क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
सवेरे हवा में हलकी ठंडक थी. लहराते और तरह-तरह के फूलों से लदे पेड़ जैसे हिल-डुल कर एक-दूसरे से प्रतियोगिता कर रहे थे कि देखें इस वसंत में किसने सबसे अधिक फूल खिलाये हैं. आम का पेड़ बौर यानी फूलों से भरा है. ज्यादा बौर यानी ज्यादा फल. तभी आम तौर पर कर्कश सुर में चिल्लानेवाले एक तोते की आवाज सुनायी पड़ी. वह आम की डाली पर बैठा गुनगुना रहा था. उसकी आवाज खुशी से भरी हुई थी. अच्छे दिन आनेवाले हैं,
इस बात का पता उसे भी चल गया है. काश कि वह भी किसी जिंगल की तरह गा सकता-अच्छे दिन आनेवाले हैं, आम फिर लगनेवाले हैं. ज्यादा फल यानी तोते को अधिक खाने और फलों को कुतर कर नीचे गिराने का मौका. और आनंद, वह भी अपने कुनबे के साथ. तोते कुनबों में रहते हैं और अकसर कुनबे ही पेड़ों पर धावा बोल देते हैं. क्या पता उन्हें ऐसा करते देख फलों से लदे पेड़ तोतों के बारे में कितना भला-बुरा सोचते होंगे!
आम तौर पर कस्बों-गांवों में तोते और बंदर बच्चों के परम मित्र माने जाते हैं. हां फलों का नुकसान करने पर माली उनसे दुश्मनी रखता है, तो रखा करे. ये दोनों जितने फल खाते हैं, उससे अधिक नीचे गिराते हैं. धूप में न घूमने की हिदायत देनेवाले परिवारी जन जब दोपहर में सो जाते हैं, तो बच्चे चुपके से फल वाले पेड़ों के नीचे फल इकट्ठा करने पहुंच जाते हैं और अपने-अपने इकट्ठे किये फलों को घर से लाये नमक व मिर्च के साथ मजे से खाते हैं.
इस स्वाद का आनंद शायद षटरस व्यंजन भी नहीं दे सकते. अभी गांवों और कस्बों में बर्ड फ्लू जैसी बीमारी का आतंक ऐसा नहीं पहुंचा है कि हर चिड़िया दुश्मन नजर आने लगे और उनके कुतरे फल न खाने योग्य हो. बच्चों और पक्षियों की दोस्ती तो सदियों से चलती चली आयी है. इस बात के प्रमाण भी हमारे यहां जन-जन में प्रचलित लोककथाओं में खूब मिलते हैं.
आम और आम का पेड़ हमारी स्मृतियों में बैठा है. हर शुभ कार्य जैसे शादी, ब्याह, नामकरण, मुंडन आदि के अवसर पर घर के दरवाजे पर आम के बंदनवार लगाने का रिवाज है. हर तरह की पूजा और यज्ञ में आम की लकड़ी और गंगाजल का छिड़काव करने के लिए आम के पत्तों का प्रयोग किया जाता है. कलशों पर आम के पत्ते रखे हुए सारे उत्सवों में देखे जा सकते हैं. हालांकि, भवन-निर्माण के लिए आम की लकड़ी अच्छी नहीं मानी जाती. कहा जाता है कि यह मीठी होती है. इसलिए इसमें दीमक भी जल्दी लगते हैं.
भारत में आम की सैकड़ों किस्में हैं. देसी, दशहरी, लंगड़ा, कल्मी, गोला, रामकिला से लेकर गोवा का अलफांसो तक. इलाहाबाद के एक सज्जन तो फिल्म स्टारों के नाम पर भी आम की नयी-नयी प्रजातियां विकसित करते रहते हैं.
घर की महिलाएं सदियों से आम के तरह-तरह के खट्टे-मीठे अचार बनाती रही हैं. लू से बचने के लिए कच्चे आम का शरबत, जिसे पना कहते हैं, आजकल होटलों तक में भी खूब मिलता है. भयंकर गरमी के दिनों में लू से भरी दोपहरी में जब किसी को घर से बाहर जाना होता था, घर की महिलाएं उसे खट्टा-मीठा काले नमक, जीरे और चीनी से बना पना पिलाती हैं. आज की पीढ़ी के बीच में मैंगो शेक अधिक लोकप्रिय है, लेकिन अब यह पीढ़ी पना भी पसंद करने लगी है.
आम के इतने उपयोग हैं कि कहावत ही मशहूर है- आम के आम, गुठिलयों के दाम. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक अद्भुत निबंध लिखा है- आम फिर बौरा गये हैं… जब-जब फूलों से या आम से लदे पेड़ दिखते हैं, बरबस ही यह निबंध याद आ जाता है.