चर्चित और विवादास्पद नहीं रहा है. इन दोनों के बीच निर्णायक लड़ाई तो होगी, पर आनेवाले महीनों में दुनिया भर में विश्लेषक इस उधेड़बुन में रहेंगे कि इनमें किसके ह्वाइट हाउस पहुंचने का हमारी जिंदगी पर क्या असर पड़ सकता है?
सबसे गंभीर आशंकाएं ट्रंप को लेकर हैं. जब ट्रंप ने अपनी उम्मीदवारी जाहिर की थी, तब रिपब्लिकन पार्टी के महारथी नेताअों को लगा था कि अपनी बेशुमार दौलत के मद में इतराते, मसखरेनुमा बड़बोले ट्रंप की हवा बहुत जल्दी सरक जायेगी. अपने अभियान का संचालन ट्रंप ने निराले तरीके से किया. अपने प्रतिद्वंद्वियों को खुलेआम अपमानित करना उनकी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा रहा है. चाहे अांतरिक राजनीति के मुद्दे हों या विदेश नीति तथा राजनय से जुड़े जटिल प्रश्न, ट्रंप का रवैया आक्रामक, उग्रपंथी रहा है. ट्रंप का मानना है कि अोबामा की बदलाव लानेवाली समावेशी नीतियों ने अमेरिका को कमजोर किया है. ट्रंप के आलोचकों का मानना है कि उन्हें मानसिक रूप से असंतुलित समझा जाना चाहिए, जिसे इस बात की जरा भी समझ नहीं कि अमेरिका आज 19वीं सदी में गृह युद्ध के पहलेवाला अमेरिका नहीं, वरन 21वीं सदी में रह रहा है. ट्रंप की ‘लोकप्रियता’ में लगातार बढ़त से स्पष्ट है कि अमेरिका में रिपब्लिकन मतदाता आबादी का बड़ा हिस्सा उनके इस तर्क को स्वीकार करता है कि अमेरिका को अोबामा अौर डेमोक्रेटों ने ही नहीं, नरम पड़ते जा रहे रिपब्लिकनों ने भी कमजोर किया है. अमेरिका को फिर से ताकतवर बनाने के लिए कुछ भी करने का जोखिम उठाने का वादा वह करते रहे हैं. आज सवाल यह नहीं कि क्या ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार बन सकते हैं. चिंता का विषय यह है कि अगर कहीं वह चुनाव जीत गये तब क्या होगा?
अमेरिकी चुनाव में मीडिया की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रहती है- खास कर टेलीविजन की. दबंग, बेहिचक नेता की छवि का फायदा ट्रंप को मिल रहा है. ओबामा के कार्यकाल में किसी को यह सोचने की फुरसत नहीं मिली है (सीरिया, इराक के संकट, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-कर प्रणाली में ‘सुधार’ के प्रस्ताव, हथियार रखने के बुनियादी अधिकार, समलैंगिक विवाह को लेकर उपजे विवाद या अश्वेतों के प्रति नस्लवादी अत्याचार की घटनाअों के कारण), वह सहमति नष्ट हो चुकी है, जिसके ज्वार ने अोबामा को जीत दिलायी थी. हकीकत यह है कि वह रफ्तार बहुत पहले धीमी हो चुकी थी, जिसे देख कर लगता था कि हां अमेरिका वास्तव में बदलने जा रहा है अौर अब नयी पीढ़ी के हाथ कमान है. ट्रंप का उदय प्रमाण है कि आज भी अमेरिका में दकियानूसी अौर अंधराष्ट्रभक्ति ताकतवर है. हालांकि, हाल में ट्रंप ने यह कोशिश की है कि अपने बयानों को ‘तर्कसंगत’ साबित करें और मतदाता को भरोसा दिलायें कि अतिशयोक्ति पर ना जायें, यह तो चुनावी जुमलेबाजी है, उनको लेकर समझदार मतदाता अब भी चिंतित हैं.
कुछ लोगों को लगता है कि ट्रंप अगर राष्ट्रपति न भी बने, तो उनकी उम्मीदवारी भर ही अमेरिकी राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन ला देगी. उनसे खिन्न रिपब्लिकन हिलेरी की जीत सुनिश्चित कर देंगे अौर इस बात की प्रबल संभावना है कि रिपब्लिकन पार्टी में फूट पड़ जायेगी. अगर ऐसा हुआ, तो निश्चय ही सदियों से चली आ रही द्विदलीय व्यवस्था का विकल्प अमेरिकी जनता को तलाशना पड़ सकता है. भले ही फिलहाल ट्रंप निर्दलीय नहीं हैं, लेकिन अपनी पार्टी के बड़े नेताअों तथा तंत्र को वह ठेंगा दिखाते रहे हैं!
यदि हिलेरी क्लिंटन राष्ट्रपति बनती हैं, तब भी हम निश्चिंत नहीं बैठ सकते. अपने पति के कार्यकाल से आज तक उनका सार्वजनिक जीवन विवादास्पद ही रहा है. भले ही उनकी प्रतिभा तथा योग्यता असंदिग्ध हो, लेकिन उनके नैतिक बल और ईमानदारी पर सवालिया निशान लगते रहे हैं. उनका महिला होना उनके लिए महिलाअों के मत जुटाने में कामयाब हो सकता है, पर अदम्य व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा अौर मौकापरस्ती की वजह से उनकी छवि भी अधिक आकर्षक नहीं लगती.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
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