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अतिरंजित राष्ट्रवाद नया हथियार

पवन के वर्मा पूर्व प्रशासक एवं राज्यसभा सदस्य हा लिया घटनाएं भविष्य को लेकर भाजपा की यह राजनीतिक रणनीति बिलकुल साफ कर देती हैं कि वह अल्पकालिक राजनीतिक फायदों के लिए अतिरंजित राष्ट्रवाद तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसे दो साधनों का निस्संकोच इस्तेमाल करेगी. इस विषय में विपक्ष के लिए अपनी दृष्टि स्पष्ट कर लेने की […]

पवन के वर्मा

पूर्व प्रशासक एवं राज्यसभा सदस्य
हा लिया घटनाएं भविष्य को लेकर भाजपा की यह राजनीतिक रणनीति बिलकुल साफ कर देती हैं कि वह अल्पकालिक राजनीतिक फायदों के लिए अतिरंजित राष्ट्रवाद तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसे दो साधनों का निस्संकोच इस्तेमाल करेगी. इस विषय में विपक्ष के लिए अपनी दृष्टि स्पष्ट कर लेने की जरूरत है, तभी वह अपने लिए एक उपयुक्त रणनीति तय कर सकेगा. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भाजपा तथा संघ परिवार का एक ऐसा पुराना हथियार है,
जिससे वे पहले भी राजनीतिक लाभ उठा चुके हैं. गनीमत यह रही है कि भारतवासियों ने लंबे समय तक विभाजक राजनीति का शिकार बन यह मानने से हमेशा ही इनकार किया है कि उनका धर्म किसी खतरे में है. अधिकतर भारतीय अब मुल्लाओं तथा महंतों के भड़काऊ भाषणों से दूर रह कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की छतरी तले ठोस आर्थिक विकास हासिल करना चाहते हैं, ताकि उनका और उनकी संतानों का भविष्य सुरक्षित हो सके.
अतिरंजित राष्ट्रवाद भाजपा का एक नया हथियार है और आरएसएस के नीतिनिर्धारकों का यह यकीन है कि यह कई अहम क्षेत्रों में भाजपा सरकार की विफलताओं से लोगों का ध्यान हटा सकेगा. अच्छे दिनों के वादे के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. औद्योगिक उत्पादन सिकुड़ता जा रहा है; निर्यात में लगातार 14 महीनों से गिरावट जारी है और अब यह 13 प्रतिशत से भी ज्यादा नीचे आ चुकी है; डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत 70 के आसपास आ गयी है; कृषि संकट विकराल होता हुआ पिछले वर्ष जहां ऋणात्मक था, वहीं इस वर्ष यह एक प्रतिशत की अस्वीकार्य दर के निकट मंडरा रहा है; प्रति आधे घंटे पर एक किसान आत्महत्या करने को विवश है.
दूसरी ओर समृद्ध तथा मध्यम वर्ग भी उतने ही दुखी हैं. अधिकतर कॉरपोरेट नेतृत्वकर्ताओं का यह मानना है कि कारोबारी सुगमता, बैंकिंग सुधार, डूबे हुए ऋणों के बढ़ते भार, कर सुधार तथा नीतिगत पहलों के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सरकार कुछ भी खास नहीं कर सकी है. मध्यम वर्ग के लिए यह मानना मुश्किल हो रहा है कि सरकार द्वारा दिये जा रहे आंकड़ों के मद्देनजर मुद्रास्फीति में कोई वास्तविक कमी दिख रही है. थोक विक्रय मूल्य सूचकांक जो भी कहे,
जनवरी में सब्जियों की कीमतें 13 फीसदी चढ़ चुकी थीं. रोजगारों के सृजन की दिशा में कौशल विकास कार्यक्रमों की योजनाएं अपने घोषित लक्ष्य से कहीं पीछे चल रही हैं. इस तरह, अच्छे दिनों का वादा एक मजाक ही सिद्ध हुआ है. इन विफलताओं से सामना होने पर ही भाजपा ने अतिरंजित राष्ट्रवाद की शरण ली है, जिसका मूल स्वर यह है कि जो कोई भी सरकार की आलोचना करता है या वैकल्पिक सोच रखता है, वह ‘राष्ट्र विरोधी’ है.
इस अतिरंजित राष्ट्रवाद के खतरनाक पहलू हैं, जो हैदराबाद विवि में रोहित की आत्महत्या तथा जेएनयू में कन्हैया की गिरफ्तारी में साफ दिखते हैं. पहली घटना में विश्वविद्यालयों तथा उच्च शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता को एक केंद्रीय मंत्री समेत एचआरडी मंत्रालय तथा आरएसएस के हस्तक्षेपों द्वारा सीमित करने की कोशिशें नजर आती हैं और भाजपा से जुड़े छात्र संगठन एबीवीपी को खुली छूट दी जा रही है.
मेरा निश्चित मत है कि हैदराबाद केंद्रीय विवि में दलित तथा पिछड़े वर्गों के छात्रों के विरुद्ध एक पूर्वाग्रह साफ तौर पर मौजूद था. जेएनयू घटना में जहां राष्ट्रविरोधी नारे लगानेवालों के विरुद्ध विधिसम्मत कार्रवाई की जरूरत थी, वहीं पूरे विश्वविद्यालय तथा छात्र समुदाय को केवल इस वजह से कलंकित करने की जरूरत नहीं थी कि उनके मत भाजपा से मेल नहीं खाते थे. अतिरंजित राष्ट्रवाद का दूसरा अंश भाजपा समर्थक निरंकुश तत्वों को मनमानी की पूरी छूट देना है. कोर्ट परिसर में कन्हैया, पत्रकारों तथा शिक्षकों की पुलिस की मौजूदगी में पिटाई राजनीतिक-रंजित राष्ट्रवाद का दुष्परिणाम है, जो अभिव्यक्ति और मतभेद की आजादी में यकीन करनेवालों को सचेत करने के लिए काफी है.
भारत में राष्ट्रवाद की भद्र भावना लोकतंत्र के ढांचे में जुड़ी रही है, जहां से उसे परे करने की कोशिश एक फासीवादी प्रवृत्ति प्रदर्शित करती है और यह यहां के जनमानस के विपरीत है. भारतीयों का अपार बहुमत राष्ट्रवादी है, पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इस देश की विराट सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के निरपेक्ष पूरा देश स्वतः भाजपा के लिए एकीकृत वोटबैंक में तब्दील हो जायेगा. भाजपा एक ऐसे आग से खेल रही है, जो कभी नहीं सुलगेगी.(अनुवाद : विजय नंदन)

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