-हरिवंश-
झारखंड, नयी सरकार की प्रतीक्षा में है. पुनरुद्धार के लिए. यह राज्य, जो फेल्ड स्टेट या कोलैपस्ड स्टेट (विफल-ध्वस्त राज्य) का विशेषण अर्जित कर चुका है, किसी चमत्कारी सरकार की प्रतीक्षा में है. चुनाव में काफी श्रम हुआ, पीड़ा भी. पांच फेज में चुनाव संपन्न हुए. 23 अक्तूबर 09 को चुनाव की घोषणा हुई. 23 दिसंबर 09 तक (रिजल्ट की घोषणा होने तक) प्रक्रिया पूरी होगी. इस तरह दो माह तक चुनाव प्रक्रिया चली. पांचों चरणों में, कुल मिला कर लगभग 2.30 लाख जवान सुरक्षा में चौकस रहे. इस तरह दो माह का यह दौर, काफी श्रम साध्य रहा. पर क्या इस लेबर पेन (प्रसव पीड़ा) के बाद, एक असरदार सरकार जन्मेगी?
अब कयास हो रहा है कि कैसी सरकार जन्मेगी? कैसी होगी? किसकी होगी? किसी को स्पष्ट-साफ बहुमत मिलेगा? चुनाव-पूर्व दो बड़े दलों ने जो समझौते किये हैं, इस गंठबंधन (कांग्रेस-बाबूलाल और एनडीए) में से किसी एक को बहुमत मिलेगा या फिर बहुदलीय-निर्दलीय लोगों को मिला कर भानुमति का कुनबा बनेगा? झारखंड की अगली सरकार, बहुमत (किसी एक दल) की होगी या किसी एक साझा (चुनाव-पूर्व के दो घटकों-कांग्रेस एवं बाबूलाल या एनडीए में से किसी एक) की होगी या खिचड़ी (बहुदलीय+निर्दलीय+चुनाव पूर्व गंठबंधन) की होगी.
बंद मतपेटी का सही कयास संभव नहीं है. हरेक दावा कर रहा है कि सरकार हमारी होगी. बहुमत हमें मिल रहा है. इन दलों के जीतने के दावों को सही मान लें, तो झारखंड विधानसभा में विधायकों की संख्या 200 से 250 के बीच होगी. पर राजनीतिक दल तो झूठ के भवसागर में ही तैरते हैं. झूठ, धोखा, वादाखिलाफी, फरेब ही इनका रोज का कारोबार-धंधा है. ये भी यह जानते हैं. पर जनता को धोखा देना और गफलत में रखना इनका परमधर्म है. इसलिए सही स्थिति नहीं बतायेंगे. इसलिए इनके दावों के आधार पर कोई आकलन या कयास संभव नहीं. पर चुनाव परिणाम आंकने से पहले मतदान फीसदी पर नजर डालें, तो स्थिति की झलक मिल सकती है.
झारखंड में चुनाव पांच चरणों में हुए. पहले चरण में मतदान हुआ 53.1 फीसदी. दूसरे चरण में 54.11 फीसदी. तीसरे चरण में 57.21 फीसदी. चौथे चरण में 64.23 फीसदी और पांचवें चरण में 58.13 फीसदी. आमतौर पर पहले चरण में झारखंड के शहरी इलाकों में वोट पड़े. पर पहले फेज में मतदान कम हुआ. रांची में भी. बोकारो और जमशेदपुर वगैरह में भी. साफ है कि शहरी इलाकों में पढ़े-लिखे लोगों ने कम वोट दिये. ये भद्र लोग श्रेष्ठ व्यवस्था चाहते जरूर हैं, पर अपने अकर्म के बावजूद. उदासीन रह कर, अच्छी सरकार चाहते हैं.
ड्राइंग रूम में ही बैठ कर बदलाव और क्रांति के ख्वाब देखनेवाले ये शहरी वोटर कम निकले. ये शहरी मतदाता आमतौर पर किसके समर्थक हैं? भाजपा, कांग्रेस, बाबूलाल या आजसू पार्टी वगैरह को ये प्राथमिकता देते हैं. पर यह जमात ही वोट देने कम निकली. अब ग्रामीण मतदाताओं पर नजर डालें. पहले फेज के बाद मतदान बढ़ा. ग्रामीण और नक्सली प्रभावित इलाकों में तो खूब वोट पड़े. अब ये वोट किधर गये होंगे? यह आंकना संभव नहीं. हां, परंपरागत अनुमान लग सकता है. आमतौर से इन इलाकों में कांग्रेस-बीजेपी को प्रबल समर्थन नहीं मिला होगा. वैचारिक आग्रह-मौजूदा हालात के अनुमान के तहत. हां, इन्हें मत जरूर मिले होंगे. ऐसे इलाकों में भाजपा-कांग्रेस को सीटें भी मिलेंगी. पर ऐसे विधानसभा क्षेत्रों के कुल मतों का बहुमत शायद इन दलों के पास न हो. फिर इन इलाकों से थोक वोट किसे मिले होंगे? थोक तो किसी को नहीं, पर झामुमो को प्राथमिकता मिलने के संकेत हैं. फिर आजसू पार्टी, राजद को भी कहीं-कहीं ऐसे क्षेत्रों में निर्णायक वोट मिलेंगे. सीटें भी. कहीं-कहीं तो निर्दलीय भी बाजी मारेंगे. फुटकर भी दौड़ में कहीं निकल सकते हैं. मसलन, गीता कोड़ा को कामयाबी मिल सकती है.
कुछेक पुराने निर्दलीयों की पुनर्वापसी संभव है. इस तरह विधानसभा में किसी एक दल या चुनाव पूर्व बने दो घटकों में से किसी एक को बहुमत मिलेगा, यह लगता नहीं. ऐसे ग्रामीण क्षेत्र, जो नक्सल प्रभावित नहीं हैं, उनका रूझान किधर होगा? वहां जिसका जैसा प्रभाव, वैसा समर्थन. दुमका इलाके में झामुमो, कहीं भाजपा, कहीं आजसू पार्टी, कहीं कांग्रेस या निर्दलीय. किसी एक को थोक मत-थोक समर्थन मिलता नहीं लगता. दो और महत्वपूर्ण कारक हैं. पहला, विधानसभा चुनाव में निर्दलीय लोगों की उपस्थिति. पहले फेज में 211 निर्दलीय थे. दूसरे में 120, तीसरे में 114, चौथे में 78 और पांचवें में 120 निर्दल. विधानसभा चुनाव में कम मतों से जीत-हार होती है. ये सभी निर्दलीयों (कुल 643) ने कितने वोट काटे हैं और किसके काटे हैं? यह महत्वपूर्ण मामला है. अगर ये निर्दलीय प्रभावी ‘वोटकटवा’ साबित हुए, तो ये झारखंड विधानसभा की तसवीर बदल देंगे. दूसरा एक और प्रभावी मुद्दा है. महंगाई और एक रुपये में चावल उपलब्ध कराने का एनडीए का नारा. एनडीए को उम्मीद है कि यह नारा उसकी वैतरणी पार करा देगा. पर ऐसा होता नहीं दिखता.
लेकिन मतपेटियों के गर्भ से जिन्न भी निकलते हैं. चमत्कार भी होते हैं. सारे कयास, अनुमान ध्वस्त भी होते हैं. क्या झारखंड विधानसभा चुनाव में यह चमत्कार या जिन्न निकलने की संभावना है?लगभग शून्य. समाजशास्त्र का एक बुनियादी सिद्धांत है, अगर सोसाइटी फ्रैर्ड (समाज बंटा) है, तो उसके बीच के परिणाम या जनमत भी फ्रैर्ड ही निकलेंगे. झारखंड का समाज बहुरंगी है. बहुविध. आदिवासी-गैरआदिवासी. सदान-महतो. बिहारी, बंगाली, ओड़िया. बाहरी-भीतरी. न जाने कितने सांचों-खंडों में बंटा. इसलिए ऐसे बंटे-टूटे-बिखरे समाज में परिणाम भी ऐसे ही बंटे-टूटे – छिटके और बिखरे होंगे. किसी को साफ-स्पष्ट बहुमत नहीं देगा, ऐसा खंडित-विभाजित समाज या समूह.
यह अवधारणा टूटती है, उसी तरह, जैसे हर नियम के अपवाद होते हैं. मसलन जब राजनीतिक विजन समृद्ध होती है या दूरदर्शी नेता, बड़े सवाल- फलक पर समाज का आह्वान करते हैं, तब समाज खड़ा होता है. अपनी धुरी छोड़ कर. जाति, धर्म, उपजाति, कुल, गोत्र, क्षेत्र, बाहरी-भीतरी, बाड़ों-बंधनों को तोड़ कर. जब राजनीति बड़े सपने दिखाती है, तो समाज जगता है. धीरे-धीरे ही सही, पर जगता है. मसलन ‘77’ का लोकसभा चुनाव, भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत संग्रह था. पहली बार केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनी. यह बैलेट बॉक्स क्रांति थी. फिर ‘89’ में वीपी सिंह ने बोफोर्स का मुद्दा उठाया. शीर्ष पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के खिलाफ देश का आवाहन किया. निजाम बदला. फिर मंडल-कमंडल पर ध्रुवीकरण हआ. ‘95-96 में लालू प्रसाद को बिहार चुनाव में अपार समर्थन मिला. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. झारखंड में भी यह संभव था. चूंकि झारखंड जैसे ध्वस्त या फेल्ड स्टेट में ही तो राजनीति बड़ा सपना दिखा सकती थी. बदलाव की. आमूलचूल परिवर्तन की.
बेहतर झारखंड को बनाने का आह्वान कर. झारखंड पुनर्निर्माण का विजन दिखा कर. झारखंड के रिवाइवल का रोड मैप बना कर. पर यह हुआ नहीं. क्योंकि होना भी नहीं था. इस स्तर की राजनीति करने के लिए देश में दिग्गज चाहिए. महारथी. दूरदर्शी. स्टेट्समैन. चरित्रवान और संकल्पवान नेता चाहिए. साथ में समर्पित कार्यकर्ता. पर ये दोनों हों भी, तब भी बात नहीं बननेवाली. जब तक विचारधारा या वैकल्पिक राजनीति की पूंजी न हो. विचार या सिद्धांत की थाती ही लोगों को अपने में घेरों-घरों से निकलने के लिए प्रेरित करती है. पर इस तरह की राजनीति तो देश में ही नहीं है. हालात ने बौनों को बड़ा नेता बना दिया है. इस मापदंड पर तो दिल्ली की राजनीति ही दरिद्र और कंगाल है. फिर झारखंड के नेताओं से क्यों अपेक्षा?
इस तरह झारखंड की राजनीति पुरानी ही धुरी पर लौटेगी. दलों में तोड़-फोड़, परदे के पीछे के समीकरण-खेल, आपसी जोड़-घटाव के गणित पर ही सरकार बननेवाली है, चाहे वह किसी घटक या कुनबे की हो. हरियाणा जैसे दृष्टांत भी दिखेंगे. मसलन, विधायक जीतेंगे किसी और दल से, फिर दल में संवैधानिक तरीके से विभाजन कर कहीं और दिखेंगे.
कांग्रेस ने भविष्य की स्थिति का संकेत पा लिया है. सुबोधकांत सहाय का बयान इसका सबूत है. उन्होंने कहा है कि झामुमो और राजद हमारे नचुरल एलाइज हैं. आजसू पार्टी कभी सांप्रदायिक फोल्डर में नहीं रही. चुनाव के दौरान ही लालू प्रसाद के बयान पढ़ लीजिए. सबसे अधिक वह कांग्रेस के खिलाफ ही आग उगले हैं. झामुमो के भी कांग्रेस विरोध कटु बयान आये हैं. सुदेश महतो की आजसू पार्टी कहां रही, यह सार्वजनिक है. इसलिए सुबोधकांत सहाय का बयान सरकार बनाने के लिए जारी बयान है.
पर चुनाव परिणाम के आंकड़ों के स्पष्ट होने से ही हालात साफ होंगे. एनडीए 42 की जादुई संख्या से जितनी दूर होगा, सरकार बनाने की उसकी संभावना उतनी कम होगी. अगर एनडीए अपने बूते 36-38 पहुंचे और आजसू पार्टी 3-4 हो, तो यह खेमा सशक्त दावेदार बन सकता है. पर यह होता नजर नहीं आता. यह तभी होता, जब ग्रामीण इलाकों में जहां वोट फीसदी बढ़े हैं, वहां एनडीए-आजसू पार्टी को थोक सर्मथन मिलता. पर ऐसा आभास नहीं है. वैसे भी सुदेश महतो केंद्र में कांग्रेस का रुख देख कर अपनी दिशा तय करेंगे. दूसरी ओर कांग्रेस-जेवीएम के साथ भी यही स्थिति है. ग्रामीण क्षेत्रों में इस गंठबंधन को प्रबल समर्थन मिला होता, तो इनके पक्ष में जिन्न निकलता. पर यह भी नहीं लगता.
ऐसी त्रिशंकु स्थिति में यूपीए सरकार बनने के प्रबल आसार होंगे. कारण, केंद्र में कांग्रेस की सरकार है. मशीनरी व ताकत उसके हाथ में है. झारखंड के नेताओं- दलों की असलियत-कारोबार-अतीत जगजाहिर है. वे प्रभावी ताकत के सामने झुकेंगे. और यह ताकत कांग्रेस के पास है. पर इस बार कांग्रेस भी अधिक सतर्क और सावधान है. वह पहले की तरह कोड़ा या शिबू सोरेन की सरकार नहीं बनवायेगी. कांग्रेस बहत सोच- समझ कर कदम उठानेवाली है. अपनी शर्तों पर वह सरकार बनवायेगी. उसकी संख्या बढ़ी, तो मुख्यमंत्री कांग्रेस का होगा. लालू प्रसाद भी आसानी से समर्थन नहीं देंगे. झारखंड में उन्होंने काफी मेहनत-मशक्कत की है. झारखंड के लिए नहीं, बिहार में अपने अस्तित्व के लिए. वह चाहेंगे कि झारखंड में समर्थन की कीमत बिहार में वसूलें. कांग्रेस को बाध्य कर कि वह लालू और रामविलास के गंठबंधन में बिहार में शरीक हो. पर कांग्रेस यह नहीं माननेवाली. क्योंकि उत्तरप्रदेश और बिहार में वह अपनी सत्ता वापसी देख रही है. कांग्रेस को इन राज्यों में अपना वनवास खत्म होता दिख रहा है. इसलिए इस बार कांग्रेस फूंक-फूंक कर सरकार बनवायेगी. किसी को साथ लेकर सरकार बना देने के पहले वह दस बार सोचेगी.
एक महत्वपूर्ण संकेत है. चुनाव शुरू हुआ, तो इस पर कोई यकीन नहीं करता था. जैसे-जैसे चुनाव संपन्न होने लगे, यह संकेत पुख्ता होता गया. अगली सरकार का भविष्य तय करेगा, झामुमो. राजनीतिक खेमों में यह अनुमान था कि इस चुनाव में झामुमो पस्त होगा. पर संकेत बताते हैं कि अगली सरकार की कुंजी झामुमो के पास ही होगी.फिर भी ये सभी कयास या अनुमान एक पल में ध्वस्त हो सकते हैं, अगर बैलेट बॉक्स से कोई अकल्पिक चमत्कारी परिणाम निकल जाये तो.