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राष्ट्र गीतों में, गणित में नहीं!

चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस कतार में खड़े आखिरी आदमी के आंसू पोंछ लेने के वादे से बने भारत में फिलहाल ‘राष्ट्रभक्ति’ की बहस जारी है. बहस में एक नया शब्द ‘टैक्सपेयर मनी’ आ धमका है. राष्ट्रवादी सोच में इस शब्द ने एक उलट-फेर पैदा किया है. उदारीकरण के पहले के दशकों में राष्ट्रभक्ति की […]

चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
कतार में खड़े आखिरी आदमी के आंसू पोंछ लेने के वादे से बने भारत में फिलहाल ‘राष्ट्रभक्ति’ की बहस जारी है. बहस में एक नया शब्द ‘टैक्सपेयर मनी’ आ धमका है. राष्ट्रवादी सोच में इस शब्द ने एक उलट-फेर पैदा किया है. उदारीकरण के पहले के दशकों में राष्ट्रभक्ति की कसौटी थी देश की रक्षा करते हुए जान न्यौछावर करने की भावना. इसी भावना के अधीन कभी अलगाववादी आंदोलनों की आग से धधकते देश में इंदिरा गांधी के मुंह से निकला था कि ‘मेरे खून का एक-एक कतरा इस देश को मजबूती प्रदान करेगा.’
कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी का यह वाक्य आजादी के आंदोलन के दौर में तैयार किये गये ‘राष्ट्रभक्ति’ के व्याकरण के भीतर बना था. इसका एक साक्ष्य है माखनलाल चतुर्वेदी की कविता- ‘मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेक.’ देश की रक्षा में प्राण उत्सर्ग करनेवाले इस उत्कट भावना की स्वीकृति जनता-जनार्दन के रूप में राष्ट्रभक्ति के रूप में है, यह सोच कर ही उस वक्त की कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा गांधी की शहादत के बाद चुनावों में उनके मुंह से निकले इस वाक्य को एक नारे में तब्दील किया था.
राष्ट्र की रक्षा में जान कुर्बान करने की भावना का एक शांतिकालीन पर्याय भी था. आर्थिक मोर्चे पर उत्पादन के मामले में ‘आत्मनिर्भरता’ और उपभोग के मामले में ‘मितव्ययिता’ तथा इसी अनुकूल ‘सादा जीवन- उच्च विचार’ आदर्श नागरिक जीवन की कसौटी हुआ करती थी. ‘उच्च विचार’ की परख यह थी कि वह ‘कतार में खड़े आखिरी आदमी’ के हित में है या नहीं.
उदारीकरण के बाद के दौर में राष्ट्रभक्ति के व्याकरण के भीतर ‘टैक्सपेयर मनी एक बीजशब्द की तरह दाखिल हुआ है. शांतिकालीन स्थितियों में इसी शब्द के सहारे राष्ट्रभक्ति की परिभाषा की जाने लगी है.
बात चाहे सरकारी स्कूल में परोसे जानेवाले मिड मील की हो, मनरेगा की दिहाड़ी, किसानों अथवा काॅरपोरेट को मिलनेवाली कर्जमाफी या फिर विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले विद्यार्थियों से लेकर नागरिक संगठनों के धरना-प्रदर्शन की, हर राजनीतिक कर्म के औचित्य-अनौचित्य के फैसले में अब सार्वजनिक तौर पर ‘टैक्सपेयर मनी’ की बात उठायी जाती है.
‘टैक्सपेयर मनी’ का तर्क कहता है, यह राष्ट्र प्राथमिक रूप से उन लोगों का है, जो राजकोष के लिए कर अदा करते हैं और ठीक इसी कारण कर अदा करनेवाले यही लोग किसी राजनीतिक कर्म के अच्छा-बुरा या फिर उसके राष्ट्रहित या राष्ट्र-विरुद्ध होने का फैसला कर सकते हैं.
यह तर्क आगे बढ़ कर बेहद खतरनाक हो सकता है. कहा जा सकता है कि राजकोष में जो जितना ज्यादा टैक्स अदा करता है, उसका राष्ट्र में होनेवाले किसी सार्वजनिक कर्म के राष्ट्रहित या राष्ट्र-विरुद्ध होने के बारे में फैसला करने का उतना ही ज्यादा अधिकार है. यह सबसे ज्यादा धनवान को सबसे ज्यादा विवेकवान ठहरानेवाला तर्क है और इसके बड़े खतरे हैं, खासकर उस स्थिति में, जब हम इस तथ्य पर ख्याल करें कि देश के धनिकों की कुल संख्या के 1 प्रतिशत के पास देश की संपदा का 53 प्रतिशत हिस्सा है, धनिकों की कुल संख्या का 5 प्रतिशत भारत के 68.6 प्रतिशत संपदा पर काबिज है और ऊपरली दस प्रतिशत आबादी का देश की कुल संपदा के 76 प्रतिशत हिस्से पर मालिकाना है.
जाहिर है, किसी लोकतंत्र में एक प्रतिशत आबादी को 99 प्रतिशत आबादी या फिर 10 प्रतिशत आबादी को 90 प्रतिशत आबादी के राजनीतिक कर्म के बारे में यह फैसला करने का विशेषाधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह राष्ट्रहित में है या राष्ट्र के विरुद्ध.
‘टैक्सपेयर मनी’ का तर्क उदारीकरण के दौर में राष्ट्र की बदलती धारणा का एक संकेत है. यह राष्ट्र को एक ‘वैश्वीकृत बाजार’ में और नागरिक को निवेशक या उपभोक्ता में बदलनेवाली धारणा है.
वैश्वीकृत बाजार बने राष्ट्र में आप उसी सीमा तक नागरिक बन सकते हैं, जिस सीमा तक आपके पास खरीद या निवेश की क्षमता हो. यही वजह है कि आज आप कई पीढ़ियों से दूसरे देश में रहते हुए बतौर भारतवंशी भारत में निवेश के नाम पर विशेष छूट हासिल कर सकते हैं या फिर ‘अनिवासी’ होकर भी सम्मान ‘भारतीय’ यानी एनआरआइ कहला सकते और अपने हितों के अनुकूल सरकार से विशेष नीतियां बनाने को कह सकते हैं.
मुश्किल यह है कि खरीद या निवेश की सबकी क्षमता समान नहीं होती, इसलिए वह राष्ट्र की इस नयी धारणा के भीतर बराबरी का नागरिक भी नहीं हो सकता. इसलिए टैक्सपेयर मनी का तर्क राष्ट्र को गैर-बराबरी के एक गणित में बदलता है, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत नागरिक होने से नहीं, बल्कि उपभोक्ता होने से लगायी जाती है.

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